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उदित राज को पहले नहीं पता था दलितों को कैसे मिलेगा न्याय?

By आर एस शुक्ल
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नई दिल्ली। उदित राज को आप कितना जानते हैं। इंडियन रेवेन्यू सर्विस का अधिकारी, एक दलित नेता और विचारक, 2003 में इंडियन जस्टिस पार्टी का गठन, चुनाव में जीत के लिए भाजपा की सदस्यता, 2014 में सवा छह लाख से ज्यादा वोटों से जीत, सर्वश्रेष्ठ सांसद का खिताब और एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में नाम आना। इतना कुछ है इस दलित नेता के पास कि दलितों को भी आसानी से समझ में नहीं आ सकता। फिलहाल भले ही उन्हें चीजें आसानी से समझ में नहीं आ रही हों, इन दलित नेता को सब कुछ बहुत पहले से अच्छी तरह से समझ में आ रहा था जब उन्होंने तय किया होगा कि अधिकारी बनना है। तब भी जब दलितों के सवालों का विश्लेषण करना शुरू किया होगा। तब तो निश्चित रूप से दृष्टि बहुत साफ रही होगी जब तय किया होगा कि अब किसी विभाग में सेवा देने की जगह दलितों की सेवा करनी है।

टिकट ना मिलने पर याद आए दलित

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उस अवसर के बारे में दो टूक कहा जा सकता है कि उन्हें जीवन का सार समझ में आ गया होगा कि अब उनकी अपनी पार्टी की कोई जरूरत नहीं रही और उसका भाजपा में विलय कर हौले से सांसद बन जाना श्रेयष्कर समझ लिया होगा। अब पांच साल बाद उनका यह समझ में न आना कुछ विचित्र सा लगता है कि अगर उन्हें टिकट नहीं मिला तो दलितों के साथ न्याय कैसे हो पाएगा। उनके लिए भले ही यह अबूझ पहेली हो, लेकिन कम से कम दलित इतना नासमझ शायद ही होगा कि इतनी छोटी सी बात उसे न समझ में आए जिसे कोई भी आसानी से समझ सकता है कि इस तरह की सारी बातें सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए होती हैं।

इसमें दलितों के लिए न्याय जैसी बातें सिर्फ उस सीढ़ी के बतौर होती हैं जिसके जरिये सत्ता की मलाई खाने का जुगाड़ किया जा सकता है। जब तक उसकी व्यवस्था थी, दलित कहीं थे। बीते पांच वर्षों में दलितों पर कितने ही मामले सामने आए, उन सब पर काफी हद तक चुप्पी साधे रखी। अब जब उसके फिसल जाने का खतरा उत्पन्न हो गया, तब फिर दलित याद आने लगे। हालांकि राजनीति में यह सब होता है और लोग भी इसके इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि संभवतः किसी को इससे ज्यादा फर्क पड़ता हो। लेकिन इस ताजा परिघटना के जरिये दलित राजनीति और उसके नेताओं को लेकर जरूर कुछ विचार किया जा सकता है।

यह देखना अपने आप में दिलचस्प हो सकता है कि जब देश की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला हो, इस तरह की जातीयता की राजनीति करने वाले नेता और उनके दल अपनी जातियों के उत्थान के लिए कितना करते हैं और उसके माध्यम से खुद को कितना बनाते-बिगाड़ते हैं। यह भी समझने की बात है कि आखिर दलित आजादी के इतने वर्षों के बाद खुद को कहां पाते हैं। क्या उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचता कि वे इससे इतर भी कुछ सोच सकें और अपने लिए कोई नई राजनीति विकसित कर सकें।

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उदितराज ने पार्टी का विलय करते समय ये नहीं सोचा

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देश में दलितों की फिलहाल सबसे बड़ी मानी जाने वाली बसपा और उसकी नेता मायावती हैं। इसके अलावा रामदास अठावले और प्रकाश अंबेडकर और उनकी पार्टियों की भी दलितों में पहचान है। कुछ अन्य नेताओं के अलावा हाल-फिलहाल उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी के नाम से एक नए संगठन की भी कोई कम चर्चा नहीं है जिसके नेता चंद्रशेखर आजाद हैं। इस सबके बावजूद दलितों का शोषण-उत्पीड़न कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि दलितों से संबंधित बड़े सवालों पर ये पार्टियां और नेता अक्सर चुप्पी साध जाते हैं। इतना जरूर है कि राजनीति, वोट और सत्ता के लिए ये नेता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का सहारा अवश्य लेते रहते हैं।

दरअसल, जाति की राजनीति को कुछ दल और उसके नेता चाहे जितना जरूरी बताएं, लेकिन गंभीरता से देखा जाए तो पता चलता है कि बुनियादी समस्याओं को समग्रता में हल किए जाने से ही जातियों से जुड़ी समस्याओं को भी काफी हद तक हल किया जा सकता है जिस पर जाने-अनजाने किसी का ध्यान नहीं जाता। परिणाम यह होता है कि सवाल वहीं के वहीं रह जाते हैं और नेता सत्ता तक पहुंच बनाकर सब कुछ भूल जाते हैं। उन्हें इसका ध्यान भी नहीं रह जाता कि जरूरत खत्म हो जाने के बाद उनकी भी कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। उदित राज के साथ भी यही हुआ है। उन्हें टिकट नहीं मिला। अब वे बागी हो रहे हैं।

जब उन्होंने खुद की पार्टी का अस्तित्व समाप्त कर दिया था, तब उन्हें इसका अहसास क्यों नहीं हुआ कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है। वह अपने बारे में भले ही बहुत सी अच्छी बातों का जिक्र करें, वह एक टीवी चैनल के स्टिंग में भी फंस चुके हैं। उनकी ओर से उसका खंडन किया जा सकता है, लेकिन क्या यह नहीं हो सकता कि उन्हें इसी के आधार पर टिकट न दिया गया हो। वैसे भी किसी भी पार्टी का यह अपना फैसला होता है कि वह किसे टिकट दे अथवा किसे न दे। जब पार्टियों में यह स्थापित सत्य बताया जाता है कि पार्टी पहले और व्यक्ति बाद में, तब इस तर्क का क्या मतलब रह जाता है कि चार पुराने लोगों को टिकट दिया गया, तो उन्हें भी दिया जाना चाहिए। क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होता कि उदित राज अपनी कुर्बानियां गिनाने के बजाय इसका विश्लेषण करते कि उनकी ओर से क्या और कितनी गलतियां की गई हैं जिसका परिणाम इस रूप में सामने आ रहा है और उन्हें टिकट तक के लिए रिरियाना पड़ रहा है।

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फिलहाल तो कहीं के नहीं रहे उदितराज

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इसे जातीय राजनीति की विडंबना नहीं तो क्या कहा जाएगा। कम से कम उदित राज को यह पता ही होगा कि उनको जीत कोई उनके नाम और काम की बदौलत नहीं बल्कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के नाम पर मिली थी जिनकी 2014 के चुनावों में लहर चल रही थी। तब उस लहर को और ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए उदित राज जैसे नेताओं की जरूरत थी। लेकिन उस दौर में भी अपना दल जैसे कई जातीय नेता और दल ऐसे रहे जो सब कुछ के बावजूद अपना अस्तित्व बचाए रखे। आज अगर उनका अपना दल बचा रहा होता, तो उदित राज को इसके लिए मजबूर नहीं होना पड़ता कि निर्दलीय चुनाव मैदान में जाना पड़े। दूसरा कम से कम उन जैसे नेता को यह समझना चाहिए कि दलितों की राजनीति करने में फिर भी उनके पास पाने के लिए बहुत कुछ बचा रह जाता। फिलहाल तो वह कहीं के नहीं रहे। वह जैसी स्थिति में पहुंच गए हैं और इसके लिए वह खुद ही ज्यादा जिम्मेदार कहे जा सकते हैं।

पढ़ें- लोकसभा चुनाव 2019 की विस्तृत कवरेज

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)

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English summary
lok sabha elections 2019 uditraj attacks bjp after party Ignored For ticket
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