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Media Freedom: मीडिया पर अनावश्यक नियंत्रण क्यों?

मीडिया की आवाज़ बंद करने की कोशिश सिर्फ कांग्रेस सरकारों ने ही नहीं की, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी दूसरे दलों की सरकारों को भी मीडिया को काबू में रखने का सुझाव रहती है।

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Media Freedom Why need to control on media

Media Freedom: संसद और संसद के बाहर भाजपा नेताओं के मुंह से आपातकाल का जिक्र अक्सर सुनाई देता है। जबकि अब तो ऐसे भाजपा नेता बहुत कम दिखते हैं, जो आपातकाल में जेल गये होंगे| जेल जाने वाले करीब करीब सारे नेता मार्गदर्शक मंडल में भेज दिए गए हैं, जिनके मार्गदर्शन की किसी को जरूरत नहीं दिखती| राहुल गांधी की कांग्रेस जब भी नरेंद्र मोदी सरकार पर संसदीय संस्थाओं को कुचलने का आरोप लगाती है, तो उसके जवाब में भाजपा के छोटे से लेकर बड़े नेता आपातकाल की याद दिलाते हैं|

Media Freedom Why political parties try to control on media

जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का लोकसभा का निर्वाचन रद्द कर दिया था, तो विपक्षी दलों ने उनके इस्तीफे की मांग तेज कर दी थी| जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन राष्ट्रीय स्वरूप ले चुका था, तब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर सारे राजनीतिक नेताओं को जेल में डाल दिया था| जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी, चन्द्रशेखर, चौधरी चरण सिंह जैसे नेता ही नहीं, राजनीतिक दलों के लाखों कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया था| आम लोगों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे|

आपातकाल का डंडा सिर्फ राजनीतिक नेताओं के खिलाफ ही नहीं चला, मीडिया के खिलाफ भी चला था| प्रेस की स्वतन्त्रता छीन ली गई थी, बिना सेंसर बोर्ड से पास करवाए, संपादक अपना संपादकीय नहीं छाप सकते थे| इसके जवाब में इंडियन एक्सप्रेस, हिन्द समाचार और पंजाब केसरी जैसे अनेक अखबारों के संपादकों ने संपादकीय कॉलम को खाली छोड़ना शुरू कर दिया था|

मीडिया को दबाने की कोशिश कोई पहली बार नहीं हुई थी, इससे पहले 1974 में जब ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने 'हिंद समाचार' और 'पंजाब केसरी' की आवाज को दबाने के लिए पहले तो दोनों अखबारों के विज्ञापन बंद किए और बाद में बिजली काट दी। लेकिन इन अखबारों के मालिक स्वतन्त्रता सेनानी लाला जगत नारायण ने सरकार का मुकाबला किया। उन्होंने अपने दोनों अखबार ट्रैक्टर की सहायता से छापने शुरू कर दिए थे| एक साल बाद आपातकाल में लाला जगत नारायण समेत देशभर में अनेकों पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया था|

आपातकाल के बाद भी मीडिया को सरकारों के कोप का शिकार होना पड़ा था| अल्पकाल की जनता सरकार के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई थी| संजय गांधी की विमान हादसे में मौत हो चुकी थी| इंदिरा गांधी का उनकी पुत्रवधू मेनका गांधी से झगड़ा चल रहा था। अखबारों में झगड़े की खूब खबरें छप रहीं थीं, जिस कारण इंदिरा गांधी परेशान रहती थी|

जगन्नाथ मिश्रा बिहार के मुख्यमंत्री थे, वह दिल्ली आ कर इंदिरा गांधी से मिले। इंदिरा गांधी ने मीडिया की ओर से छापी जा रही खबरों को अपनी परेशानी का कारण बताया| उन दिनों खुद मिश्रा के खिलाफ भी भ्रष्टाचार की खूब खबरें छप रहीं थी| सूचना एवं प्रसारण मंत्री वसंत साठे से मन्त्र लेकर वह पटना पहुंचे और विधानसभा में बिहार प्रेस बिल पेश कर दिया| यह प्रेस बिल ट्रायल के तौर पर लाया गया था, जिसे बाद में संसद से भी पास करवाया जाना था|

इस बिल में राज्य सरकार के खिलाफ संवेदनशील लेखों को छपने से रोकने का प्रावाधान था| जिसमें पत्रकारों पर जुर्माने के साथ-साथ 5 साल तक सजा का प्रावधान भी था| पुलिस ऐसी कोई भी शिकायत मिलने पर पत्रकारों को गिरफ्तार कर सकती थी| हालांकि इस बिल की गूँज दिल्ली तक पहुंची और देश भर के पत्रकारों ने सड़कों पर उतर कर बिल के खिलाफ आवाज उठाई| नतीजतन जगन्नाथ मिश्रा को बिल वापस लेना पड़ा|

बिलकुल वैसे ही हालात 1987-88 में पैदा हो गए, जब अखबारों में राजीव गांधी के बोफोर्स घोटाले की गूँज छाई रहती थी| प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी आए दिन बोफोर्स घोटाले पर नया बयान दे रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस बोफोर्स घोटाले को खूब उछाल रहा था| राजीव गांधी ने राम जेठमलानी को भौंकने वाला कुत्ता कह दिया था, जिसके जवाब में राम जेठमलानी ने हर रोज राजीव गांधी से दस सवाल पूछने शुरू कर दिए थे| जिन्हें इंडियन एक्सप्रेस प्रमुखता से छाप रहा था। इंडियन एक्सप्रेस में छपे सवाल अगले दिन देशभर के सभी अखबारों में छपते थे|

मीडिया को काबू करने के लिए राजीव गांधी की सरकार मानहानि बिल 1988 लेकर आयी थी, जिसके खिलाफ देश भर का मीडिया लामबंद हो गया| सरकार के समर्थक मीडिया घराने भी इस बिल के विरोध में आ गए थे| इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन और संसद के सामने पत्रकारों का जोरदार प्रदर्शन हुआ था| आखिर राजीव गांधी को बिल वापस लेना पड़ा|

लेकिन मीडिया की आवाज़ बंद करने की कोशिश सिर्फ कांग्रेस सरकारों ने ही नहीं की, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी दूसरे दलों के मुख्यमंत्रियों को भी मीडिया को काबू करने का मन्त्र देती रहती है| अपने भ्रष्टाचार को दबाने के लिए वे सांसदों विधायकों को भी अपने साथ जोड़ लेते हैं| ऐसी ही एक घटना राजस्थान की भी है, जब भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार 2017 में ऐसा बिल लेकर आई थी, जिसमें मौजूदा और रिटायर जजों, विधायकों, सांसदों और सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस या कोर्ट में शिकायत करने के लिए सरकार की अनुमति लेनी जरूरी थी। बाद में इस सूची में सरपंचों और विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को भी शामिल कर लिया गया था|

सोशल मीडिया या मीडिया में उस व्यक्ति से जुड़ी कोई भी जानकारी उजागर नही की जा सकती थी, ऐसा करने पर पत्रकार को 2 साल की सजा का प्रावाधान रखा गया था| खैर पत्रकार सड़कों पर आए, और बिल वापस हो गया| दिल्ली से वसुंधरा राजे को मन्त्र दिया गया कि अगर बिना किसी क़ानून के दिल्ली में मीडिया काबू किया जा सकता है, तो राजस्थान में क्यों नहीं| फिर अखबारों के विज्ञापन बंद करके मीडिया को काबू करने का वही खेल राज्यों में शुरू हुआ, जो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केंद्र सरकार ने शुरू किया था| नतीजतन आज देश का प्रिंट मीडिया अपने अंतिम दिन गिन रहा है, अनेक अखबार तो बंद भी हो चुके हैं|

2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे, तो वह शुरू शुरू में भाजपा कार्यालय में आते थे और पत्रकारों के साथ सेल्फी खिंचवाते थे| वह सरकार और मीडिया के हनीमून के दिन थे, धीरे धीरे सब बदल गया| गुजरात दंगों के बाद दिल्ली के मीडिया ने जिस तरह की एकतरफा पत्रकारिता की थी, उस कारण नरेंद्र मोदी का दिल्ली के मीडिया के प्रति पूर्वाग्रह पहले से ही बना हुआ था| जिसका असर कुछ दिनों बाद ही दिखने लगा था|

प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में मीडिया टीम को ले जाना बंद कर दिया गया, विमान में उनकी जगह उद्योगपतियों ने ले ली| कहा गया कि मीडिया को फ्रीबीज क्यों मिलनी चाहिए| जबकि मीडिया सिर्फ प्रधानमंत्री के साथ विमान पर जाता था। रास्ते में विमान पर ही प्रधानमंत्री की मीडिया से बातचीत होती थी, जिसके आधार पर खबरें छपतीं थीं| प्रधानमंत्री दो-दो मिनट के लिए सभी पत्रकारों को अलग से मिल कर उनका फीडबैक भी लेते थे| जिस देश में प्रधानमंत्री जाते थे, वहां अपने पत्रकारों के होटल में रहने और खाने पीने का खर्चा मीडिया घरानों को उठाना होता था, सरकार खर्चा नहीं उठाती थी, फिर भी इसे फ्रीबीज कह कर मीडिया को बदनाम किया गया|

लेकिन यह तो सिर्फ शुरुआत थी, इसके बाद सुरक्षा के नाम पर भारत सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकारों का मंत्रालयों में प्रवेश बंद कर दिया गया| जबकि 2003 से 2009 तक जब आतंकवाद के दिन थे, तब भी मंत्रालयों में पत्रकारों के प्रवेश पर कोई रोक नहीं थी| यह सरकार की पारदर्शिता पर सबसे बड़ी रोक थी|

प्रेस सूचना ब्यूरो की मान्यता होती ही मंत्रालयों में प्रवेश के लिए है| हर पात्र पत्रकार की पहले पुलिस जांच करवाई जाती है, उसके बाद ही उसे मान्यता कार्ड दिया जाता है, जिस पर गृह मंत्रालय के मुख्य सुरक्षा अधिकारी के दस्तखत होते हैं| पीआईबी के कार्ड तो दिए जाते रहे, लेकिन उसकी उपयोगिता खत्म कर दी गई| इतना ही नहीं प्रेस एसोसिएशन के पीआईबी कार्यालय को खाली करने को कह दिया गया| सुप्रीमकोर्ट में दाखिल याचिका और सुप्रीमकोर्ट के दखल से दिल्ली में एक सौ फ्लेट पत्रकारों के लिए तय किए गए थे, उन्हें रद्द कर दिया गया|

2020 में कोरोनाकाल का फायदा उठाकर मोदी सरकार ने संसद के सेंट्रल हाल में पूर्व सांसदों एवं पत्रकारों का प्रवेश बंद कर दिया| अगले साल पूर्व सांसदों पर से तो रोक हटा ली गई, लेकिन पत्रकारों पर लगी रोक नहीं हटाई गई| स्थाई पास पर लगातार बीस साल तक संसद कवर करने वाले पत्रकारों को लॉन्ग एंड डिस्टिंगविश सर्विस केटेगिरी का पास मिलता था। ऐसे पास धारकों को सेंट्रल हाल में जाकर सांसदों से अनौपचारिक बातचीत करने की छूट थी|

यह नियम जवाहर लाल नेहरु के प्रधानमंत्रित्व काल में संसद के सामान्य मुद्दे तय करने वाली कमेटी ने बनाए थी| इस कमेटी की अध्यक्षता खुद प्रधानमंत्री करते थे और दोनों सदनों के सभी दलों के नेता इस कमेटी के सदस्य होते थे| इस कमेटी की न कोई बैठक बुलाई गई है, न कोई फैसला हुआ है, लेकिन लोकसभा स्पीकर ने 2020 के बाद "एल एंड डी" पास इश्यू करने पर रोक लगा दी|

राज्यसभा के चेयरपर्सन वेंकैया नायडू लोकसभा स्पीकर के इस फैसले से सहमत नहीं थे। उन्होंने राज्यसभा से मान्यता प्राप्त पत्रकारों को "एल एंड डी" पास इश्यू करने के आदेश जारी कर दिए थे, लेकिन क्योंकि संसद में प्रशासन लोकसभा स्पीकर का चलता है, इसलिए वे पास भी सिर्फ दिखावटी बन कर रह गए क्योंकि स्पीकर ने किसी भी मीडिया पास धारक के सेंट्रल हाल में प्रवेश पर रोक जारी रखी| यह रोक आज चौथे साल भी जारी है|

इस बीच लगातार विपक्षी दलों पर हमले करके मीडिया "गोदी मीडिया" के रूप में बदनाम हो चुका है| इसलिए विपक्ष भी मीडिया की आवाज संसद में उठाने को तैयार नहीं। मल्लिकार्जुन खड्गे से जब पत्रकारों का एक प्रतिनिधिमंडल मिला और उन्हें बताया कि वह सेंट्रल हाल में पास का मुद्दा उठाएं, तो उन्होंने दो टूक कहा कि विपक्ष उनकी आवाज क्यों उठाए|

यह भी पढ़ें: Adani vs Hindenburg: विदेशी धन और धरती से क्यों लड़ी जा रही है देश की राजनीतिक जंग?

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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Media Freedom Why political parties try to control on media
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