गांधी जयंती विशेष: बापू के सत्ता केंद्र आज कहां हैं?
गांधी को स्वच्छता अभियान के 'लोगो' तक सीमित कर दिया गया है, जरूरत इस लोगो में अंकित उनके चश्मे से दूर तक देखने की है।
नई दिल्ली। मार्च के दूसरे हफ्ते में कोविड-19 महामारी के शुरुआती मामले आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक 'जनता कर्फ्यू' का एलान किया था और उसके दो दिन-तीन बाद पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। इससे देशभर की सड़कों पर जो दृश्य नजर आया था, उसे विभाजन के बाद की दूसरी बड़ी त्रासदी के रूप में दर्ज किया गया। बड़े शहरों और महानगरों से लाखों प्रवासी मजदूर जो भी साधन मिला उससे या पैदल ही अपने गांव-घर की ओर चल पड़े थे। विभाजन की त्रासदी और कोरोना से उपजे रिवर्स पलायन की पीड़ा को कोई एक कड़ी जोड़ती है, तो वह महात्मा गांधी हैं, जिनकी आज 151 जयंती है।
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विभाजन के बाद जब पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान से बेबस असहाय लोग भारी हिंसा के बीच शरणार्थी की तरह सड़कों पर थे, तब बापू ही थे, जो उनकी पीड़ा में उनके साथ थे। वह दिल्ली के सत्ता केंद्र में नहीं बैठे थे, बल्कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए सड़कों पर थे। तिहत्तर साल बाद वह भले ही हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं, लेकिन कोरोना से उपजी मानवीय त्रासदी में गांधी हमें राह दिखाते हैं, बशर्ते की हम उन पर चल पाते।
दरअसल ऐसी हर त्रासदी से निपटने के सूत्र हमारे संविधान में हैं, जिसमें गांधी की प्रत्यक्षतः कोई भूमिका भले न हो, हमारे संविधान निर्माताओं ने उनके बताए रास्तों को पूरा ध्यान रखा। संविधान सभा, जिसको संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसकी बहसों में बार-बार आया गांधी का जिक्र इसकी तस्दीक करता है।
'भारत
के
सात
लाख
गांवों
में
हो
सत्ता
का
केंद्र'
17
दिसंबर,
1946
को
संविधान
सभा
की
बैठक
में
बॉम्बे
स्टेट
से
चुनकर
आए
एम
आर
मसानी
या
मीनू
मसानी
(वह
मूलतः
गुजरात
के
थे)
ने
संविधान
निर्माण
के
लिए
रखे
गए
प्रस्ताव
पर
कहा,
....मैं
महात्मा
गांधी
का
जिक्र
करना
चाहूंगा।
ए
वीक
विथ
गांधी
में
लुइस
फिशर
ने
गांधी
को
यह
कहते
हुए
उदधृत
किया,
"सत्ता
का
केंद्र
अब
नई
दिल्ली,
या
कलकत्ता
और
बाम्बे
जैसे
बड़े
शहरों
में
है।
मैं
इसे
भारत
के
सात
लाख
गांवों
में
बांटना
चाहूंगा....।
इससे
इन
सात
लाख
इकाइयों
में
स्वैच्छिक
सहयोग
होगा,
वैसा
सहयोग
नहीं,
जैसा
कि
नाजी
तरीकों
ने
उभारा
है।
इस
स्वैच्छिक
सहयोग
से
वास्तविक
स्वतंत्रता
उत्पन्न
होगी।
नई
व्यवस्था
बनेगी,
जो
सोवियत
रूस
की
नई
व्यवस्था
से
बेहतर
होगी।"
'अश्पृश्यता
ने
देश
के
प्रमुख
अंगों
को
नष्ट
किया'
संविधान
सभा
में
गांव
को
प्रशासनिक
इकाई
बनाने
पर
जोर
देते
हुए
मद्रास
से
चुनकर
आए
वी
आई
मुन्नीस्वामी
पिल्लई
ने
भी
आठ
नवंबर,
1948
को
गांधी
को
याद
किया
था।
यह
30
जनवरी,
1948
को
नाथुराम
गोड़से
द्वारा
गांधी
की
हत्या
किए
जाने
के
दस
महीने
बाद
की
बात
है।
पिल्लई
ने
बहस
में
हिस्सा
लेते
हुए
कहा,
'इस
संविधान
को
पढ़ते
हुए
किसी
को
भी
दो
अनूठी
चीजें
मिलेंगी,
जो
दुनिया
के
किसी
भी
संविधान
में
नहीं
हैंः
पहली
है,
अश्पृश्यता
का
निवारण।
तथाकथित
हरिजन
समुदाय
का
सदस्य
होने
के
नाते
मैं
इसका
स्वागत
करता
हूं।
अश्पृश्यता
ने
देश
के
प्रमुख
अंगों
को
नष्ट
कर
दिया
है,
और
हिंदू
समुदाय
के
सारे
गौरव
और
विशेषाधिकार
के
बावजूद
बाहरी
दुनिया
हमारे
देश
को
संदेह
की
नजर
से
देखती
है।...'
अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले पिल्लई ने आगे कहा,' भारत में ऐसे लोग हैं, अश्पृश्यता को खत्म करने के लिए पर्याप्त प्रचार हो चुका है और ऐसे प्रचार की ओर जरूरत नहीं है। लेकिन मैं ईमानदारी के साथ स्वीकार करता हूं कि यदि आप गांवों में जाएं तो वहां बड़े पैमाने पर छुआछूत है और इसे खत्म करने के लिए संविधान में किए गए प्रावधान का स्वागत होना चाहिए। दूसरी चीज है, जबरिया मजदूरी (बेगार) का उन्मूलन। संविधान में ऐसे प्रावधानों से मैं आश्वस्त हूं कि इससे वह समुदाय ऊपर उठेगा जो कि समाज के हाशिये पर है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश के प्रमुख अंगों को खत्म करने वाले इस फफुंद की शिनाख्त की थी। उन्होंने (बापू) ने इन बुराइयों को खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे और मैं खुश हूं कि ड्राफ्टिंग कमेटी ने छुआछूत तथा जबरिया मजदूरी को खत्म करने के लिए प्रावधान किए हैं।'
'अगर
मेरा
पुनर्जन्म
हो
तो
एक
अश्पृश्य
के
रूप
में
हो'
गांधी
और
अंबेडकर
राजनीतिक
रूप
से
दो
छोर
पर
थे।
मगर
दोनों
ही
छुआछूत
को
खत्म
करना
चाहते
थे।
अंबेडकर
तो
खैर
संविधान
के
वास्तुकार
ही
थे,
लेकिन
संविधान
सभा
की
बहसों
में
गांवों
को
मजबूत
करने
और
छुआछूत
को
खत्म
करने
के
लिए
गांधी
का
जिक्र
बार-बार
आता
है।
बंगाल
से
चुनकर
आए
मोनो
मोहन
दास
ने
29
नवंबर,
1948
को
बहस
में
हिस्सा
लेते
हुए
कहा,
'अश्पृश्यता
से
संबंधित
उपखंड
का
प्रावधान
मौलिक
अधिकारों
के
लिहाज
से
अत्यंत
महत्वपूर्ण
है।
यह
उपखंड
कुछ
अल्पसंख्यक
समुदायों
को
विशेषाधिकार
या
सुरक्षा
प्रदान
नहीं
करता,
बल्कि
16
फीसदी
भारतीय
आबादी
को
उत्पीड़न
और
हताशा
से
बचाने
का
प्रयास
करता
है।
छुआछूत
के
रिवाज
ने
न
केवल
लाखों
लोगों
को
गहरी
हताशा
और
अपमान
सहने
को
मजबूर
किया,
बल्कि
इसने
हमारे
देश
की
चेतना
को
ही
नुकसान
पहुंचाया
है।'
वी आई मुन्नीस्वामी पिल्लई की तरह मोनो मोहन दास भी एक दलित थे। उन्होंने आगे कहा, 'इस नए युग के मुहाने पर कम से कम हम जैसे अश्पृश्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्द सुन सकते हैं, जो कि इन उत्पीड़ित समुदाय के प्रति पूरी संवेदना और प्रेम से उनके संतप्त दिल से निकले थे। गांधी जी ने कहा था, मैं दोबारा जन्म नहीं लेना चाहता। लेकिन यदि मेरा पुनर्जन्म होता है, तो मैं चाहूंगा कि मेरा जन्म एक हरिजन, एक अश्पृश्य के रूप में हो ताकि मैं उनके निरंतर संघर्ष, उन पर हुए अत्याचार को समझ सकूं जिसने इन वर्गों पर कहर ढाया है।'
'गांधी
के
चश्मे
से
दूर
तक
देखने
की
जरूरत'
संविधान
सभा
में
कुल
389
सदस्य
थे,
जिनमें
पंडित
जवाहर
लाल
नेहरू,
वल्लभभाई
पटेल,
राजेंद्र
प्रसाद,
बी
आर
अंबेडकर,
राजगोपालाचारी,
सरोजनी
नायडु,
मौलाना
अबुल
अबुल
कलाम
आजाद
जैसे
दिग्गज
थे।
ऐसी
विशिष्ट
सभा
में
मीनू
मसानी
जैसे
अल्पसंख्यक
(पारसी)
और
मुन्नीस्वामी
तथा
मोनो
मोहन
दास
जैसे
दलितों
और
अपेक्षाकृत
युवा
नेताओं
को
अपनी
पूरी
बात
कहने
की
आजादी
है।
यही
उदारता
संविधान
सभा
को
विशिष्ट
बनाती
थी।
हाल
ही
में
संपन्न
संसद
के
मानसून
सत्र
को
देखें,
जिसमें
बिना
बहस
जिस
ढंग
से
सारे
बिल
पारित
किए
गए,
तो
कहने
की
जरूरत
नहीं
कि
हम
कहां
आ
गए।
यह सवाल आजादी के बाद की तमाम सरकारों से किया जा सकता है कि उन्होंने गांधी को कितना माना और उनकी बातों पर कितना अमल किया। मौजूदा परिदृश्य में हालात और भी भयानक हैं। यह वह दौर है, जब गांवों को मजबूत करने के बजाए देश में पांच सौ नई स्मार्ट सिटी बनाए जाने की वकालत की जा रही है। अनुसूचित जाति या दलितों की आज भी क्या स्थिति है, यह हाथरस की घटना से समझा जा सकता है, जहां एक दलित लड़की के साथ बर्बरता की गई और जब उसे बचाया नहीं जा सका, तो रात के अंधेरे में संदिग्ध हालात में उसकी अंत्येष्टि कर दी गई!
गांधी को स्वच्छता अभियान के 'लोगो' तक सीमित कर दिया गया है, जरूरत इस लोगो में अंकित उनके चश्मे से दूर तक देखने की है।