New Education Policy -2020: मोदी सरकार की नीयत पर क्यों उठ रहे हैं सवाल?
आखिरकार भारत की नई शिक्षा नीति को अपना मुकाम मिल गया है. करीब पांच सालों तक चली लम्बी कवायद के बाद तैयार किये गये मसौदे को केन्द्रीय कैबिनेट की मंज़ूरी मिल गयी है जिसके बाद करीब 34 साल बाद देश में एक नई शिक्षा लागू होने जा रही है. जोकि कम से कम आगामी दो दशकों के लिये देश में शिक्षा के रोडमैप की तरह होगी. लंबे समय से एक नयी शिक्षा नीति की जरूरत महसूस की जा रही थी. अभी तक देश में साल 1986 में लायी गयी शिक्षा नीति लागू थी जिसमें 1992 में संशोधन किया गया था. मोदी सरकार द्वारा लंबे समय से इस दिशा में कवायद की जा रही थी. यह नीति इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे देश की पहली पूर्ण बहुमत वाली हिन्दुतत्वादी सरकार द्वारा लाया गया है जिसने इसे बनाने में एक लंबा समय लिया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई शिक्षा नीति को नए भारत की बुनियाद के तौर पर पेश किया है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
हिंदी में करीब 107 और अंग्रेजी में 65 पन्नों का यह दस्तावेज मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित है. पहले भाग में स्कूल शिक्षा, दूसरे में उच्च शिक्षा, तीसरे भाग में व्यावसायिक, प्रौढ़, प्रौद्योगिकी, ऑनलाइन और डिजिटल शिक्षा तथा चौथे भाग में इसके क्रियान्वयन की रणनीति को रखा गया है. स्कूली शिक्षा की बात करें तो नीति में इसमें ढांचागत बदलाव की बात की गयी है साथ ही कई महत्वपूर्ण लक्ष्य भी निर्धारित किये गये हैं. नीति में स्कूली शिक्षा की मौजूदा संरचना को बदलकर इसे 5+3+3+4 के आधार पर रखने की बात की गयी है जिसके अंतर्गत पहले पांच वर्ष में तीन वर्ष की प्री-प्राइमरी के साथ कक्षा एक और दो को शामिल करते हुये इसे आधारभूत चरण कहा गया. इसके बाद तैयारी के तीन वर्ष के तहत कक्षा तीन से पांच को रखा गया है फिर माध्यमिक चरण के तीन वर्ष में कक्षा छह से आठ शामिल हैं और उच्च माध्यमिक चरण के तहत कक्षा नौ से बारहवीं तक को शामिल किया गया है. नई शिक्षा नीति में आंगनवाड़ी के माध्यम से पोषण के साथ प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा को जोड़ने के साथ स्कूलों में अब मध्यान्ह भोजन के साथ बच्चों को नाश्ता दिये जाने, स्कूलों में शिक्षकों की कमी दूर करने और छठी कक्षा से बच्चों के लिये वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाने और सभी बच्चों को पाँचवी कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने जैसी बातें हैं.
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नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा में भी कई बड़े बदलाव किए गए हैं, जिसमें प्रमुख रूप से उच्च शिक्षा को भी लचीला बनाने की बात की गयी है जिसके तहत ग्रेजुएशन के कोर्स को एक साल ही पूरा करने पर भी इसके लिये सर्टिफिकेट दिये जाने की बात की गयी है, एमफ़िल को समाप्त कर दिया गया है और विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए गये हैं.
नयी शिक्षा के प्रशासन में व्यापक बदलाव की बात की गयी है, इसके तहत मानव संसाधन और विकास मंत्रालय को दोबारा "शिक्षा मंत्रालय" नाम कर दिया गया है साथ ही सावर्जनिक शिक्षा पर सरकारी खर्चे को जीडीपी के छह प्रतिशत तक खर्च करने जैसे लक्ष्य को दोहराया गया है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बात भी की गयी है जोकि शिक्षा का एपेक्स निकाय होगा. यह निकाय निरंतर और सतत आधार पर देश में शिक्षा के दृष्टिकोण को विकसित करने, उसे लागू करने, उसका मूल्यांकन करने और उस पर पुनर्विचार करने के लिए जिम्मेदार होगा. साथ ही यह आयोग एनसीईआरटी, प्रस्तावित राष्ट्रीय उच्च शिक्षा रेगुलेटरी अथॉरिटी तथा राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान जैसे निकायों के कामकाज और उनके कार्यान्वयन की निगरानी भी करेगा. मेडिकल और कानून की शिक्षा को छोड़कर उच्च शिक्षा के लिए उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) के नाम से एक सिंगल रेगुलेटर के गठन की बात की गयी है.
नियति
हम
नीति
और
कानून
को
लागू
करने
के
मामले
में
फिसड्डी
मुल्क
साबित
हुये
हैं.
किसी
भी
कानून
को
लागू
करने
को
लेकर
तो
सरकारों
की
बाध्यता
होती
है
परन्तु
नीतियां
सरकारों
के
लिये
मार्गदर्शक
सिद्धांत
की
तरह
होती
हैं
इसलिये
हमारे
देश
में
अक्सर
नीतियाँ
काग़ज़
पर
ही
रह
जाती
हैं.
तकनीकी
तौर
पर
देखा
जाए
तो
स्वतंत्र
भारत
में
अभी
तक
दो
शिक्षा
नीति
लागू
हुई
है.
पहली
शिक्षा
नीति
1968
में
लागू
हुई
थी,
जबकि
1986
में
दूसरी
शिक्षा
नीति
को
लागू
किया
गया
था
जिसका
मूल्यांकन
करते
हुये
1992
में
संशोधित
शिक्षा
नीति
लागू
की
गयी
थी.
कोठारी
आयोग
के
सिफारशों
के
आधार
पर
भारत
सरकार
द्वारा
1968
में
पहली
राष्ट्रीय
शिक्षा
नीति
की
घोषणा
की
गयी
थी
जिसमें
6
से
14
वर्ष
की
आयु
के
सभी
बच्चों
को
अनिवार्य
शिक्षा,
शिक्षकों
के
बेहतर
क्षमतावर्धन
के
लिए
उचित
प्रशिक्षण
और
मातृभाषा
में
शिक्षण
पर
विशेष
ज़ोर
दिया
गया
था.
परन्तु
इन
प्रस्तावों
को
पूर्णरूपेण
लागू
नहीं
किया
जा
सका.
इसके
बाद
1986
में
दूसरी
राष्ट्रीय-शिक्षा-नीति
का
निर्माण
हुआ.
इसमें
21वीँ
सदी
की
आवश्यकताओं
के
अनुरूप
बच्चों
में
आवश्यक
कौशलों
तथा
योग्यताओं
के
विकास
पर
जोर
देने
की
बात
की
गयी
थी.
1992
में
इसी
नीति
को
संशोधित
किया
गया
जिसमें
सबके
लिए
प्राथमिक
शिक्षा
का
लक्ष्य
प्राप्त
करने
के
लिए
पांच
प्रमुख
क्षेत्रों
की
पहचान
की
गयी
ताकि
समुदाय
की
आवश्यकताओं
के
अनुरूप
शिक्षा
को
बनाया
जा
सके
तथा
आर्थिक
उदारीकरण
की
नई
चुनौतियों
का
सामना
किया
जा
सके.
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इन नीतियों का हश्र हम देख ही चुके हैं इसलिए हम देखते हैं कि शिक्षा के मामले में अभी भी भारत की गिनती पिछड़े देशों में होती है. नयी शिक्षा नीति में कई महत्वपूर्ण लक्ष्यों को रखा गया है, लेकिन असली चुनौती इन्हें लागू करने में और इस दिशा में आने वाली वित्तीय और प्रशासनिक स्तर पर कई अड़चनों को दूर करने की है. मिसाल के तौर पर नयी शिक्षा नीति में शिक्षा पर जीडीपी के 6 प्रतिशत सरकारी व्यय की प्रतिबद्धता को दोहराया गया है, गौरतलब है कि पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 1968 ने शिक्षा में जीडीपी के 6 प्रतिशत व्यय का सुझाव दिया था जिसे 1986 में दूसरे एनईपी ने दोहराया था. मौजूदा सरकार के दौर में तो शिक्षा का लगातार बजट कम ही हुआ है. इन नीति में शिक्षा संस्थानों के स्वायत्ता की बात की गयी है लेकिन अभी तक मोदी सरकार इसके एकदम उल्टी दिशा में चली है, शिक्षा संस्थानों खासकर उच्च शिक्षा को लगातार निशाना बनाया गया है. इसी प्रकार से इस नीति में शिक्षा के अधिकार कानून को नजरअंदाज किया गया है जो 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का प्रावधान करती है.
नीयत
यह नीति संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 के करीब 28 वर्षों के बाद आई है, इस दौरान देश और दुनिया के स्तर पर कई बड़े और व्यापक बदलाव हुए हैं. पिछले तीन दशकों में देश की अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक ढांचा पूरी तरह से बदल चुकी है, नब्बे के दशक के बाद से भारत में सामाजिक रूप से विभाजन बहुत गहरा हुआ है और विभिन्न समुदायों का एक दूसरे के प्रति विश्वास बहुत तेजी से घटा है. संचार क्रांति और सोशल मीडिया ने तो हमारे मानस और व्यवहार तक को बदल दिया है. इन सबके बीच देश में 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू हुआ है जिसके तहत भारत में प्राथमिक शिक्षा को एक कानूनी हक के रूप में स्वीकार किया गया. लगता नहीं है कि नई शिक्षा नीति इन बड़े बदलाओं को संबोधित करने में कामयाब हुई है. उलटे इस नीति में लोकतान्त्रिक मूल्यों, सामाजिक एकता और नागरिकों के बीच बंधुतत्व की भावना से जुड़े मुद्दों जैसे धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय को लेकर खामोशी का भाव देखने को मिलता है. जिससे मंशा पर सवाल उठाना लाजिमी है. पिछले दिनों हम देख ही चुके है कि किस तरह से केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने के नाम पर कक्षा नौवीं से लेकर बारहवीं तक के पाठ्यक्रम में नागरिकता, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और देश के संघीय ढांचे से सम्बंधित अध्याय हटाए गए हैं.
इसी प्रकार से हमारे देश में शिक्षा एक समवर्ती यानी केंद्र व राज्य सरकारें दोनों का विषय है परन्तु नई शिक्षा नीति में इसे बदलने की नीयत साफ़ नजर आ रही है, नीति में प्रधानमंत्री के अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाने की बात की गयी है. इसको लेकर कई विशेषज्ञ शिक्षा के केन्द्रीकरण और राज्यों की स्वायत्तता को लेकर चिंता जाहिर कर चुके हैं.
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)