यूजर नहीं, राजनीतिक दल हैं सोशल मीडिया के दुरुपयोग के जिम्मेदार
नई दिल्ली। सोशल मीडिया यूजर्स पर जो लगाम लगाने की ज़रूरत बतायी जा रही है या फिर जिस तरीके से चुनाव आयोग ने सोशल मीडिया के उपयोग से उम्मीदवारों को बांधने का प्रयास किया है वह मौसम देखकर छाता निकाल लेने वाली बात है। ऐसी कोशिशों से न सोशल मीडिया पर कोई अंकुश लगता है और न ही इसके प्रभावों से बचा जा सकता है। बारिश या बाढ़ से बचना है तो उसके लिए स्थायी बंदोबस्त जरूरी होता है।
चुनाव आयोग सोशल मीडिया के खर्च की जिम्मेदारी उम्मीदवारों पर तो डालता है लेकिन राजनीतिक दलों को इससे आज़ाद कर देता है। सच ये है कि सोशल मीडिया संगठित रूप से राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। उस पर खर्च भी कर रहे हैं। मगर, नियमों का कोई बंधन उन पर नहीं है। उम्मीदवार भी नियम-कानून से बचने के लिए पार्टी से ही अपने लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल की उम्मीद करने लगे हैं।
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आम
आदमी
क्यों
करे
सोशल
मीडिया
का
दुरुपयोग?
क्या
आम
आदमी
सोशल
मीडिया
का
राजनीतिक
दुरुपयोग
करता
है?
उसे
क्या
गरज
पड़ी
है?
सोशल
मीडिया
का
राजनीतिक
दुरुपयोग
आखिर
करता
कौन
है?
कौन
है
जो
संगठित
गिरोह
बनाकर
सोशल
मीडिया
का
इस्तेमाल
कर
रहा
है?
वो
कौन
लोग
हैं
जो
सोशल
मीडिया
का
औद्योगीकरण
कर
रहे
हैं
और
खुद
को
उसकी
कम्पनी
के
सीईओ
की
तरह
स्थापित
कर
रहे
हैं?
जब
ऐसे
लोगों
को,
गिरोह
को
पकड़ने
की
कोशिश
की
जाएगी,
तो
सोशल
मीडिया
का
दुरुपयोग
भी
स्वत:
रुक
जाएगा?
सोशल मीडिया में चाहे टेक्स्ट हो या फोटो, स्केच, वीडियो या फिर ऐसी ही चीजों से बने इनोवेटिव प्रॉडक्ट हों, इसके लिए पेशेवर गुण जरूरी हो जाते हैं। ट्वीट, फेसबुक, यूट्यूब और ऐसे ही प्लेटफॉर्म पर एक व्यक्ति अपने बूते बहुत अधिक परफॉर्म नहीं कर सकता। संगठित रूप में एक उद्देश्य के साथ प्रॉडक्ट बनाए जाते हैं। फिर इसका वितरण किया जाता है। आम यूजर इस वितरण व्यवस्था में इस्तेमाल भर होते हैं।
हर
राजनीतिक
दल
के
पास
है
सोशल
मीडिया
की
संगठित
टीम
आज
जो
राजनीतिक
दल
जितना
बड़ा
है
उसके
पास
सोशल
मीडिया
की
टीम
भी
उतनी
बड़ी
है।
सबने
वॉर
रूम
बना
रखे
हैं।
देश
के
प्रधानमंत्री
से
लेकर
मुख्यमंत्री
तक
के
लिए
सैकड़ों-हज़ारों
छोटी-बड़ी
टीमें
सोशल
मीडिया
पर
समाचारनुमा
उत्पाद
बनाने
में
जुटी
रहती
हैं।
उनके
चेहरे
और
उनकी
राजनीति
चमकाने
में
जुटी
रहती
है।
मगर,
जब
औपचारिक
रूप
से
कुछ
बताने
की
बात
आती
है
तो
प्रधानमंत्री
भी
संसद
में
यही
जानकारी
देते
हैं
कि
सोशल
मीडिया
पर
प्रचार-प्रसार
में
उनका
खर्च
शून्य
है।
क्या प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पर्सनल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जो शेयर की जाती हैं उन पर खर्च शून्य होता है! इस झूठ को तो झूठा साबित करने की भी ज़रूरत नहीं है। राजनीतिक दलों ने जरूर औपचारिक रूप से मीडिया सेल बना रखा है। मगर, इसके सदुपयोग को वे अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। सवाल ये है कि राजनीतिक दुरुपयोग को रोकने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे व्यक्तिगत यूजर को नियंत्रित किया जाए या फिर राजनीतिक दलों और समूहों को? इसके बिना कोई भी कवायद अपने मकसद को कैसे पा सकती है?
चुनाव
आयोग
को
खोलनी
होंगी
आंखें
चुनाव
आयोग
अगर
चुनाव
आचार
संहिता
के
उल्लंघन
पर
योगी
आदित्यनाथ
को
सज़ा
देने
के
बजाए
समझाइश
देता
है
तो
उसे
क्या
हक
होगा
सोशल
मीडिया
से
होने
वाले
आचार
संहिता
के
उल्लंघन
के
मामलों
में
आम
यूजर
को
सज़ा
देने
का?
क्या
आम
यूजर
को
इसलिए
सज़ा
दी
जाएगी
कि
वे
आम
हैं?
सच
देखा
जाए
तो
वह
आम
यूजर
भी
राजनीतिक
रूप
से
संचालित
हो
रहे
किसी
न
किसी
समूह
से
आर्थिक
लाभ
के
लिए
या
फिर
अनजाने
में
जुड़ा
होगा।
गलती
व्यक्ति
की
बड़ी
है
या
संगठित
समूह
और
राजनीतिक
दलों
की?
ऐसा नहीं होना चाहिए कि कानून का शिकंजा आम लोग सहें और आम लोगों को इस्तेमाल करने वाले लोग इस शिकंजे से दूर रहें। चुनाव आयोग को कोई भी कदम उठाने से पहले इस पहलू को जरूर देखना चाहिए। हाल के दिनों में सिविल सोसायटी के लोगों ने चुनाव आयोग से सोशल मीडिया के दुरुपयोग को सुनिश्चित करने का आग्रह किया था। उन्हें भी इस बात को समझना होगा कि केवल नियम और कानून बनवा देने से बात पूरी नहीं होती। जिम्मेदार लोगों को कैसे कानून की जद में लाया जाए, यह अधिक जरूरी है।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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