कितनी कारगर होगी मोदी की विपक्ष को निष्पक्षता की सलाह?
नई दिल्ली। सत्रहवीं लोकसभा का पहला शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभी संसद सदस्यों को पक्ष और विपक्ष भूलकर निष्पक्ष तरीके से काम करने की सलाह काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन इसी के साथ ही यह भी देखने की बात है कि क्या ऐसा हो पाता है। प्रधानमंत्री ने यह बात अपने अनुभव के आधार पर कही है जिसमें उन्होंने बताया कि अगर संसद की कार्यवाही बिना व्यवधान के चलेगी, तो वह फलदायी साबित होगी। इसके अलावा हम लोगों की इच्छाओं के अनुरूप काम कर सकेंगे और उसके परिणाम भी सामने आएंगे। यह भी कहा कि हम सभी को देश हित में काम करना चाहिए।
विपक्ष को लेकर क्या बोले मोदी
विपक्ष की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि सभी को संसद की कार्यवाही में भाग लेना चाहिए, सक्रियता और संयम के साथ अपनी बातें रखनी चाहिए। उन्होंने विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका का भी उल्लेख किया और कहा कि जब हम संसद में आते हैं, तो हमें मुद्दों पर निष्पक्षता की भावना से आना चाहिए देश के व्यापक हित के बारे में सोचना चाहिए। यह भी कहा कि संख्या बल के लिहाज से विपक्ष को परेशान नहीं होना चाहिए। हमारे लिए उनकी भावना मूल्यवान है। जाहिर है इस तरह की बातों पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए, लेकिन इस सबके बीच सत्ता पक्ष की भूमिका की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। कई बार यह भी देखने में आया है कि संसद में व्यवधान के लिए सारा दोष केवल विपक्ष पर डाल दिया जाता है। ऐसा यूपीए और एनडीए के शासन के दौरान भी कई बार देखा गया है।
यह तो प्रधानमंत्री के वक्तव्य का एक हिस्सा रहा है। इसके दूसरे हिस्से में भी प्रधानमंत्री ने कई अहम बातें की हैं। इसमें उन्होंने जनादेश का मतलब भी बताया है और प्रकारांतर से यह साफ किया है कि विपक्ष को इसे किस रूप में लेना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा है कि ऐसा दशकों बाद हुआ है जब किसी गैरकांग्रेसी पार्टी को जनता ने दोबारा भारी बहुमत के साथ चुनकर सरकार में भेजा है। लोगों ने हमें फिर से देश की सेवा करने का अवसर प्रदान किया है। इसलिए सभी पार्टियों को लोगों के पक्ष में फैसले लेने के लिए समर्थन प्रदान करना चाहिए। कहीं न कहीं इसमें यह भाव छिपा हुआ है कि जनता ने सरकार को वे सारे फैसले लेने का जनादेश दिया है जो उसे राष्ट्रहित और जनहित में लगता है। इसी के साथ यह भी कि विपक्ष अगर इसमें किसी तरह का अडंगा लगाने की कोशिश करेगा, तो इसका साफ मतलब होगा जनहित और राष्ट्रहित की अनदेखी। निष्पक्षता का भी अर्थ निकाला जाना चाहिए कि विपक्ष सरकार के सभी फैसलों का समर्थन करे ताकि देश और जनहित पूरे किए जा सकें। लेकिन लगता नहीं कि विपक्ष प्रधानमंत्री की अपील की उसी भावना से लेने जा रहा है जिसकी वकालत की गई है। संसद सत्र को लेकर विपक्ष की बातों से तो इसी तरह का संदेश निकलता लग रहा है। इस बजट सत्र में कई महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी दिलाए जाने की संभावना है। इसके विपरीपत विपक्ष के अपने मुद्दे भी सामने रखे हैं जिन पर वह बहस चाहता है।
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विपक्ष की ओर भी देखने की जरूरत
प्रधानमंत्री की सलाह के मद्देनजर विपक्ष की बातों को भी देख लेने की जरूरत है ताकि यह अंदाजा लगाया जा सके कि संसद सत्र के दौरान किस तरह की संभावनाएं उत्पन्न हो सकती हैं। संसद सत्र से पहले बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष ने सरकार के समक्ष अपनी मंशा खुलकर रखी। संसद में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की ओर से सरकार के समक्ष रखा गया कि विपक्ष द्वारा बेरोजगारी, कृषि संकट, सूखा, प्रेस की आजादी, महिला आरक्षण और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव जैसे मुद्दे उठाए जाएंगे। बैठक में संघवाद के कमजोर होने का मुद्दा भी उठाया गया। कांग्रेस की ओर से यह भी कहा गया कि विपक्ष विचारधारा की लड़ाई लड़ रहा है जो अभी भी जारी रहेगी। विपक्ष की ओर से धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा भी उठाया गया। कुछ विपक्षी सदस्यों ने अध्यादेशों को लेकर सरकार के समक्ष अपनी बातें रखीं और इस बात पर चिंता जताई कि सरकार ऐसा करते हुए संसद की अनदेखी करती है। विपक्ष का यह भी कहना था कि ऐसा करना संविधान की भावना के अनुरूप नहीं होता है जबकि 16वीं लोकसभा के दौरान ऐसा कई बार किया गया जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
विपक्ष की इस तरह की बातों का साफ मतलब है कि वह संसद में सरकार को घेरने का कोई मौका छोड़ने वाली नहीं है। ये सारे मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें जनहित और देशहित से इतर नहीं माना जा सकता। ऐसे में जब विपक्ष इन मुद्दों को उठाएगा, तो टकराव होने से इनकार नहीं किया जा सकता। बीते पांच वर्षों के दौरान ऐसा कई बार देखा गया है जब विपक्ष ने किसानों से लेकर तमाम मुद्दों पर सरकार को घेरने की कोशिश की। भले ही संख्या बल में विपक्ष कमजोर रहा हो, लेकिन वह यह बताने की कोशिश करता रहा कि जनहित के मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करने की अपनी जिम्मेदारी निभाता रहेगा। यह अलग बात है कि तब भी सरकार की ओर से यही कहा गया कि विपक्ष गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार किए हुए है जो देश हित में नहीं है।
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विपक्ष सरकार के साथ करेगा कैसा रवैया
ऐसे में सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री विपक्ष से क्या अपेक्षा रखते हैं और विपक्ष सरकार के साथ कैसा रवैया अख्तियार करता है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि दोनों पक्ष लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कैसे पेश आते हैं क्योंकि लोकतंत्र का कमजोर होना किसी भी रूप में अच्छा नहीं कहा जा सकता है। बीते समय की कुछ बातों को याद किया जाए, तो पता चलता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ओर से आरोप लगाए जाते रहे हैं कि लोकतंत्र को कमजोर किए जाने की कोशिशें की जा रही हैं। संसद का बाधित होना अथवा कामकाज ठप होना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। इसीलिए यह दोनों पक्षों की जिम्मेदारी बनती है कि संसद की कार्यवाही शांतिपूर्ण तरीके से और बिना बाधा के संचालित हो सके। लेकिन यह केवल कहने की बात नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र में दोनों ही पक्षों का अपना महत्व होता है और दोनों को अपनी भूमिका के बारे में गंभीर और जिम्मेदार होना चाहिए।
इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि कई बार दोनों पक्षों की ओर से इसकी अनदेखी जाती है और खामियाजा देश तथा जनता को भुगतना पड़ता है। ऐसे में सहअस्तित्व का बना रहना जरूरी है। अगर विपक्ष को संख्या बल की चिंता न कर निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए, तो सत्ता पक्ष को भी इसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि प्रचंड बहुमत का यह अर्थ निकालना चाहिए कि उन्हें कुछ भी करने की छूट मिल जाती है। पूर्व में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय भी ऐसी स्थितियां थीं जब विपक्ष संख्या के लिहाज से काफी कमजोर था। पिछली लोकसभा की तरह इस लोकसभा में भी किसी दल को मुख्य विपक्षी पार्टी बनने लायक संख्या भी मतदाताओं ने नहीं प्रदान किया है। इसके बावजूद विपक्ष की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। देखने की बात होगी कि विपक्ष प्रधानमंत्री की सलाह को किस रूप में लेता है।
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