NOTA के बढ़ते प्रतिशत के बीच मतदान अनिवार्य करने की मांग कितनी जायज?
नई दिल्ली। वर्तमान लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह की रोचक बातें हो रही हैं, उनका इशारा तात्कालिक से ज्यादा दूरगामी असर वाला लग रहा है। शुरुआती दो चरणों के बीतने के बाद एक नेता योगेंद्र यादव की ओर से नोटा के उपयोग की वकालत बहुत मजबूती की गई जिसकी काफी आलोचना हुई। तीसरे चरण के मतदान के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से मतदाताओं विशेषकर युवा और पहली बार मतदान करने वालों को लक्ष्य कर अलग से अपील की गई। प्रधानमंत्री की ओर से यहां तक कहा गया कि मतदान से पहले क्या वे बालाकोट को अपने दिल-दिमाग में रखेंगे। अब एक पुरानी दलील नए रूप में आई है कि मतदान को अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए। जब चार चरणों का चुनाव संपन्न हो चुका हो, तब इस तरह की महत्वपूर्ण बात उठाना कोई सामान्य बात नहीं कही जा सकती है।
मतदान प्रतिशत में कमी को लेकर जताई जा रही चिंता
यह दलील रखी है निति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत की ओर से। इस तरह की बातें उस चुनावी दौर में हो रही हैं जब खुद चुनाव आयोग लगातार गंभीर सवालों के घेरे में है और अब तक हुए चारों चरणों में मतदान प्रतिशत में कमी को लेकर चिंता जताई जा रही है। मतदान में ज्यादा से ज्यादा संख्या में हिस्सेदारी की अपीलें पहले भी अलग-अलग तरीकों से की जाती रही हैं। इसके पीछे बड़ा कारण मतदाताओं को जागरूक बनाना बताया जाता रहा है। लेकिन इस बार कहा जा रहा है कि इस तरह की अपील के पीछे कम मतदान की वजह से होने वाले संभावित नुकसान को ध्यान में रखकर एक पार्टी विशेष की ओर से ऐसा किया जा रहा है। मतलब कहीं न कहीं यह डर सता रहा है कि जब लोग मतदान ही नहीं करेंगे, तो जीतेंगे कैसे। शायद इसीलिए कहा जा रहा है कि मतदान को ही अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए ताकि सभी मतदाता वोट करे और न करे तो दंड का भागीदार बने। गनीमत यह है कि इस आशय की मांग किसी पार्टी की ओर से नहीं की गई है।
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लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिवार्य मतदान की कोई व्यवस्था नहीं
देखने की बात है कि हमारे संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिवार्य मतदान की कोई व्यवस्था नहीं है। भारत में मतदाताओं को पूरी स्वतंत्रता है कि वह खुद तय करें कि मतदान करना है अथवा नहीं और अगर करना है तो किसे। एक और अच्छी व्यवस्था गुप्त मतदान की है। मतदाता से न कोई पूछ सकता है कि वह किसे वोट देगा और न मतदाता बाध्य है कि वह बताए कि किसे वोट देगा अथवा किसे वोट दिया है। हालांकि यह आम बात है कि कई मतदाताओं को मतदान से वंचित होना पड़ता है क्योंकि अंत समय में पता चलता है कि मतदाता सूची में उनका नाम ही नहीं है। इस समस्या का समाधान अभी तक नहीं किया जा सका है। चुनाव सुधार लगातार होते रहते हैं और इसकी जरूरत भी रहती है। इसलिए चुनावी व्यवस्था में कई संशोधन किए गए हैं। इन्हीं में से एक नोटा था जिसको लेकर लंबी बहस चली थी और तब जाकर यह व्यवस्था बनाई गई थी कि अगर किसी मतदाता को लगता है कि उसके प्रत्याशियों में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसे वोट दिया जा सके, तो वह नोटा का इस्तेमाल कर सकता है। जब यह सुधार किया गया था, तब शायद यह माना गया था कि ऐसे लोगों की संख्या कम होगी। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में देखा गया कि नोटा का बटन दबाने वालों की संख्या न केवल बढ़ती जा रही है बल्कि कई सीटों पर यह इतनी हो जा रही है जितना हार-जीत का अंतर होता है। इस चुनाव में नोटा का उपयोग करने की वकालत के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है।
नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के एक ट्वीट से मची हलचल
इसी तरह प्रधानमंत्री की ओर से की गई अपील में वैसे तो कुछ भी नया नहीं था क्योंकि कोई भी मतदान में हिस्सा लेने की अपील कर सकता है। लेकिन जब प्रधानमंत्री की ओर से चुनावी सभाओं में अलग से यह अपील की जाने लगी, तब राजनीतिक हलकों में खासकर विपक्षियों की ओर से कहा जाने लगा कि सत्ताधारी पार्टी और खुद प्रधानमंत्री को यह चिंता सताने लगी है कि मतदाताओं की उदासीनता उनके लिए भारी पड़ सकती है। इसी बीच नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के एक ट्वीट ने सियासी हलकों में जैसे हलचल मचा दी। उन्होंने इस ट्वीट में मतदान को अनिवार्य बनाने की वकालत की है। उन्होंने आस्ट्रेलिया का हवाला देते हुए यह भी कहा है कि मतदान न करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। सामान्य तौर पर अगर देखा जाए, तो किसी को भी यह बात अच्छी लग सकती है। लेकिन व्यापक तौर देखा जाए, तो यह मतदाता के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन जैसा ही होगा। कुछ इसी तरह के तर्क पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने दिए हैं। कुरैशी ने न केवल इस विचार का विरोध किया है बल्कि उनका यह भी कहना है कि यह भारत में संभव नहीं है और ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए।
लगातार बढ़ रही NOTA का बटन दबाने वालों की संख्या
ध्यान देने की बात है कि मतदान को अनिवार्य बनाने की वकालत की शुरुआत कभी भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण की ओर से उठाई गई थी। तब भी इसका काफी विरोध हुआ था और एक तरह से यह विचार खारिज किया जा चुका था। लेकिन कभी गुजरात सरकार इस दिशा में काफी आगे बढ़ गई थी। गुजरात विधानसभा ने 2011 में इस आशय का एक विधेयक पारित किया था जिसमें निकाय चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने की व्यवस्था बनाई गई थी। लेकिन इसे पहले राज्यपाल की ओर से स्वीकृति नहीं मिल पा रही थी और बाद में अदालत की ओर से इस पर रोक लगा दी गई थी। इस तरह गुजरात में भी यह लागू नहीं हो सका था। हालांकि यह व्यवस्था दुनिया के करीब 32 देशों में लागू है। कुछ देशों में मतदान न करने पर दंड का भी प्रावधान है। लेकिन कहीं भी इसे पूरी तरह सफल नहीं माना गया है। भारत में संवैधानिक व्यवस्था ही इसकी छूट नहीं देता क्योंकि ऐसा करना मतदाता के अधिकारों में कटौती माना जाता है। इसीलिए जब भी इस तरह की बातें की जाती हैं, तब कहा जाता है कि इस आशय की मांग एक पार्टी विशेष की ओर से शुरू की गई और वही चाहती है कि मतदान अनिवार्य कर दिया जाए। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वालों को यह खतरा लगता है कि अगर ऐसा हुआ, तो कभी इस आशय की मांग भी की जा सकती है कि हर मतदाता केवल एक ही पार्टी को वोट करे। अगर ऐसा होता है तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाएगा। सवाल यह भी है कि इस तरह की मांगों के पीछे क्या मतदाताओं के अधिकारों का हनन नहीं होता। हालांकि नीति आयोग के सीईओ कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। लेकिन वह एक बड़े अधिकारी हैं और जब उनकी ओर से ऐन चुनाव के वक्त इस आशय की मांग उठाई जा रही है, तो निश्चित रूप में इसके गहरे निहितार्थ होंगे।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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