क्या राजनीति के सबसे अविश्वसनीय नेता हैं नीतीश ? जासूसी लेटर बम के फटने से हिली भाजपा
नई दिल्ली। क्या नीतीश कुमार राजनीति के सबसे अविश्वसनीय नेता है? क्या वे अपने मित्र दलों की पीठ पर वार करते हैं ? आरएसएस जासूसी कांड के बाद नीतीश कुमार एक बार फिर अपने मित्र की नजर में संदिग्ध बन गये हैं। लालू यादव पहले से नीतीश को गैरभरोसेमंद नेता मानते रहे हैं। वे कटाक्ष में नीतीश को पलटू राम कहते रहे हैं। पिछले कुछ समय से कई बार ऐसी परिस्थितियां बनी जिससे जदयू-भाजपा के रिश्ते बिगड़ते दिखे। दोनों दलों में चाहे जो भी मतभेद हों लेकिन सरकार चलाना उनकी मजबूरी है। मजबूरी की ये दोस्ती अब शक के बुनियाद पर खड़ी है। क्या हिंदूवादी संगठनों की जासूसी, भविष्य की राजनीति का हिस्सा है ? क्या 2020 में बढ़त हासिल करने के लिए नीतीश साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर चल रहे हैं ? इस घटना का नीतीश पर क्या असर पड़ेगा, कहना मुश्किल है, लेकिन नेताओं की जासूसी के मुद्दे पर इस देश में सरकार गिरी भी है। मार्च 1991 में कांग्रेस ने राजीव गांधी की जासूसी कराये जाने के आरोप में चंद्रशेखर सरकार गिरा दी थी।
क्या नीतीश यकीन के काबिल हैं ?
क्या यह मुमकिन है कि पटना में बैठा कोई एसपी, संघ और उससे जुड़ी 19 इकाइयों के नेताओं की जासूसी का फरमान जारी कर दे और सरकार को खबर न हो ? वह भी तब जब ये चिट्ठी करीब 52 दिन पुरानी हो। अगर ऐसा है तो यह नीतीश सरकार का फेल्योर है। गृह विभाग खुद मुख्यमंत्री के पास है। अगर उन्हें इसकी जानकारी नहीं है तो ये और भी गंभीर बात है। अगर मुख्यमंत्री को अपने मातहत अफसर के काम की जानकारी न हो तो फिर ऐसी सरकार किस काम की ? लेकिन ऐसा है नहीं। नीतीश की हनक पूरी तरह कायम है। किसी अफसर की ऐसी हिम्मत नहीं कि वह बिना किसी ऊपरी संकेत के ऐसी चिट्ठी लेख दे। ये तो समय से पहले लेटर बम फूट गया जिससे रंग में भंग पड़ गया। इस भंडाफोड़ से नीतीश कुमार, बिहार पुलिस और जदयू के नेता इतने हड़बड़ा गये कि परस्पर विरोधी बयान देने लगे। अब नीतीश के दामन को बचाने के लिए पत्र लिखने वाले एसपी को कुर्बान करने की तैयारी चल रही है। नीतीश कुमार इस घटना पर लाख सफाई दें लेकिन उनकी बात भाजपा नेताओं को हजम नहीं हो रही।
संघ को लेकर नीतीश की चिंता
नीतीश कुमार अल्पसंख्यक वोट के तलबगार रहे हैं। इसके लिए वे कोई भी कुर्बानी दे सकते हैं। भाजपा से दोस्ती के बाद उनके मन में इस वोट बैंक को लेकर हमेशा खटका लगा रहाता है। उन्हें लगता है कि भाजपा या संघ के नेता कुछ ऐसा वैसा न कर दें जिससे उनका काम बिगड़ जाए। जब से बिहार में भाजपा फिर सत्ता में आयी है संघ प्रमुख मोहन भागवत का बिहार दौरा बढ़ गया है। मोहन भागवत 2018 में फरवरी, मई और नवम्बर में बिहार दौरे पर आये थे। उनके फरवरी दौरे के बाद बिहार में रामनवमी के समय नवादा, औरंगाबाद, समस्तीपुर, बेगूसराय में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया था। विपक्षी दलों ने इस तनाव को मोहन भागवत से जोड़ दिया था। उस समय तो जदयू ने संघ के नेताओं पर कोई टिप्पणी नहीं की थी लेकिन दो घटनाओं ने उसकी चिंता बढ़ा दी थी। रामनवमी से कुछ पहले भागलपुर में हिंदू नववर्ष के मौके पर जुलूस निकला था। इसका नेतृत्व अश्विनी चौबे ( अब केन्द्र में मंत्री) के पुत्र अर्जित शाश्वत कर रहे थे। इसके बाद भागलपुर में साम्प्रदायिक हिंसा फैल गयी थी। पुलिस ने अश्विनी चौबे के पु्त्र को दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उस समय भाजपा और जदयू में जम कर तकरार हुई थी। नवम्बर 2018 में जब मोहन भागवत बिहार आये थे इसके एक दिन बाद ही जदयू का अल्पसंख्यक सम्मेलन था। तब कई नेताओं ने कहा था कि भागवत की वजह से जदयू का अल्पसंख्यक सम्मेलन फ्लॉप हो गया। इससे जदयू की चिंता बढ़ गयी थी।
साम्प्रदायिकता से समझौता नहीं
नीतीश कई बार भाजपा को चेता चुके हैं कि वे साम्प्रदायिकता से कोई समझौता नहीं कर सकते हैं। ये मुमकिन है कि नीतीश अपनी भविष्य की राजनीति के लिए संघ से जुड़े लोगों का फीडबैक ले रहे हों। लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों और अल्पसंख्कों ने नीतीश को भरपूर समर्थन दिया था। हो सकता है कि नीतीश इस जिताऊ समीकरण के साथ 2020 में अकेले ताल ठोक दें। नीतीश संघ की संगठन शक्ति और उसका चुनावी महत्व जानते हैं। भाजपा की चुनावी जीत में संघ की शक्ति सबसे अहम है। आरएसएस जिस तरह से बिहार में सक्रिय है उससे भाजपा की स्थिति मजबूत हो रही है। नीतीश को अंदेशा है कि कहीं भाजपा बिहार में जदयू से अधिक प्रभावशाली न हो जाए। इस लिए संघ की शक्ति पर नजर रखना जरूरत भी है और मजबूरी भी।
क्या है संघ का नजरिया ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई भी फैसला सोच समझ कर लेता है। वह भावनाओं के आवेश में फैसला नहीं करता। जासूसी कांड के उजागर होने के बाद संघ के नेता खामोश हैं लेकिन भाजपा के नेता उतावले हैं। भाजपा कार्यकर्ता के ट्वीट को रिट्वीट कर केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह नीतीश सरकार से समर्थन वापस लेने के लिए माहौल बना रहे हैं। लेकिन अभी फिलहाल कुछ होने वाला नहीं है। नीतीश ने भाजपा का सबसे बड़ा अपमान तो जून 2010 में किया था जब उनके राष्ट्रीय नेताओं को दिया गया भोज कैंसल कर दिया था। तब भी भाजपा के कई नेता नीतीश सरकार को गिराने के लिए उतावले थे। लेकिन संघ के हस्तक्षेप से भाजपा खामोश हो गयी थी। इस बार भी संघ भविष्य की राजनीति का अकलन कर रहा है। दोस्ती के इस सफर में वह बहुत दूर तक नीतीश पर भरोसा नहीं कर सकता। वह समय देख कर नीतीश को मौकापरस्त साबित करना चाहता है। अगर नीतीश इसी तरह अविश्वसनीय बने रहे तो वे किसी भी टीम के कप्तान बनने के काबिल नहीं रहेंगे।
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