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मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018: 52 फीसदी ओबीसी वोटों के लिए दोनों दलों में रस्साकशी

By जावेद अनीस, स्वतंत्र लेखक
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नई दिल्ली। मध्य प्रदेश की राजनीति जाति निरपेक्ष रही है। यहां की सियासत में यूपी, बिहार की तरह ना तो जातियों का दबदबा है और ना ही जाति के आधार पर राजनीतिक एकजुटता दिखाई पड़ती है। लेकिन इन दिनों प्रदेश के राजनीति में ओबीसी के नाम पर उबाल देखने को मिल रहा है। ऐसा लगता है भाजपा चौथी बार सत्ता में आने के लिये शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ओबीसी कार्ड खेलने जा रही है, वहीं कांग्रेस में अरुण यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाये जाने के बाद से उनका और उनके समर्थकों का असंतोष अभी भी कायम है।

मध्य प्रदेश: 52 फीसदी ओबीसी के लिए दोनों दलों में रस्साकशी

पिछले दिनों कमलनाथ द्वारा राहुल गांधी को लिखी गयी एक चिट्ठी लीक होने के बाद से दोनों पार्टियों में पिछड़ी जातियों के सम्मान के नाम पर रस्साकशी का एक नया दौर शुरू हो गया है जिसके केंद्र में अरुण यादव है। दरअसल कमलनाथ ने यह चिट्ठी 26 जून को खरगौन जिले के कसरावत में अरुण यादव के पिता और कांग्रेस के दिग्गज ओबीसी नेता स्वर्गीय सुभाष यादव की बरसी पर आयोजित होने कार्यक्रम में राहुल गांधी को आमंत्रित करने के लिये लिखा था। इस चिट्ठी में उन्होंने इस बात को इंगित किया था कि चुनाव की दृष्टि से निमाड़-मालवा क्षेत्र काफी अहम स्थान रखता है। इस क्षेत्र से आने वाले स्व. सुभाष यादव मध्यप्रदेश के बड़े ओबीसी नेता रहे हैं, उनकी बरसी के कार्यक्रम में भारी संख्या में ओबीसी वर्ग के लोगों के शामिल होने का अनुमान है।

चिट्ठी लीक होने के बाद भाजपा ने कांग्रेस को पिछड़े वर्ग का लगातार अपमान और भेदभाव करने वाली पार्टी बताते हुये आरोप लगाया कि कमलनाथ स्वर्गीय सुभाष यादव को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और उनके बरसी का आयोजन सियासी फायदे के लिए ही किया जा रहा है। चिट्ठी लीक होने के बाद एक वीडियो भी सामने आया जिसमें अरुण यादव किसी से कमलनाथ के चिट्ठी को सार्वजनिक करने के बारे में बात करते हुये दिखाई पड़ रहे हैं।

हालांकि इसके बाद अरुण यादव ने इस पूरे मामले में सफाई देते हुये कहा की "कांग्रेस की एकजुटता से भयभीत भाजपा हताश-कुंठाग्रस्त होकर तिलमिला रही है, कल तक मैं भाजपा की आंखों की किरकिरी था, अब आंखों का तारा क्यों बन गया, कमलनाथ पार्टी के मुखिया ही नहीं, मेरे परिवार के अभिभावक भी हैं और मेरे ही आग्रह पर उन्होंने राहुल गांधी को यह पत्र लिखा था"।

दरअसल अचानक और बिना विश्वास में लिये ही प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाये जाने के बाद से ही अरुण यादव की नाराजगी सामने आ रही है। पद से हटाए जाने के तुरंत बाद उन्होंने घोषणा कर दी थी कि अब वे कोई भी चुनाव नहीं लड़ेंगे और संगठन में काम करते रहेंगे। कमलनाथ के पदभार ग्रहण करते समय भी उनकी नाराजगी खुले तौर पर सामने आई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि "मैं किसान का बेटा हूं, फसल के बारे में जानता हूं कि वो कैसे तैयार होती है अब चूंकि फसल तैयार है, इसलिए काटने के लिए सभी मंच पर हैं।"

प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाये जाने के बाद अभी तक उन्हें पार्टी में कोई सम्मानजक भूमिका नहीं मिल सकी है। पिछले दिनों प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ द्वारा आगामी चुनाव को ध्यान में रखते हुये जिन समितियों का गठन किया गया है उनमें भी अरुण यादव को छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख नेताओं को जिम्मेदारी दी गयी है, हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जरूर उन्हें अपनी अध्यक्षता वाली चुनाव प्रचार समिति का सदस्य बना लिया है लेकिन अरुण यादव के कद को देखते हुये ये नाकाफी है।

इसी तरह से सूबे में पार्टी के नये निजाम द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र में विधायक रहे राजनारायण सिंह के पार्टी में वापस लिये जाने के फैसले को लेकर भी उनकी नाराजगी है। पार्टी के प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया तो पहले से ही उनके समर्थकों के निशाने पर हैं और जो भोपाल में पार्टी मुख्यालय के सामने ही बावरिया का पुतला दहन तक कर चुके हैं। दरअसल इसके पीछे दीपक बाबरिया द्वारा यादव समाज को लेकर दिया गया विवादास्पद बयान था जिसमें उन्होंने महेश्वर से आए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच कहा था कि "यादवों को आपस में लड़ने पर भगवान श्रीकृष्ण भी नहीं बचा पाए थे, आप लोग भी लड़ो, अपनी सीट भी नहीं बचा पाओगे।" इसके बाद बवाल हो गया था और पीसीसी के सामने बावरिया का पूतला फूंका और बावरिया वापस जाओ के नारे लगाए गये थे। अरुण यादव द्वारा भी खुल के बाबरिया के इस बयान पर नाराजगी जाहिर की गयी थी।

इसके बाद समन्वय समिति की जिम्मेदारी संभाल रहे दिग्विजय सिंह अरुण यादव को मनाने उनके घर भी गये लेकिन चिट्ठी विवाद से लगता नहीं है कि पार्टी का अरुण यादव से समन्वय हुआ है।

अरुण यादव ना केवल मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सबसे बड़े ओबीसी चेहरे हैं बल्कि वे स्वर्गीय सुभाष यादव की विरासत भी संभाले हैं। अगर आगे उनकी यह नाराजगी लम्बे समय तक खींची तो फिर आने वाले कुछ ही महीनों बाद होने वाले चुनाव में कांग्रेस को इसका खामियाजा चुकाना पड़ सकता है। भाजपा जो पहले भी कांग्रेसी क्षत्रपों के आपसी गुटबाजी का फायदा उठाती रही है, इस बार भी अरुण यादव की नाराजगी को कैश कराना चाहती है। अरुण यादव के प्रदेश अध्यक्ष पद से हट जाने के बाद भाजपा नेता प्रभात झा ने उन्हें बीजेपी में आने का ऑफर यह कहते हुये दिया था कि "उनका दिवंगत सुभाष यादव से अच्छा संबंध रहा है, अरुण यादव उनके छोटे भाई जैसे हैं और अगर वे पार्टी में आना चाहे तो भाजपा उनका स्वागत करेगी।" इसपर अरुण यादव ने जवाब दिया था कि "मेरे और मेरे परिवार के रग रग में कांग्रेस का ही खून प्रवाहित होता है। लिहाज़ा खून से राजनैतिक व्यापार करने वाली पार्टी और उसकी विचारधारा के किसी भी आमंत्रण की मुझे आवश्यकता नहीं है"।

लेकिन इसी के साथ ही अरुण यादव लगातार कांग्रेस पार्टी को भी यह एहसास दिलाना नहीं भूल रह हैं कि पार्टी के लिये उन्हें नजरअंदाज घातक साबित हो सकता है। बीते 20 मई को अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा द्वारा भोपाल के दशहरा यादव महाकुंभ का आयोजन किया गया था जिसमें अरुण यादव के साथ सीएम शिवराज सिंह चौहान, बाबूलाल गौर शामिल हुये थे लेकिन इसमें कमलनाथ या कांग्रेस के किसी अन्य वरिष्ठ नेता को आमंत्रित नहीं किया गया था। इस दौरान महासभा के प्रदेश अध्यक्ष जगदीश यादव ने मंच से कहा कि "यादव समाज तो अरुण यादव को प्रदेश के भावी सीएम के रूप में देख रहा था, लेकिन साढ़े चार साल के संघर्ष के बाद जब चुनाव का समय आया तो कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा दिया ऐसा पहली बार नहीं हुआ, अरुण यादव के पिता स्व. सुभाष यादव को भी ऐसे ही हटाया गया था"। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की टिपण्णी भी काफी मानीखेज थी जिसमें उन्होंने कहा कि "यादव समाज बहुत ही स्वाभिमानी समाज है, यह समाज किसी के टुकड़ों पर नहीं पलता, बल्कि अपने पुरुषार्थ से लगातार आगे बढ़ रहा है।"

इधर भाजपा की रणनीति कांग्रेस को पिछड़ा विरोधी साबित करने की है। कांग्रेस द्वारा कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का कमान दिये जाने के बाद प्रभात झा ने कहा था कि "कांग्रेस अब उद्योगपति एवं महलों की पार्टी हो गयी है, उसका प्रदेश की गरीब जनता एवं किसानों से कोई वास्ता नहीं है....अब 2018 के विधानसभा का चुनाव उद्योगपति, महलपति बनाम गरीब किसान का बेटा शिवराज सिंह चौहान का होगा।" अपने भोपाल दौरे के दौरान अमित शाह दिग्विजय सिंह पर पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा में पारित ना होने देने का आरोप लगाते हुये उन्हें 'पिछड़ा विरोधी' बता चुके हैं।

इधर शिवराज सिंह की सरकार पिछड़ा वर्ग के लिये ओबीसी महाकुंभ कर रही है जिन्हें छह संभागीय मुख्यालयों, बुंदेलखंड में सागर, मध्य क्षेत्र में हरदा, मालवा में इंदौर, महाकौशल में जबलपुर, चंबल में ग्वालियर और विंध्य अंचल के शहडोल में करने की योजना है। इसके लिये कलेक्टरों को आयोजन और बीजेपी ओबीसी मोर्चे को भी संभाग स्तर पर भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी दी गयी है। यह आयोजन सरकार की योजनाओं के बारे में जानकारी देने के के नाम पर किया जा रहा है लेकिन कांग्रेस ने इसको लेकर आपत्ति जताते हुये इसे सरकारी मशीनरी का खुलकर दुरुपयोग बताया है।

6 मई को सागर में पहले ओबीसी महाकुंभ का आयोजन हो चुका है जिसमें खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश सरकार के करीब सात मंत्री शामिल हुये। इस दौरान शिवराज ने अमित शाह द्वारा कांग्रेस पर पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिये जाने वाले विधयेक को राज्यसभा में रोकने वाले वाले आरोप को दोहराया। हालांकि यहां एक पेंच भी है जो भाजपा के खिलाफ जा सकता है दरअसल शिवराज सिंह चौहान इतने लम्बे समय तक मुख्यमंत्री होने और खुद पिछड़े वर्ग से होने के बावजूद हमेशा से ही पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ रहे हैं और अब यही बात उनके खिलाफ जा सकती है।

मध्यप्रदेश की सत्ता में दिग्विजय सिंह के पराभाव के बाद से यहां ओबीसी वर्ग के नेताओं का वर्चस्व रहा है और दिग्विजय सिंह के बाद से तीन मुख्यमंत्री हो चुके है और संयोग से उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान तीनों ही पिछड़ा वर्ग और भाजपा के हैं। वर्तमान में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ओबीसी वर्ग से हैं ही नये प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी इसी वर्ग से आते हैं। इधर कांग्रेस में एक तरह से 2011 से 2018 के बीच प्रदेश कांग्रेस की कमान आदिवासी और पिछड़े वर्ग के नेताओं के हाथ में थी, अरुण यादव से पहले कांतिलाल भूरिया प्रदेश अध्यक्ष थे लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। अब पार्टी में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया का वर्चस्व हो गया है।

मध्यप्रदेश में करीब 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी है और अगर यह वर्ग एक खास पैटर्न में वोटिंग करे तो यहां ओबीसी फैक्टर निर्णायक साबित हो सकता है इसलिये दोनों ही पार्टियां इन्हें साधना चाहती हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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English summary
Madhya Pradesh assembly elections 2018: BJP and Congress will wrestle for 52 percent obc votes.
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