चुनाव अभियान को शक्तिशाली बनाने का मिशन तो नहीं है ‘मिशन शक्ति’?
नई दिल्ली। 'मिशन शक्ति' बाह्य अंतरिक्ष की दुनिया में भारत की मजबूत होती शक्ति का प्रदर्शन तो है ही, यह 2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभावशाली हस्तक्षेप का भी प्रमाण है। अंतरिक्ष में किसी भी सैटेलाइट को मार गिराने की क्षमता दिखाने का साहस है मिशन शक्ति, वहीं चुनाव आचार संहिता लागू रहते हुए इसके परीक्षण की घोषणा करने स्क्रीन पर आना नरेंद्र मोदी का राजनीतिक दुस्साहस भी है। 'मिशन शक्ति' ने भारत को इतना शक्तिशाली बना दिया है कि वह बाह्य अंतरिक्ष में अपनी परिसम्पत्ति की सुरक्षा कर सकेगा। अब चीन हमारे सैटेलाइट को एकतरफा गिराने का दुस्साहस नहीं कर पाएगा, क्योंकि भारत के पास जवाबी क्षमता है। लम्बी दूरी की मिसाइल या एंटी मिसाइल विकसित करना अब आसान होगा। जब हम हज़ार किमी प्रति घंटे की रफ्तार वाले सैटेलाइट को धरती से 300 किमी ऊपर मार सकते हैं तो अपनी इस क्षमता का 1600 किमी की दूरी पर भी प्रदर्शन कर सकते हैं। जाहिर है अंतरिक्ष में कर सकते हैं तो धरती से सटे वायुमंडल में यह प्रक्षेपित दूरी और मारक क्षमता भी काफी अधिक हो सकती है।
भयभीत पाक, चिन्ता में चीन
पाकिस्तान का डर जाना स्वाभाविक है। चीन चिन्ता प्रकट नहीं करता, तो यह अस्वाभाविक होता। अमेरिका ने अंतरिक्ष में मलबे की चिन्ता जताकर दुनिया में जिम्मेदार राष्ट्र की भांति अपनी ज़िम्मेदारी दिखाने और जताने का प्रयास किया है। रूस की प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। फिर भी एक बात साफ है कि भारत के सफल परीक्षण को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चुनौती नहीं मिली है। यह भारत की एक महाशक्ति के रूप में स्वीकार्यता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता।
पोखरण दो के मुकाबले मिशन शक्ति
मिशन
शक्ति
की
तुलना
पोखरण
दो
से
की
जा
सकती
है।
पोखरण
दो
के
समय
अंतरराष्ट्रीय
प्रतिक्रिया
भारत
के
विरुद्ध
रही
थी।
हमने
लम्बा
आर्थिक
प्रतिबंध
झेला
था।
परमाणु
ऊर्जा
क्षमता,
यूरेनियम
जैसे
मुद्दों
पर
हम
इस
वजह
से
पिछड़
भी
गये
और
हमारी
आर्थिक
सेहत
पर
इसका
बहुत
बुरा
असर
पड़ा।
दूसरी
बात
ये
है
कि
पोखरण
दो
के
जवाब
में
पाकिस्तान
ने
भी
परमाणु
परीक्षण
किए
थे।
इस
तरह
हमारी
उपलब्धि
सुरक्षात्मक
नजरिए
से
उपलब्धि
नहीं
रह
गयी
थी।
दो
पड़ोसी
देश
एक
हफ्ते
में
परमाणु
सम्पन्न
देश
हो
गये
थे।
इसके
मुकाबले
‘मिशन
शक्ति'
के
बाद
अंतरराष्ट्रीय
बिरादरी
मौन
है
या
कम
से
कम
भारत
के
खिलाफ
जाने
का
साहस
नहीं
दिखा
रहा
है।
आर्थिक
प्रतिबंध
की
तो
कोई
कल्पना
नहीं
कर
सकता।
क्या होता है राजनीतिक इच्छाशक्ति का आधार?
एक सवाल उठ रहा है कि जब भारत ने 2012 में एंटी सैटेलाइट मिसाइल बनाने की क्षमता हासिल कर ली थी, तो इस क्षमता को वास्तविक रूप क्यों नहीं दिया गया या इसका परीक्षण क्यों नहीं किया गया। इसी संदर्भ में पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को राजनीतिक रूप से इच्छाशक्ति विहीन और वर्तमान सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति वाला बताया जा रहा है। इसमें संदेह नहीं कि तुलनात्मक रूप में वर्तमान एनडीए सरकार इस मायने में सशक्त है कि इसे निर्णय लेने के लिए गठबंधन दलों की सहमति की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा मोदी-शाह की जोड़ी के बीच
सरकार और पार्टी में फर्क बहुत कम रह गया है। ऐसी किसी सरकार के ख़तरे अलग हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यूपीए सरकार ने परमाणु करार के मुद्दे पर जो साहस दिखलाया था, अपनी सरकार तक को दांव पर रख दिया था वह कमजोर होने के बावजूद मनमोहन सरकार की सैद्धांतिक मजबूती को दर्शाता है। आज की सरकार को अपने वजूद का खतरा लेकर कोई फैसला करना नहीं पड़ा है।
आर्थिक सेहत ही तय करता है फैसला सही या गलत
अगर सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति की बात की जाए, तो निश्चित रूप से इस पर अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति और माहौल का असर होता है। इसके अच्छे बुरे-परिणाम भी देश को भुगतने पड़ते हैं। मूल बात है देश का आर्थिक विकास। अगर अंतरराष्ट्रीय दबावों से बचते हुए देश ने आर्थिक विकास की रफ्तार पकड़ ली, तो एक समय के बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव खुद ब खुद कमजोर होने लगता है। 90 के दशक के बाद से पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने देश में उदारीकरण की जो राह दिखलायी, उसी का नतीजा था कि 1998 में पोखरण दो हो सका। बड़े फैसले लेने का साहस आर्थिक मजबूती से ही आता है। हालांकि तब भी आर्थिक रूप से परिपक्व माहौल नहीं था और इसी वजह से हमें वैश्विक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं आतंकवाद के आक्रमण को झेलने में भी हिन्दुस्तान अकेला रह गया, दुनिया भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ।
टूटी है चुनाव आचार संहिता
अगर आज दुनिया खामोश है, सतर्क है और भारत का विरोध नहीं कर रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सब भारत के इस कदम का समर्थन कर रहे हैं। आने वाली सरकार को एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण के बाद की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सामना करना पड़ेगा। आर्थिक रूप से मजबूती ही इसका आधार होगा। अगर बीते 5 साल में देश में नोटबंदी जैसी स्थिति नहीं होती और आर्थिक विकास की दर 8 फीसदी के रफ्तार को उम्मीद के हिसाब से छू रहा होता, तो काम बहुत आसान हो जाता।
पांच साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी सरकार जाते-जाते जब मिशन शक्ति करती है तो वह इसके अंजाम से बेपरवाह रहती है। चुनाव नतीजे को प्रभावित करना ही उसकाअंतिम और एक मात्र लक्ष्य रह जाता है। देश की जरूरत और मजबूती की बातें तो की जाती हैं लेकिन उसका मकसद भी चुनाव में घुल मिल जाता है। इसी वजह से तो चुनाव से ठीक पहले बड़े फैसले लेने से रोकने का विधान है, चुनाव आचार संहिता है। क्या इस चुनाव आचारसंहिता के टूटने पर, ऐसी प्रवृत्तियां आगे नहीं बढ़े इस पर देश को मौन रहना चाहिए?
चहेते शिष्य के हाथों अपना ही महल ढहता देखते रहे आडवाणी
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)