किसे स्वीकार होंगी अन्ना हजारे की चुनाव में सुधारों की दलीलें?
नई दिल्ली। कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल के लिए बड़ा आंदोलन चला चुके गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे को कभी इस देश की जनता राजनीति में बड़े बदलाव के प्रतीक के रूप में देखने लगी थी। एक समय खुद अन्ना को भी लगता रहा होगा कि वह ज्यादा नहीं, तो कम से कम देश से भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए अवश्य ही कुछ कर सकेंगे। लेकिन बहुत जल्द वह समय आ गया जब वह कहने लगे कि उनका और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भाजपा समेत कई अन्य लोगों ने अपने हित में उपयोग कर लिया। अब तो वह यह भी कहते हैं कि केंद्र द्वारा नियुक्त लोकपाल भी उनकी नजर में खरा नहीं उतरता। फिलहाल जब लोकसभा चुनाव के दो चरण समाप्त हो चुके हैं, एक बार फिर अन्ना मीडिया के जरिये देश के लोगों के समक्ष एक और निराशा के साथ आए हैं। 81 वर्षीय इस गांधीवादी नेता को लगता है कि आज की राजनीति बहुत निचले स्तर पर पहुंच चुकी है जिससे किसी तरह की उम्मीद नहीं पाली जा सकती क्योंकि इसमें सब कुछ किसी भी तरह से चुनाव जीतना रह गया है और लोगों की समस्याओं से कोई लेना-देना है। इतना ही नहीं, इस समाजसेवी को यह भी कहना पड़ रहा है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल के चलते ही उन्हें देश का कोई सुनहरा भविष्य भी नजर आता।
अन्ना चाहते हैं, अब वक्त चुनाव सुधारों का आ चुका है
ऐसे समय जब देश में लोकसभा चुनाव हो रहे हों और जिस चुनाव को देश के भविष्य के लिहाज से बहुत अहम बताया जा रहा हो, अन्ना को राजनीतिक दलों ने भले ही भुला रखा हो, मीडिया ने जरूर उनकी खबर ली और देश के बारे में उनकी सोच को सामने लाने की कोशिश की। इस कोशिश के रूप में ही यह पता चला कि फिलहाल वह क्या सोच रहे हैं। खबरों के मुताबिक अन्ना चाहते हैं कि अब वक्त चुनाव सुधारों का आ चुका है क्योंकि देश में चुनाव संबंधी भ्रष्टाचार बढ़ता रहा है। वह यह भी कहते हैं कि मतदाता जागरूक नहीं हैं जिसका फायदा वे राजनीतिक दल उठाते हैं जो किसी भी तरह से सत्ता में रहना चाहते हैं। हजारे विभिन्न स्थानों से पकड़ी गई नगदी का उल्लेख करते हुए इशारा करते हैं कि इस धन का इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए किया जाता है जिसे किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। उनकी चिंता राजनीतिक के अपराधीकरण को लेकर भी है जो वास्तविक रूप से लगातार बढ़ती ही जा रही है। शायद ही कोई पार्टी हो जिसके उम्मीदवारों में अपराधों के आरोपी न हों। वह यह भी कहते हैं कि चुनाव प्रक्रिया से चुनाव चिन्ह को हटाया जाना चाहिए जिसके लिए चुनाव आयोग से लगातार पत्राचार कर रहे हैं क्योंकि भारत का संविधान केवल व्यक्तिगत मान्यता प्रदान करता है। उनकी इस तरह की बातें सही हो सकती हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अब उनको कोई सुनने वाला और मानने वाला बचा भी है।
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क्या अब अन्ना हजारे को कोई सुनने वाला और मानने वाला बचा है?
लोग भूले नहीं होंगे जब इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे ने दिल्ली के जंतर मंतर पर अनशन किया था। तब उनकी सबसे बड़ी मांग थी लोकपाल की नियुक्ति जिसके बारे में उनका दावा था कि इस नियुक्ति के बाद भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म करने में सफलता मिल सकती है। तब काफी हद तक लोगों के भी समझ में आ गया था कि ऐसा हो सकता है। यह भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन अरविंद केजरीवाल की पहल पर शुरू किया गया था जिसकी मजबूती के लिए अन्ना हजारे को इसमें शामिल किया गया था। यह वह समय था जब कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरती जा रही थी जिसके खिलाफ तत्कालीन भाजपा लगातार आवाज उठा रही थी। हालांकि तब भी दबी जुबान कई लोग इस आशय के आरोप लगाते रहे थे कि केजरीवाल और अन्ना का आंदोलन प्रायोजित है जो भाजपा के इशारे पर चलाया जा रहा था। लेकिन तब आसानी से कोई इसे कोई भी सुनने और मानने को तैयार नहीं होता था। यद्यपि बहुत जल्द सब कुछ सामने आने लगा जब खुद केजरीवाल ने अन्ना की असहमति के बावजूद राजनीतिक पार्टी बना ली और चुनाव में कूद पड़े और अन्ना को एक तरह से दरकिनार कर दिया गया क्योंकि निहित राजनीतिक साधा जा चुका था। उसके बाद के इतिहास में बहुत जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि सब लोग जानते हैं कि केजरीवाल की दिल्ली में सरकार बन गई और किरन बेदी भाजपा में शामिल होकर उपराज्यपाल बन चुकी हैं। इसके अलावा भी बहुत हो चुका है, लेकिन जो नहीं हो सका वह था भ्रष्टाचार का खात्मा।
अन्ना हजारे की चिंता राजनीतिक अपराधीकरण को लेकर भी है
इस सबके बीच अन्ना हजारे एक तरह से राजनीतिक बियाबान में जा चुके थे। हालांकि बीच-बीच में वह सामने आते थे। कभी मीडिया के जरिये तो कभी नए सिरे से आंदोलन की धमकी की वजह से। लेकिन कभी उस तरह की छाप नहीं छोड़ सके जैसी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय छोड़ा था। अब से कुछ माह पहले भी एक बार अन्ना हजारे अपनी कुछ मांगों को लेकर अनशन पर बैठे थे। तब उनका कहना था कि वह सरकार को कई पत्र लिख चुके हैं जिन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस कारण उन्हें अनशन पर बैठने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन इस आंदोलन को भी अपेक्षित समर्थन नहीं मिल सका था और जल्दी ही अनशन खत्म हो गया था। इस अनशन के दौरान ही हजारे ने कहा था कि अब उनके मन में भाजपा और आम आदमी पार्टी को लेकर किसी तरह का सम्मान नहीं बचा है क्योंकि इन दोनों ने उनका और उनके आंदोलन का इस्तेमाल किया। तब उन्होंने यह भी कहा था कि आश्वासनों से उनका विश्वास उठ चुका है। इन बातों से साफ तौर पर यह संकेत मिलता है कि इस गांधीवादी में अब शायद राजनीति को लेकर किसी तरह की उम्मीद नहीं बची है। लेकिन अपनी आंदोलनकारी सोच को शायद वह अभी भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। इसीलिए जब भी देश की बात आती है, वह बिना कुछ बोले नहीं रह पाते हैं।
चुनाव सुधार की जरूरतों पर बल देना वक्त की जरूरत
दरअसल, अन्ना हजारे भारतीय मतदाता को भले ही गैरजागरूक कहें, लेकिन वह इतना भी अनजान नहीं रह गया है। निश्चित रूप से वह राजनीतिक दलों के बहकावे भी आता है और कई बार अपना भला-बुरा भी नहीं समझ पाता, लेकिन यह भी होता है कि कई बार वह बहुत सुसंगत और परिपक्व फैसला भी देता है। इसीलिए अक्सर यह कहा जाता है कि भारत का मतदाता बहुत परिपक्व हो चुका है। अन्ना हजारे की ओर से चुनाव सुधार की जरूरतों पर बल देना वक्त की जरूरत अवश्य कहा जा सकता है। लेकिन लगता नहीं कि राजनीतिक दल और चुनाव आयोग इस तरह की मनःस्थिति में है कि चुनाव सुधार को लेकर कोई बड़ी पहलकदमी ले सकें क्योंकि जिन समस्याओं का जिक्र हजारे द्वारा किया गया उसका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष लाभ सभी दल उठाने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन अगर अन्ना हजारे जैसा बड़ा गांधीवादी नेता यह कहता है कि उसे देश का कोई सुनहरा भविष्य नहीं दिखाई देता, तो इस पर कम से कम विचार तो किया ही जाना चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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