
इंडिया गेट से: विपक्ष और मीडिया के निशाने पर क्यों हैं सुप्रीम कोर्ट और ईडी?
विपक्ष और मीडिया सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अजय माणिकराव खानविलकर की जमकर आलोचना कर रहा है, जिन्होंने अपने रिटायरमेंट से चार दिन पहले मनी लांड्रिंग एक्ट के सभी प्रावधानों को ठीक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट पीएमएलए एक्ट के विभिन्न प्रावधानों पर सवाल उठाने वाली ढाई सौ से ज्यादा याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ईडी का दुरूपयोग कर रही है।

राजनीतिक विद्वेष का आरोप इसलिए सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि राजनीतिज्ञों से ही भारी मात्रा में धन बरामद हो रहा है। अगर राजनीतिक विद्वेष से कोई केस दायर किया गया है, तो उन्हें इन्साफ देने के लिए अदालत है। अदालत फैसला करेगी कि किसी केस में फलां व्यक्ति शामिल है या नहीं है। राजनीतिक नेता या दल खुद ही तय नहीं कर लेंगे कि केस राजनीतिक विद्वेष से दायर किया गया है। संजय राउत का ही उदाहरण लो, अदालत ने उनकी रिमांड अवधि बढाते हुए कहा कि जांच एजेंसी ने बेहतरीन सबूत जुटाए हैं।
लेकिन विपक्ष का कहना है कि 2003 से 2014 तक मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत सिर्फ 104 केस दाखिल हुए थे, लेकिन 2014 से 2022 आते आते मोदी राज में 880 केस दाखिल किए गए हैं। आरोप यह है कि राजनीतिक विद्वेष के कारण ही इतने ज्यादा केस बढ़ गए हैं। विपक्ष का यह भी कहना है कि 2003 से 2014 तक किसी भी केस का अदालत से फैसला नहीं हुआ था और उसके बाद भी 2022 तक सिर्फ 23 लोगों को सजा हुई है। ईडी के केस तो आठ गुना से ज्यादा बढ़ गए लेकिन सजा होने वाले मामले नाममात्र हैं, यह भी राजनीतिक विद्वेष में मामले दर्ज किए जाने की पुष्टि करता है। हाँ यह आंकडा तो सही है, लेकिन मनी लांड्रिंग एक्ट बनने के बाद 2003 से 2014 तक ईडी का स्टाफ सिर्फ 600 कर्मचारियों का था, जबकि 2048 कर्मचारियों की स्वीकृति हुई थी।
स्टाफ कम था तो ईडी अपने हाथ में केस भी कम ले रहा था। जैसे जैसे स्टाफ बढा ईडी ने अपने हाथ में केस ज्यादा लेने शुरू किए। जहां तक बहुत कम मामलों में सजा होने का सवाल है, तो विपक्ष और मीडिया का एक वर्ग देश को गुमराह कर रहा है। अभी तक सिर्फ 24 केसों का निपटारा हुआ है और उनमें से 23 केसों में सजा हुई है। यह 95 प्रतिशत बनता है, जो किसी भी अन्य जांच एजेंसी के केसों से ज्यादा है।
किसी भी केस की जांच शुरू करने से पहले ईडी हवा में तीर नहीं मारता। केस को दायर करने से पहले एक नोट तैयार किया जाता है, जिसमें इस बात की पुष्टि की जाती है कि यह केस हाथ में लेने लायक है। अदालत इस नोट की समीक्षा कर सकती है। बाद में उसे आरोपी को भी देना होता है। अगर प्रारम्भिक तौर पर ही कोई सबूत नहीं होगा तो ईडी जांच शुरू ही कैसे कर सकती हैं और किसी को गिरफ्तार कैसे कर सकती है? ईडी केस की अच्छी तरह जांच पड़ताल के बाद ही जांच शुरू करता है।
इस संबंध में दिशा निर्देश हैं कि जांच कैसे करनी है, कौन किस चीज को चेक करेगा। सर्च का फैसला करने से पहले भी अधिकारी को सर्च के कारण बताने पड़ते हैं। उसे बताना पड़ता है कि उसके पास ऐसे क्या सबूत हैं कि सर्च करना जरूरी है। उस सबूत को भी प्राधिकारी के पास भेज कर सर्च की मंजूरी लेनी पडती है। इसी तरह गिरफ्तारी का कारण भी फाइल में लिखना पड़ता है। गिरफ्तारी से पहले आरोपी को गिरफ्तारी के कारण बताने होते हैं।
संतोषजनक नोट के बाद ही ईडी गिरफ्तारी, सर्च और सम्पत्ति का अटेचमेंट या सीज कर सकता है। अगर प्रापर्टी अटैच की जाती है, तो उसे 30 दिन में चुनौती दी जा सकती है। अगर फैसला करने वाला प्राधिकारी अटैचमेंट को गलत मानता है, तो अटैचमेंट को खत्म किया जा सकता है। इस प्राधिकारी को छह महीनों में फैसला करना होता है। प्राधिकारी के फैसले को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
ईडी ने बिना पुख्ता सबूतों के नेशनल हेराल्ड की सम्पत्ति अटैच नहीं की है। सर्च की अंदरुनी मंजूरी के भी कारण फाईल पर लिखे गए हैं। कहीं ईडी पर झूठे दस्तावेज रखने का राजनीतिक आरोप न लग जाए इसलिए सर्च से पहले ईडी ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता और यंग इंडिया के डायरेक्टर मल्लिकार्जुन खड्गे को सर्च के समय हाजिर रहने के लिए कहा था। लेकिन जस्टिस खानविलकर और ईडी की आलोचना करने वाला मीडिया यह नहीं बता रहा कि पीएमएलए क़ानून बना क्यों था? इसके पीछे बड़ा लंबा इतिहास है।
मनी लांड्रिंग की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है। इसका रिश्ता सिर्फ काले धन से भी नहीं है। इसका संबंध ड्रग ट्रैफिकिंग और आतंकवाद के लिए काले धन का इस्तेमाल करने से भी है। 4 अगस्त को भी जम्मू में ड्रग ट्रैफिकिंग से कमाया दो करोड़ रुपया नगद मिला है जो जम्मू कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल होना था। ड्रग ट्रैफिकिंग के धन से आतंकवाद फैलाने की अन्तरराष्ट्रीय साजिश को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों को क़ानून बनाने की सलाह दी थी।
सबसे पहले विएना कन्वेंशन में विचार विमर्श हुआ था। फिर 1990 में संयुक्त राष्ट्र में इस पर गंभीर चिंता जाहिर की गई और सभी देशों से अपील की गई कि वे मनी लांड्रिंग पर क़ानून बनाएं। संयुक्त राष्ट्र ने कुछ दिशा निर्देश भी तय किए थे। भारत की संसद में उन दिशा निर्देशों के मुताबिक़ ही 1999 में बिल पेश किया गया था। तीन साल के अध्ययन और विचार विमर्श के बाद 2002 में मनी लांड्रिंग एक्ट पास किया गया था।
इस क़ानून की धारा 45 को लेकर बड़ी आपत्ति है जिसमें जमानत का प्रावधान नहीं था। 2017 में ताराचंद ने इस धारा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी जिसमें कोर्ट ने इस धारा को निरस्त कर दिया था। निरस्त करने के दो आधार थे कि जब तक अपराध साबित नहीं होता, उसे अपराधी नहीं माना जा सकता और दूसरा आधार यह था कि यह नहीं माना जाना चाहिए कि जब वह जमानत पर होगा तो उसी अपराध को दुबारा करेगा। 2019 में सरकार संसद में संशोधन बिल लाई, जिसमें इन दोनों प्रावधानों को दोबारा शामिल किया गया। अब उसी सुप्रीम कोर्ट ने धारा 45 पर मुहर लगा दी है।
मनी लांड्रिंग केसों में ज्यादातर लोग धन और राजनीतिक तौर पर ताकतवर लोग हैं। उनके पास सर्वश्रेष्ट वकील हैं। वे पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीमकोर्ट में गए। उनकी चुनौती थी कि क़ानून संविधान के मुताबिक़ ठीक नहीं है। संविधान के कई प्रावधानों का उलंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने क़ानून की सभी धाराओं का अध्यन करने के बाद ही हरी झंडी दी है। जस्टिस खानविलकर की आलोचना करने वाला मीडिया यह क्यों नहीं बता रहा कि उन्होंने अपनी तरफ से कुछ नया जोड़ कर क़ानून को ज्यादा सख्त नहीं बनाया है, बल्कि संसद से पारित क़ानून को सही बताया है।
अब अगर विपक्ष के नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बड़ी बेंच में चुनौती देना चाहते हैं तो उन्हें पूरा अधिकार है। जैसे 2017 का अदालत का फैसला 2022 में उलटा हो गया है तो वैसे बड़ी बेंच धारा 45 को फिर रद्द करने का फैसला कर सकती है या जमानत के प्रावधानों की शर्तें तय कर सकती है। लेकिन यह भी गुमराह करने के लिए कहा जा रहा है कि अदालत ने ईडी की हर गिरफ्तारी पर जमानत के अधिकार को खत्म कर दिया है। नहीं, यह सही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ पीएमएलए में दायर केसों में जमानत के अधिकार पर फैसला सुनाया है।
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