गरीबों को कितना स्वीकार होगा किसानों को हर साल 6000 के जवाब में हर माह 6000 का वादा
नई दिल्ली। क्या चुनाव वादों और दावों का खेल हो चुका है अथवा जीत की गारंटी का तरीका। यह सवाल इसलिए काफी मौजू हो गया है क्योंकि हर कोई यही लेकर आ रहा है और मतदाताओं को लुभाने में लगा हुआ है। अभी हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख पहुंचाने से लेकर किसानों को हर साल 6000 रुपये देने को लेकर बातें कम नहीं हुई थीं कि अब एक नया वादा या दावा चुका है गरीबों को हर महीने 6000 हजार रुपये देने का। यह पैसा कहां से आएगा, किसे मिलेगा या नहीं मिलेगा अथवा इसका हाल भी 15 लाख जैसा ही होगा, इसको लेकर दावे-प्रतिदावे भी शुरू हो चुके हैं। एक तरह से हर साल 6000 बनाम हर महीने 6000 की जंग छिड़ चुकी है।
कहा जा रहा है कि यह केंद्र की भाजपा सरकार के उस दावे का जवाब है जिसमें कहा गया था कि दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों के खाते में हर साल 6000 रुपये डाले जाएंगे। इसकी पहली किस्त 2000 रुपये बहुत सारे किसानों के खाते में पहुंच भी चुकी है। जब सरकार की ओर से इसकी घोषणा की गई थी, तब इस योजना को बहुत ही परिवर्तनकारी माना गया था और कहा गया था कि इसका लाभ आगामी चुनाव में भाजपा को अवश्य मिलेगा। तब यह भी बताया गया था कि इस योजना के पीछे किसानों की कर्जमाफी का कांग्रेस का वादा था जो उसने बीते विधानसभा चुनावों के दौरान छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में किया था। इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत में किसान कर्ज माफी को प्रमुख कारण माना गया था।
यह अलग बात है कि बाद में भाजपा की ओर से कहा गया कि कर्जमाफी का लाभ किसानों को नहीं मिल पाया। यह सवाल भी उठाए गए कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है। लेकिन तब यह माना गया कि भाजपा ने इस वादे और इसके परिणाम को गंभीरता से लिया। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम रही कि भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार इसका तोड़ खोजने में लगे हैं ताकि किसानों को कुछ देकर अपने पक्ष में लाया जा सके। 6000 सालाना गरीब किसानों को देने की योजना को इसी रूप में देखा गया। तब यह आम धारणा बनती दिखी थी कि भाजपा ने कांग्रेस से न केवल किसानों का मुद्दा छीन लिया है बल्कि किसानों की नाराजगी भी दूर करने में सफलता हासिल कर ली है।
क्या
गरीबों
के
खाते
में
हर
साल
72
हजार
डालने
का
वादा
करके
चुनावी
बाजी
पलट
चुके
हैं
राहुल?
अब
कांग्रेस
ने
नया
चुनावी
दांव
चल
दिया
है।
कांग्रेस
अध्यक्ष
राहुल
गांधी
ने
बाकायदा
संवाददाता
सम्मेलन
कर
वादा
किया
कि
अगर
केंद्र
में
उनकी
पार्टी
की
सरकार
बनती
है,
तो
न्यूनतम
गारंटी
योजना
के
तहत
देश
के
20
प्रतिशत
गरीबों
को
हर
साल
72000
हजार
रुपये
यानी
हर
महीने
6000
रुपये
दिए
जाएंगे
जिससे
करीब
25
करोड़
लोगों
को
लाभ
पहुंचेगा
और
गरीबी
की
खाई
मिटेगी।
उल्लेखनीय
है
कि
राहुल
गांधी
गरीबों
के
लिए
न्यूनतम
गारंटी
योजना
की
बात
कुछ
महीने
पहले
से
ही
कर
रहे
हैं।
राहुल
की
ओर
से
इस
आशय
के
आरोप
भी
लगाए
जाते
रहे
हैं
कि
वर्तमान
केंद्र
सरकार
को
गरीबों
की
चिंता
नहीं
है।
वर्तमान
सरकार
अमीरों
को
पैसा
देती
है
और
अमीरों
के
हितों
की
पोषक
है।
कांग्रेस अध्यक्ष यह दावा भी करते हैं कि कांग्रेस गरीबों के लिए काम करती है और देश से गरीबी को खत्म करना चाहती है। यह अलग बात है कि कांग्रेस स्पष्ट तौर पर लोगों को यह नहीं समझा पाई थी कि कर्जमाफी के अलावा किसानों की समस्याओं के समग्र समाधान के लिए उसके पास क्या रूपरेखा है। उसी तरह इस नई योजना के बारे में भी कोई पुख्ता खाका नहीं रखा जा सका जिससे पता चल सके कि इस पैसे का इंतजाम कैसे होगा और क्या इससे गरीबी वाकई खत्म की जा सकेगी।
सवाल चाहे जितने हों और उनके ठोस जवाब भले ही आसानी न खोजे जा सकें, लेकिन यह एक तथ्य है कि भारतीय मतदाता इस तरह के वादों को न केवल अक्सर स्वीकार कर लेता है बल्कि कई बार मान भी बैठता है कि ऐसा हो सकता है और अगर हो गया तो उसका जीवन कुछ बेहतर हो सकता है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो बीते बहुत सारेउदाहरण इसके गवाह हैं कि लोगों ने वादों को स्वीकारा और बाद में उन्हें उसके लाभ भी मिले। बिहार में साइकिल वितरण, तमिलनाडु में टीवी, छत्तीसगढ़ में एक रुपये में चावल और मध्यप्रदेश में कन्यादान योजना से लेकर विभिन्न राज्यों में इस तरह के लोकलुभावन वादों का लंबा इतिहास रहा है जिनकी बदौलत वहां पार्टियों को जीत भी हासिल हुई। छत्तीसगढ़ में तो तीन बार मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह को चाउर बाबा के नाम से प्रसिद्धि मिल गई थी।
लेकिन चुनावी वादों के इतिहास पर नजर डाली जाए, तो कई बार वादे सिर्फ वादे ही रह गए। उन्हें अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। यह अलग बात है कि उन वादों का चुनावी लाभ जरूर उठा लिया गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस का ही एक नारा गरीबी हटाओ रहा है जिसे कभी इंदिरा गांधी ने दिया था। लेकिन इतिहास गवाह है कि गरीबी नहीं हटाई जा सकी। इसके विपरीत गरीबी बढ़ती चली गई। इसी तरह बीते लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने हर खाते में 15 लाख रुपये जमा करने और हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का चुनावी वादा किया गया था। दोनों ही वादों को लेकर फिलहाल पार्टी को आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। इसी आधार पर राहुल गांधी के हालिया वादे को लेकर सबसे बड़ा सवाल यह उठाया जाने लगा है कि कहीं इनका भी हश्र इसी तरह के वादों जैसा तो नहीं होगा।
इस सबके बीच देखने की बात यह भी है कि आखिर आम मतदाता अथवा देश का गरीब राहुल के इस वादे को कैसे लेगा। कहा जा सकता है कि आम लोग उम्मीद रखने वाले होते हैं और वे आसानी से मान लेते हैं कि वादा किया जा रहा है, तो वादे पर एतबार करके देख लिया जाए। अगर पूरा हो गया, तो उनको कुछ लाभ हो जाएगा वरना वादे हैं वादों का क्या। यह भी कहा जा रहा है कि अगर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में वादे के मुताबिक किसान कर्जमाफी की जा सकती है, तो न्यूनतम गारंटी योजना भी लागू की जा सकती है। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि अगर कांग्रेस सरकार मनरेगा को प्रभावी तरीके से लागू कर सकती है, तो इसे भी लागू कर सकती है। दूसरा तर्क यह भी दिया जा रहा है कि भाजपा सरकार तो केवल किसानों को साल में 6000 रुपये दे रही है। मतलब यह कि अगर आम मतदाताओं ने कांग्रेस के इस वादे पर थोड़ा भी भरोसा किया, तो चुनावों के लिहाज से यह वादा दूरगामी परिणाम वाला साबित हो सकता है। देखना यह होगा कि आम मतदाता इसे किस रूप में लेता है।
मिनिमम आय के वादे के बाद राहुल का नया नारा- कांग्रेस की नयी पहल, बेहतर भारत, बेहतर कल
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)