विचारधारा ने बजाया शिवसेना में विद्रोह का बिगुल
लोगों को ये लग सकता है कि महाराष्ट्र की राजनीति में जो कुछ चल रहा है उसके पीछे सत्ता का खेल है। सत्ता किसी भी राजनीतिक विचारधारा का उद्देश्य होती है, इसलिए इससे इंकार तो नहीं किया जा सकता लेकिन यह मात्र सत्ता का खेल नहीं है। यह शिवसेना के भीतर आया ऐसा बवंडर है जिसमें शिवसेना अपने ही आईने में बौनी बन गयी है।
इसे समझने के लिए शिवसेना के इतिहास में जाना होगा। शिवसेना का हिन्दुत्व बाल ठाकरे का उग्र हिन्दुत्व था, उद्धव ठाकरे का सॉफ्ट हिन्दुत्व नहीं। बाल ठाकरे के व्यक्तित्व का ऐसा चमत्कार था कि महाराष्ट्र में उनके एक बयान पर लाखों लोग बिना कुछ सोचे समझे सड़क पर होते थे। बाल ठाकरे को उनकी पार्टी में "साहेब" कहा जाता था जो शिवसैनिक के लिए सभी प्रकार के राजनीतिक पदों में सबसे ऊपर था।
उन्हीं बाल ठाकरे के साथियों में एक होते थे आनंद दीघे। आनंद दीघे वैसे तो विधायक या मंत्री नहीं रहे कभी, लेकिन उनकी राजनीति बाल ठाकरे वाली थी। नब्बे के दशक में वो मुंबई से सटे ठाणे के शिवसेना जिला प्रमुख थे। लेकिन आनंद दीघे की पहचान इससे बहुत आगे थी। नब्बे के दशक में पूरा ठाणे शहर आनंद दीघे को "साहेब" मानता था और "धर्मवीर" कहता था। वो ठाणेवासियों के लिए 'धरती के भगवान' जैसे थे जहां जाने पर लोगों को न्याय मिलता था। आनंद दीघे प्रचंड हिन्दुत्व वादी थे और धुर कांग्रेस विरोधी भी। उनके ऊपर एक शिवसैनिक की हत्या का केस चला जिसमें आरोप लगाया गया कि उसकी हत्या आनंद दीघे ने सिर्फ इसलिए करवा दी क्योंकि वो कांग्रेस के समर्थन में चला गया था।
जिस एकनाथ शिंदे ने शिवसेना में विद्रोह का बिगुल बजाया है वो राजनीतिक रूप से इन्हीं आनंद दीघे के चेले हैं। इस छोटी सी पृष्ठभूमि से आप समझ सकते हैं कि कांग्रेस और शरद पवार के साथ सरकार बनाकर उद्धव ठाकरे और उनकी मंडली ने अपने ही शिवसैनिकों को कैसे धर्म संकट में डाल दिया था। शिवसेना के संजय राऊत जिस राजनीतिक गठबंधन को अपना "राजनीतिक कौशल" समझ रहे थे, उन्हें समझ नहीं आया कि यह राजनीतिक कौशल नहीं बल्कि राजनीतिक आत्मदाह था जिसकी लपटों में देर सवेर शिवसेना और ठाकरे परिवार दोनों को जलना ही था।
नवंबर 2019 में शरद पवार ने जब कांग्रेस और शिवसेना को साथ मिलाकर सरकार बनवाई उसके बाद एक टीवी चैनल से बात करते हुए उन्होंने बहुत स्पष्ट तरीके से कहा था कि "राज्य में उनके लिए शिवसेना और बीजेपी दोनों से एक साथ लड़ पाना मुश्किल है।" इसलिए उनकी योजना इनमें से किसी एक को खत्म करने की थी। क्योंकि ये "खत्म करनेवाला" काम वो बीजेपी के साथ नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने शिवसेना को चुना। वो अच्छे से जानते थे कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ आने पर शिवसेना राजनीतिक रूप से स्वत: समाप्त हो जाएगी।
ऐसा तो नहीं है कि जो बात शरद पवार समझ रहे हैं वह उद्धव ठाकरे नहीं समझ पा रहे थे। फिर भी सत्ता के खेल में उद्धव ठाकरे के आसपास के लोगों ने उन्हें "शिवसेना की विचारधारा से पहले सत्ता का लाभ" समझाया और ढाई साल तक सरकार चलाने में कामयाब भी रहे। लेकिन बाल ठाकरे और आनंद दीघे के शिष्यों को ये ढाई साल किसी विपरीत काल की तरह ही लगे जहां जनता और सरकार दोनों जगह शिवसैनिकों की कोई सुनवाई नहीं रह गयी थी। महाराष्ट्र में शिवसेना के नाम पर सिर्फ उद्धव ठाकरे और उनका परिवार ही शिवसैनिक बच गया था जिसके कहने पर काम हो रहा था। बाकी सभी शिवसैनिकों की दशा कांग्रेस और एनसीपी ने सत्ता में रहकर विपक्ष से भी बदतर कर रखी थी।
ऐसे में यह विद्रोह तो होना ही था। आज शिवसेना के लगभग सभी विधायक एकनाथ शिंदे के साथ है। जो विधायक उद्धव के साथ हैं वो भी कितने उनके साथ हैं, यह उद्धव ठाकरे भी दावे से नहीं कह सकते। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अब शिवसेना में एक ओर उद्धव ठाकरे, उनकी पत्नी रश्मि, बेटे आदित्य और उनके संपादक सलाहकार संजय राऊत हैं तो दूसरी ओर लगभग पूरी शिवसेना है। ये बात उद्धव ठाकरे भी समझते हैं इसलिए एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री आवास छोड़ देना ही सही समझा।
बाल ठाकरे ने अपनी जिस राजनीतिक विरासत को परिवार में रखने के लिए जो "कुछ ऐतिहासिक गलतियां" की थी, आखिरकार उनकी मौत के दस साल बाद वही गलतियां शिवसेना को भारी पड़ गयीं। एक समय वह भी था जब आनंद दीघे को बाल ठाकरे के बाद शिवसेना का अगला नेतृत्व माना जाता था। संयोग ऐसा कि जिस आनंद दीघे को बाल ठाकरे के परिवार और आसपास के लोग अपने भविष्य के लिए खतरा मानते थे, वह खतरा 2001 में आनंद दीघे की असमय मौत से तो खत्म हो गया था लेकिन बीस साल बाद आनंद दीघे के एक राजनीतिक शिष्य ने ठाकरे परिवार के सामने नेतृत्व का वह खतरा पैदा कर दिया।
शिवसेना में देर सवेर तो यह विद्रोह होना ही था। इस विद्रोह के सुर तो उस समय भी उभरे थे जब 2012 में बाल ठाकरे मृत्यु शैया पर थे। लेकिन उस समय "साहेब की सौगंध" दिलाकर पार्टी के विधायकों को विद्रोह करने से रोक लिया गया लेकिन अब जबकि शिवसेना ने अपनी विचारधारा को ही ताक पर रखकर सत्ता के लिए समझौता कर लिया तब भला ये विद्रोह कब तक दबा रहता?
हालांकि शरद पवार और स्वयं उद्धव ठाकरे की ओर से एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाये जाने का "परोक्ष रूप से ऑफर" किया गया है ताकि वो बीजेपी को महाराष्ट्र में सरकार बनाने से रोक सकें। लेकिन ये दोनों भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि शिवसैनिकों का उद्धव परिवार से यह विद्रोह कुर्सी के लिए नहीं बल्कि विचारधारा के लिए है। जो महाराष्ट्र में शिवसेना की राजनीति को जानते समझते हैं उनके लिए इस विद्रोह में कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य होगा तो इस बात पर होगा कि इस विद्रोह को सतह पर आने में ढाई साल क्यों लग गये?
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