वोट के लिए ही सही ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ने हिम्मत तो दिखाई
नई दिल्ली। चुनाव है तो जीत के लिए हर पार्टी के अपने दांव हैं। दांव लग गया, तो जीत की गारंटी और नहीं भी लगा, तब भी विमर्श में आ जाने और बड़े काम के लिए पहल का श्रेय तो कहीं जाता नहीं है। मतलब दोनों हाथ में लड्डू और यह लड्डू हासिल करने की पहल की है दो प्रमुख क्षेत्रीय दलों बीजू जनता दल (बीजेडी) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने महिला आरक्षण के बहाने। बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव में 33 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारेगी। तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी उनसे भी आगे निकल गईं। उन्होंने सभी 42 प्रत्याशियों की सूची में 41 प्रतिशत सीटें महिला प्रत्याशियों को आवंटित की हैं।
दोनों पार्टियों की चुनाव बाद होगी अहम भूमिका
ध्यान देने की बात है कि यह दोनों पार्टियां एकला चलो की नीति अख्तियार किए हुए हैं। मतलब इनका किसी भी दल के साथ कोई गठबंधन नहीं है। यह भी माना जा रहा है कि चुनाव परिणामों के बाद सरकार बनाने और प्रधानमंत्री तय करने में इनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 और ओडिशा में 21 सीटें हैं। बीते 2014 के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 42 में से 34 सीटों और ओडिशा में बीजेडी ने 21 में से 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
इस चुनाव में भी अभी तक के आकलन के मुताबिक माना जा रहा है कि इन दोनों की संख्या में शायद ही कमी आए। अगर ऐसा होता है तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार बनाने और प्रधानमंत्री तय करने में इनकी अलग-अलग निर्णायक भूमिका हो सकती है। यद्यपि बीजेडी किसी को भी समर्थन नहीं देती रही है। इसके बावजूद उसकी सदस्य संख्या का अपना मतलब होगा जो समर्थन देने अथवा न देने दोनों में अहम भूमिका होगी। ममता बनर्जी का अभी तक का रवैया बताता है कि वह विपक्ष को ज्यादा तरजीह दे सकती हैं। लेकिन उनका इतिहास मिला-जुला रहा है। वह एनडीए के साथ भी रह चुकी हैं और यूपीए के साथ भी। मतलब कोई जरूरी नहीं कि वह अभी तक के रुख पर ही कामय रहें। फिर भी इतना तो तय है कि ये दोनों पार्टियां साथ-साथ या अलग-अलग जिस भी गठबंधन के पक्ष में जाएंगी, उसे मजबूती प्रदान करेंगी।
महिला आरक्षण की दिशा में बड़ा कदम
राजनीतिक हलकों में हालांकि देश की दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने इस घोषणा को महिलाओं का वोट हासिल करने की कोशिश के रूप में बताया जा रहा है। अगर इसे सही भी मान लिया जाए, तो भी यह क्या कम है कि ये दल पहल तो कर रहे हैं। कम से कम वोट हासिल करने के लिए ही सही, सभी दल और ये बड़े दल भी यह काम कर सकते हैं। इसे महिला आरक्षण की दिशा में प्रतीकात्मक कदम ही कहा जा सकता है। इसके बावजूद इसके माध्यम से दोनों दलों ने कम से कम यह चुनौती भरा कदम उठाया है और इसके महत्व को रेखांकित करने की कोशिश की है कि वर्षों से उपेक्षित इस मुद्दे को इस तरह भी परवान चढ़ाया जा सकता है। यह इस लिहाज से भी अहम कोशिश मानी जा सकती है कि जब ऐसे किसी मुद्दे पर विमर्श होता है, कहा जाता है कि आखिर राजनीतिक पार्टियां खुद ही इस दिशा में पहल क्यों नहीं करतीं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण नहीं प्रदान किया जा रहा है, तो पार्टियां यह काम खुद कर सकती हैं।
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सालों से लटका है महिला आरक्षण
उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण का सवाल कई दशकों से लटका हुआ है। यह तब है जबकि हर पार्टी महिला आरक्षण के पक्ष में है और कोई विरोध में नहीं है। संसद में भी इसको लेकर कई बार गरमागरम बहस हो चुकी है लेकिन कभी भी सहमति नहीं बन पाई। कुछ दलों के अपने तर्क हैं जिनको लेकर वे मुखर विरोध पर उतर आते हैं और इस बहाने इसे आगे के लिए टाला जाता रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी भी सर्वसम्मति बनाने के लिए रास्ते नहीं तलाशे गए। अभी कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी सार्वजनिक घोषणा की थी कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो महिला आरक्षण लागू करेगी। भाजपा भी हमेशा से इसकी वकालत करती रही है। केंद्र में दोनों ही दलों की सरकारें सत्ता में रहीं लेकिन महिला आरक्षण लागू नहीं किया जा सका। इसे लागू करने के उस तरह के प्रयास भी सत्ताधारी दलों की ओर से नहीं किए गए जैसा तमाम मुद्दों को लेकर अक्सर किया जाता है।
संभवतः यही कारण है कि राजनीतिक हलकों में इस आशय की चर्चाएं भी आम रहती हैं कि कोई दल गंभीरता से नहीं चाहता कि महिलाओं को आरक्षण मिल सके। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह माना जाता है कि महिलाओं का उस तरह का कोई बड़ा वोट बैंक नहीं है जैसा दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों आदि का है। एक तरह की ऐसी प्रछन्न धारणा भी काम करती है कि महिलाओं का वोट आम तौर पर घरों के पुरुष सदस्य तय करते हैं। इसके अलावा पुरुष सत्तात्मक समाज में महिलाओं को हैसियत व सत्ता सौंपने को लेकर हिचकिचाहट रहती है। यह अलग बात है कि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी योग्यता के बल पर शीर्ष पर पहुंचती महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वह जब जो चाहेंगी, उसे हासिल कर लेंगी। संभव है कभी इस तरह का समय भी आए जब महिलाओं का भी अपना कोई अलग दल हो और वे महिला आरक्षण के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ कर इसे लागू करा पाएं।
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BJD और TMC की बड़ी पहल
फिलहाल नवीन पटनायक और ममता बनर्जी की ओर से महिला आरक्षण को लेकर की गई पहल को एक बड़ी राजनीतिक कोशिश के तौर पर तो देखा ही जा सकता है। संभव है इसका कुछ असर राष्ट्रीय दलों पर भी पड़े और वे भी महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा संख्या में चुनाव मैदान में उतारें। जब तक महिला आरक्षण लागू नहीं होता, तब तक तो कम से कम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ाई ही जा सकती है। देखना होगा कि यह पहल केवल महिलाओं का वोट पाने के लिए की जा रही है अथवा महिला आरक्षण लागू करने की दिशा में एक स्वतंत्र प्रयास के तौर पर।
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