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काश! प्रियंका गांधी से सीख पाते कन्हैया कुमार

By Prem Kumar
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नई दिल्ली। 2019 के आम चुनाव में कन्हैया कुमार ने डेब्यू किया, प्रियंका गांधी डेब्यू करते-करते रह गयीं। प्रश्न ये नहीं है कि कन्हैया कुमार ने राजनीति में बढ़त ले ली या कि प्रियंका गांधी ने कोई गलत निर्णय कर लिया। प्रश्न ये है कि क्या कन्हैया कुमार को वैसा ही करना चाहिए था जैसा कि प्रियंका गांधी ने किया? या फिर क्या प्रियंका गांधी को वैसा ही करना चाहिए था जैसा कि कन्हैया ने किया? ये सारे सवाल इसलिए हैं क्योंकि वास्तव में कन्हैया कुमार ने बेगूसराय से चुनावी राजनीति में डेब्यू करते हुए बड़ी गलती कर दी है। वहीं, प्रियंका गांधी ने यह गलती करने से खुद को रोक लिया है।

पढ़ें-बेगूसराय लोकसभा सीट पर क्या कहते हैं सियासी आंकड़े, जानिए

 कन्हैया के लिए बेगूसराय ही क्यों?

कन्हैया के लिए बेगूसराय ही क्यों?

कन्हैया कुमार ने बेगूसराय को क्यों चुना? सिर्फ इसलिए कि वहां उनका पैतृक निवास स्थान है? कन्हैया कुमार ने बगैर महागठबंधन का विश्वास हासिल किए हुए यह कदम उठाया। इसमें गलती उनकी पार्टी सीपीआई की अधिक है। मगर, अंतिम फैसला तो प्रत्याशी का ही माना जाएगा। कन्हैया कुमार का जो ओहदा सार्वजनिक जीवन में हासिल है उसमें योगदान जेएनयू का है। उनके लिए यह आवश्यक कतई नहीं था कि वे बेगूसराय से ही चुनाव लड़ें। उनके लिए आवश्यक ये था कि वे विपक्ष का साझा प्रत्याशी बनकर देश की किसी भी लोकसभा सीट से मोदी विरोध का ध्रुव बनें। अगर इस सोच के साथ वे भारतीय चुनावी राजनीति में डेब्यू करने की पहल करते, तो उन्हें समूचे विपक्ष का अर्थपूर्ण समर्थन मिल सकता था।

 मोदी या शाह के ख़िलाफ़ कन्हैया ने क्यों नहीं ठोंकी ताल?

मोदी या शाह के ख़िलाफ़ कन्हैया ने क्यों नहीं ठोंकी ताल?

कन्हैया कुमार से अपनी अहमियत को समझने में भी बड़ी भूल हुई है। किसी भी क्षेत्र से सांसद भर चुनकर आ जाने में ही क्या उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत की सार्थकता है? क्यों नहीं कन्हैया कुमार ने नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की सोची? हालांकि इसके लिए भी उन्हें पूरे विपक्ष का साथ लेने की कवायद पहले से करनी पड़ती। मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश में ऐसा सम्भव नहीं हो रहा था, तो क्यों नहीं कन्हैया कुमार ने गांधीनगर में अमित शाह को ताल ठोंकने की तैयारी की? इन दो के अलावा बीजेपी में तीसरा कोई नेता नहीं है जिनके ख़िलाफ़ कन्हैया कुमार के लिए चुनावी रणनीति बनाने की ज़रूरत है। सम्भव है कि कन्हैया कुमार किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ लड़ने की सोच से सहमत न हों। वैसी स्थिति में देश की राजधानी नई दिल्ली या फिर दिल्ली की किसी भी लोकसभा सीट से वे चुनाव लड़ सकते थे। दिल्ली ने ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष की कर्मभूमि दी थी। दिल्ली से चुनाव लड़ते हुए भी कन्हैया कुमार को समूचे विपक्ष का प्रत्याशी बनकर मोदी विरोधी ध्रुव बनने का अवसर पैदा करने की जरूरत ख़त्म नहीं हो जाती।

 कन्हैया जैसी गलती कर सकती थीं प्रियंका भी

कन्हैया जैसी गलती कर सकती थीं प्रियंका भी

अब लौटते हैं प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने और नहीं लड़ने के फैसले पर। प्रियंका ने वाराणसी से नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की इच्छा रखी। कांग्रेस ने इस पर सस्पेंस बनाए रखा। राहुल भी बोले, सस्पेंस रहना चाहिए। मगर, इस सस्पेंस के पीछे का खेल यही था कि प्रियंका को समूचे विपक्ष का साझा प्रत्याशी बनाया जाए। मगर, ऐसा नहीं हो पाया। एक बार भी एसपी-बीएसपी नेताओं ने प्रियंका को नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ साझा उम्मीदवार बनाने की ख्वाहिश तक नहीं रखी। जाहिर है अंदरखाने की कोशिशें दिखाई नहीं पड़ती हैं और खासकर जब कोशिश विफल हो जाए तो नेता यह भी नहीं मानते कि कोई कोशिश हुई थी। प्रियंका गांधी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने को लेकर यू टर्न लिया। यह कोई गलत फैसला नहीं है। एसपी-बीएसपी के प्रत्याशी भी मैदान में हों, कांग्रेस के प्रत्याशी भी मैदान में हों तो प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ एकजुटता के बजाए बिखराव का संदेश जाता है। ऐसा संदेश देते हुए चुनाव लड़ने से बेहतर है कि न लडा जाए। कन्हैया कुमार से भी यही उम्मीद की जाती थी। महागठबंधन मजबूत उम्मीदवार तनवीर हसन के रहते बेगूसराय से उनका चुनाव लड़ने पहुंच जाना किसी बड़े मकसद से उनको नहीं जोड़ता है। महज सांसद बन जाना अगर उनका मकसद है तब कोई बात नहीं। चूकि अपेक्षा बड़ी है इसलिए सवाल बनते हैं।

 सांसद भर बनना न प्रियंका-कन्हैया का मकसद है क्या?

सांसद भर बनना न प्रियंका-कन्हैया का मकसद है क्या?

प्रियंका और कन्हैया में यही फर्क है। कन्हैया किसी तरीके से सांसद बन जाने को अपनी उपलब्धि के रूप में देखते हैं। कहने को तो पूंजीवाद, सम्प्रदायवाद और नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ और दलितों-पीड़ितों-शोषितों के लिए लड़ाई लड़ने निकले हैं कन्हैया कुमार। मगर, सवाल यही है कि क्या यह लड़ाई बेगूसराय सीट से जुड़कर ही लड़ी जा सकती थी? क्या यह लड़ाई महागठबंधन से लड़ते हुए ही सम्भव थी? महागठबंधन का साथ लेना क्या इस लड़ाई में जरूरी नहीं था? कन्हैया कुमार से अधिक स्पष्ट नीति और रणनीति प्रियंका गांधी में दिखती है जब वह वाराणसी में अकेले कांग्रेस का उम्मीदवार बनने की सम्भावना को खारिज़ कर देती हैं। यहीं पर प्रियंका और कन्हैया में फर्क आप महसूस कर ले सकते हैं।

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English summary
Lok Sabha elections 2019: CPI Candidates from Begusari Kanhiya Kumar Should Take Political lesson From Priyanka Gandhi
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