चुनाव आयोग का अंदरूनी विवादः क्या बाहर के हल्ला की जड़ें भीतर ही थीं?
नई दिल्ली। जिसको लेकर बहुत हल्ला था, उसकी गहरी जड़ें अंदर ही दिखने लगीं। जिस दौर में सब कुछ ऐतिहासिक हो रहा है, उसी में यह भी हुआ। चुनाव आयोग में दूसरे नंबर के आयुक्त को बाहर आकर मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र के जरिये मीडिया का सहारा लेना पड़ा और अपना पक्ष रखना पड़ा। यह सब तब हो रहा है जब चुनाव आयोग को लेकर अनेक तरह की आलोचनाएं हो रही हैं। आलोचना भी ऐसी जो चुनाव प्रक्रिया के आरंभ से शुरू हुई और अंतिम चरण तक बढ़ती ही चली गई। भले ही यह एकदम से उस तरह न हो जिस तरह कभी सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों ने बाहर आकर मीडिया से बात की थी और हालात को बहुत गंभीर बताया था। लेकिन उससे कुछ कम भी नहीं लगती। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने उस तरह कोई संवाददाता सम्मेलन नहीं किया, लेकिन उनका वह पत्र पहले मीडिया के कुछ हिस्सों में आया और बाद में आम हो गया। उसके बाद मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी जिन्होंने कहा कि सभी आयुक्त एक दूसरे के क्लोन नहीं हो सकते।
हालांकि इसमें कुछ ज्यादा नया नहीं है क्योंकि लवासा के बारे में बहुत पहले यह जानकारी आ चुकी थी कि आचार संहिता उल्लंघन के मामलों में फैसलों पर उनकी कुछ मामलों में दो अन्य आयुक्तों से राय अलग रही है। तब इसे सामान्य माना गया था क्योंकि ऐसा हो ही सकता है। तब शायद किसी को इस तरह का अंदेशा नहीं रहा होगा कि यह मत भिन्नता सार्वजनिक भी हो सकती है और लवासा यह भी तय कर सकते हैं कि आगे की बैठकों में हिस्सा नहीं लेंगे। इस पत्र से साफ पता चलता है कि चार मई के बाद की बैठकों में लवासा ने हिस्सा नहीं लिया और सारे फैसले दो आयुक्तों ने ही लिए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस दौरान हुए फैसले कैसे लिए गए होंगे क्योंकि विपक्ष की ओर से लगातार इस आशय के आरोप लगाए जाते रहे हैं कि चुनाव आयोग फैसलों में पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रहा है। सत्ता पक्ष को हर मामले में क्लीनचिट दी जा रही है और उसी तरह के मामलों में विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है। हालांकि यह भी सही है कि कुछ मामलों में विपक्षी नेताओं को भी क्लीनचिट मिली लेकिन विपक्ष के आरोपों के मुताबिक एक तरह से यह भी कटु सत्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को तकरीबन हर मामले में क्लीनचिट दे दी गई।
इसे भी पढ़ें:- पश्चिम बंगाल में अंतिम चरण में भी हिंसा और भाजपा के आरोपों का मतलब
लवासा का पत्र सार्वजनिक हो जाने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को लेकर भी विमर्श हो रहा है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट की ओर से चुनाव आयोग को यह सलाह दी गई थी कि धार्मिक और जातिगत टिप्पणियां करने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा उस याचिका पर कहा था जिसमें मांग की गई थी कि आयोग की निष्पक्षता और चुनाव प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए किसी पूर्व सर्वोच्च न्यायाल के न्यायाधीश की अध्यक्षता में समिति बनाई जानी चाहिए। इसके अलावा कई अन्य मांगें भी की गई थीं। इससे यह पता चलता है कि याचिकाकर्ता को यह पहले से अंदेशा था कि इन चुनावों में इस तरह की बातें की जा सकती हैं। यह भी आशंका रही होगी कि चुनाव आयोग की ओर से उपयुक्त कार्रवाई नहीं की जा सकेगी, इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय के दखल की मांग की थी। इस तरह आशंकाएं पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान सही साबित होती दिखीं। इतना ही नहीं, स्वयं चुनाव आयोग के निर्देशों का उल्लंघन किया जाता रहा और विपक्ष की ओर से आरोप लगाए जाते रहे कि आयोग उस सबको अनदेखा करता रहा। ध्यान देने की बात है कि चुनाव आयोग ने बहुत साफ निर्देश दिया था कि चुनावों के दौरान सेना का किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। आयोग ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि सेना के जवानों की तस्वीरों का उपयोग नहीं किया जाना है और उसका किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया जाना है। इसके अलावा, रक्षा से संबंधित गतिविधियों का भी राजनीतीकरण नहीं करने को कहा गया था। इसके बाद भी पाया गया कि बालाकोट आदि का जिक्र किया जाता रहा। इसको लेकर शिकायतें की गईं, तो उस पर कोई उल्लेखनीय कार्रवाई भी नहीं की गई। मतलब चुनाव आयोग अपने ही निर्देशों का पालन कराना भी नहीं सुनिश्चित कर पाया।
इसी दौरान लवासा का यह पत्र सार्वजनिक हो गया। बताया जाता है कि इस पत्र में लवासा ने कहा कि फैसलों में उनकी राय दर्ज की जानी चाहिए और जब तक ऐसा नहीं किया जाता वह किसी बैठक में शामिल नहीं होंगे। पत्र के मुताबिक चार मई के बाद की किसी बैठक में वह नहीं गए। अब विपक्ष की ओर से इस मुद्दे को नए सिरे से उठाया जाने लगा है। अभी चुनाव प्रचार समाप्त होने के साथ ही कांग्रेस की ओर से आयोजित संवाददाता सम्मेलन में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने संवादाताओं के सवाल पर सार्वजनिक तौर पर चुनाव आयोग पर बायस्ड होने का आरोप लगाया है। इसके अलावा कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि चुनाव आयोग सरकार का पिट्ठू बन चुका है। उन्होंने यह भी कहा कि लवासा के पत्र से स्पष्ट है कि चुनाव आयोग आयुक्तों की मत भिन्नता को रिकॉर्ड भी नहीं कर रहा है। कुछ अन्य नेताओं और बुद्धिजीवियों की ओर से भी सवाल उठाए गए हैं। इस तरह एक तरह से अब यह सार्वजनिक हो चुका है कि चुनाव आयोग में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
हालांकि इस पूरे मामले पर मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अपनी ओर से स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है और कहा है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान इस सबसे बचा जाना चाहिए था। यह भी कहा है कि निर्वाचन कानून भी विषय विशेष पर वैचारिक समरूपता को वरीयता देते हैं लेकिन अंततः बहुमत से फैसले का ही प्रावधान है। यह भी बताया गया है कि चुनाव आयुक्त की ओर से 21 मई को बैठक बुलाई गई है। माना जा रहा है कि इस बैठक में लवासा की चिट्ठी से उत्पन्न विवाद पर चर्चा की जाएगी। देखना होगा कि इस पर आगे क्या होता है और इस चिट्ठी को किस रूप में लिया जाता है। लेकिन यह तो कहा जा सकता है कि हालात कुछ ठीक नहीं लग रहे हैं। इसे एक बड़े गंभीर मामले के तौर पर लिया जाना चाहिए और समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि इन हालात के पीछे क्या कारण रहे हैं ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों से बचा जा सके। लोकतंत्र में चुनाव के लिए चुनाव आयोग ही वह संस्था है जिस पर सभी को विश्वास होता है। अगर उसकी निष्पक्षता पर ही सवालिया निशान खड़े हो जाएंगे तो कोई कैसे मान सकेगा कि चुनाव निष्पक्ष हुए हैं। यह सुनिश्चित करना लोकतंत्र के हर स्तंभ की जिम्मेदारी बनती है और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी खुद चुनाव आयोग की होती है। उम्मीद की जा सकती है चुनाव आयोग अपनी इस महती जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी गंभीरता के साथ अवश्य करने में सक्षम होगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
एक क्लिक में जानें अपने लोकसभा क्षेत्र के जुड़े नेता के बारे में सबकुछ