बुढापे के अकेलेपन को दूर करने के लिए रतन टाटा का निवेश
रतन टाटा ने एक ऐसे स्टार्ट अप में निवेश किया है जो बुजुर्गों के एकाकीपन और उनकी ऊब को दूर करने में मदद करेगा। इसमें ऐसे युवाओं को नौकरी दी जाएगी जिनमें संवेदना हो, ह्यूमर हो, जिन्हें अखबार पढ़ना आता हो और जिनमें इमोशनल इंटेलिजेंस हो। उनका एक काम ये भी होगा कि जब बुजुर्गवार सो जाएँ, तो वे भी झपकी मार लें। ऐसा लगता है कि बहुत सारे पढ़े-लिखे, बातूनी, ख़ुशमिजाज और थोड़े से आलसी लोग इस काम के लिए मुफीद हो सकते हैं।
इस
कंपनी
का
नाम
गुडफेलोज
है
और
इसकी
शुरुआत
25
साल
के
शांतनु
नायडू
ने
की
है
जो
टाटा
के
ऑफिस
में
ही
काम
करते
हैं।
इसका
बंबई
में
अभी
पायलट
चल
रहा
है
और
जल्द
ही
इसका
विस्तार
अन्य
शहरों
में
किया
जाएगा।
एक
आकलन
के
मुताबिक
देश
में
करीब
5
करोड़
एकाकी
बुजुर्ग
हैं
जिनके
बच्चे
उनसे
दूर
रहते
हैं।
उनमें
से
बड़ी
संख्या
ऐसे
बुजुर्गों
या
परिवारों
की
है
जो
अपने
एकाकीपन
को
दूर
करने
के
लिए
पैसा
अदा
कर
सकते
हैं।
शांतनु
नायडु
की
कंपनी
गुडफेलो
इसी
खालीपन
को
भरने
की
एक
कोशिश
है।
गुडफेलो से भी पहले कुछ इस तरह के प्रयास हुए हैं लेकिन वे नाकाम ही रहे, क्योंकि वे एक तो नॉन प्रोफिट किस्म के संगठन थे जहाँ शुरू में लोग जोश में तो काम करने आ जाते थे लेकिन लंबे समय तक टिक नहीं पाते थे क्योंकि वेतन या अन्य प्रोत्साहन वहाँ नहीं था। गुडफेलो वो गलती नहीं दुहराने जा रहा है। यहाँ सात राउंड की सघन साक्षात्कार प्रक्रिया के बाद लोगों को नियुक्त किया जा रहा है जिसमें इंजीनियरिंग, पत्रकारिता से लेकर फिल्म प्रशिक्षण तक की पृष्ठभूमि के लोग शामिल हैं।
हालांकि इस उद्यम की सफलता को लेकर शंकालु लोग कम नहीं हैं जिनका मानना है कि बुजुर्गों को संभालना आसान नहीं हैं। पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं कि पाँच साल पहले जापान ने भारत से ऐसे ही दो लाख युवा मांगे थे। लेकिन बात सिरे नहीं चढ़ी। लेकिन टाटा ने जिस नव-उद्यम में निवेश किया है, संभवत: वह बुजुर्गों की देखभाल करने वाला ही नहीं, बल्कि उनका मनोरंजन करने वाला भी है। बुजुर्गों की देखभाल में पारंपरिक तरीके की एजंसियाँ झारखंड या आदिवासी इलाकों से लोगों को लाती हैं जिनके काम खाना बनाने से लेकर बरतन-झाड़ू पोछा तक होता है।
लेकिन इस तरह के उच्च आय या उच्च मध्यमवर्ग बुजुर्गों की समस्या उन्हें खाना-पीना बनाकर खिलाने या उनका घर साफ करने की नहीं है। उसके लिए तो उनके घर में नौकर होते हैं। असल समस्या उनसे एक स्तर की बातचीत, उनका मन बहलाव और उनकी फ्रिकेंस्वी में रम जाना है। इसके लिए ठीकठाक पढ़े लिखे लोगों की जरूरत होती है।
नोएडा में एक अंतरार्ष्ट्रीय ह्यूमन रिसोर्स कंपनी में वरिष्ठ आईटी नियोक्ता संजय कुमार कहते हैं, 'दस साल पहले मैं नोएडा की एक पॉश कॉलोनी में किराए पर रहता था और जब मैं शाम को घर आता था तो मालिक मकान दंपत्ति मेरा इंतजार करते रहते थे। उनके चारों बच्चे अमेरिका और यूरोप में रहते थे और उनसे बात करने वाला कोई नहीं था। कई बार वे मेरा इतना समय ले लेते थे कि मैं खीझ जाता था। उस समय मुझे लगा कि इस गैप को भरना भी एक बिजनेस आइडिया हो सकता है'। यह शहरी जीवन, माइग्रेशन और विकास का एक निर्दयी लेकिन जरूरी सच है। इसके नैतिक पहलुओं पर विचार करना इस लेख का लक्ष्य नहीं है, लेकिन हमारे आसपास ऐसे बहुत सारे बुजुर्ग हैं जो जिन्दगी के सफर में अकेले हो गये हैं।
बुजुर्गों की देखभाल एक पक्ष है। देश में ऐसे रोजगार भी पैदा होने लगे हैं जिसमें लोगों को डिप्रेसन से दूर रखने के लिए ह्यूमर मैन की ज़रूरत होती है। बॉलीवुड में संघर्षरत सोनभद्र के कृष्ण उपाध्याय कहते हैं, 'मुंबई में फिल्म स्टारों को हँसाने के लिए ह्यूमर स्टाफ रखा जाता है जिन्हें 1 घंटे प्रति दिन के लिए सत्तर-अस्सी हजार रुपये महीना तक मिलता है। चूँकि फिल्मों का बजट लंबा चौड़ा होता है और अगर फिल्म का स्टार डिप्रेसन में चला गया तो उसका असर फिल्म पर पड़ेगा। ऐसे में सौ करोड़ की फिल्म के लिए साल में आठ-दस लाख रुपया हंसने हंसाने पर खर्च करना बड़ी बात नहीं है।'
हालाँकि ये बातें सुनने में अजीब लगती हैं, लेकिन ये सच हैं। शहर तो शहर अब तो गांवों में भी रिटायर्ड बुजुर्ग लोगों से घेर-घेर कर बातें करते हैं। उनके बच्चे उनसे दूर दिल्ली-बेंगलुरु या अमेरिका चले गए हैं और उनसे बातें करने के लिए कोई नहीं है। बुजुर्गों का एकाकीपन और युवाओं में डिप्रेसन आम समस्या बनती जा रही है। जाहिर है, सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में बदलाव आएगा तो बाजार उसकी जगह भरने के लिए सामने आएगा। यह अच्छी बात है कि रतन टाटा जैसे गंभीर उद्यमी इसके लिए सामने आए हैं। इस सेक्टर में भी कुछ हजार नौकरियाँ पैदा होने की संभावनाएँ हैं।
अब अमेरिका में रह रही दिल्ली के द्वारका उपनगर की रहने वाली मिनी झा बताती हैं, '2015 में मेरे घर के ऊपर वाले फ्लैट में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहते थे जिनकी केयर-टेकर एक झारखंड की आदिवासी लड़की थी। उसे कार चलाना, खाना बनाना, अंग्रेजी में टाइप करना और कम्प्यूटर का बुनियादी ज्ञान था। उसका काम अंकल-आंटी को सप्ताह-पखवाड़े में एक बार कार से डॉक्टर के पास ले जाना और खाना बनाकर खिलाना होता था। घर में बर्तन और सफाई के लिए अलग लोग आते थे। जब बुजुर्ग की कभी बहुत ही ज्यादा तबीयत खराब होती तो वह लड़की उनके बच्चों को विदेश फोन कर देती, और वे उन्हें देखने आ जाते। उस काम के लिए उसे तीस हजार रुपये मिलते थे।'
देखा जाए तो भारत के हजारों गांवों में लघु-स्तर पर ऐसा ही हो रहा है। जहां बड़े पैमाने पर आबादी का पलायन हुआ है। शहरी ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी बुजुर्ग अकेले पड़ गये हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी ऐसा सामाजिक ताना बाना बचा हुआ है कि बुजुर्ग कम से कम बात करने के लिए अकेला नहीं पड़ा है। लेकिन शहरों की स्थिति अलग है। बड़े बड़े बंद मकानों और फ्लैट में अकेले हो चुके बुजुर्ग जिनका परिवार उनसे बहुत दूर है, उन्हें किसी नौजवान की जरूरत है जिससे कम से कम वो बात कर सकें। हंसी मजाक कर सके और अपने अनुभवों को साझा कर सकें। ऐसे में टाटा ने भविष्य को बढ़िया से भांप लिया है और सही निवेश किया है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)