बार-बार सवालों के घेरे में क्यों आता जा रहा है चुनाव आयोग?
नई दिल्ली। बीते काफी समय में विवादों में चला आ रहा चुनाव आयोग लोकसभा चुनावों के दौरान भी विवाद का केंद्र बना हुआ है। हाल के कम से कम दो-तीन घटनाक्रम इस बात के गवाह हैं कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और सवाल गंभीर होते जा रहे हैं। इन विवादों को दूर करने के बजाय ज्यादा से ज्यादा उलझाए रखने की कवायद ही अधिक सामने आ रही है। ऐसे में यह सवाल गहराता जा रहा है कि क्या आने वाले समय में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता बहाल हो सकेगी अथवा इसका ज्यादा क्षरण होना है। आज जिस तरह के हालात उत्पन्न हो रहे हैं, उसके मद्देनजर क्या इस सम्मानित संस्था को नए सिरे से विचार करने की जरूरत नहीं है कि आखिर क्या किया जा सकता है जिससे सवाल उठने बंद अथवा कम हो सकें और लोगों को लगने लगे कि नहीं चीजें ठीक से संचालित की जा रही हैं।
66 पूर्व नौकरशाहों ने राष्ट्रपति को लिखा पत्र
इस संबंध में हाल में जो कुछ हो रहा है उस पर एक मोटी नजर डाल लेने की आवश्यकता है जिससे हालात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। ऐन चुनाव के वक्त देश के करीब 66 पूर्व नौकरशाहों ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराया है और जरूरी एहतियाती कदम उठाने की मांग की है। इन पूर्व नौकरशाहों ने अपने पत्र में उल्लेख किया है कि चुनाव आयोग के समक्ष विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो गया है। इसके पीछे आचार संहिता उल्लंघन की शिकायतों पर प्रभावी कार्रवाई न करने और पक्षपात करने के आरोपों का भी जिक्र किया है।
इन नौकरशाहों ने नमो टीवी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर फिल्म और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के सेना संबंधी वक्तव्य आदि का उदाहरण देते हुए राष्ट्रपति का ध्यान आकृष्ट किया है कि इन मामलों पर आयोग ने अपेक्षित रवैया नहीं अपनाया जिससे लोगों में गलत संदेश जा रहा है। इन अधिकारियों ने राष्ट्रपति के साथ चुनाव आयोग को भी पत्र लिखकर अपील की है कि उसकी ओर से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और काबिलियत पर कोई भी किसी तरह का सवाल न उठा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने दिया है बड़ा फैसला
पूर्व नौकरशाहों ने यह पत्र उस समय लिखा है जब उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक पार्टियों और उनके प्रतिनिधियों के वक्तव्यों को लेकर चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया है। चुनाव आयोग को लेकर दाखिल एक याचिका में पार्टियों के प्रतिनिधियों के वक्तव्यों के संबंध में रखे सुझावों के मद्देनजर यह नोटिस जारी की गई है। इन सुझावों में एक यह है कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता बनाए रखने और चुनावी प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए किसी पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज की अध्यक्षता में संवैधानिक समिति गठित की जाए। उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए जो नेता धर्म या जाति को लेकर बयानबाजी करते हैं। इसके अलावा और भी कई सुझाव दिए गए हैं जिनकी जरूरत संभवतः इसलिए महसूस की गई होगी क्योंकि इन पर उस तरह का सख्त रवैया नहीं दिख रहा है जैसा होना चाहिए।
हालांकि उच्चतम न्यायालय का अभी सिर्फ नोटिस ही जारी हुआ है जिसका कतई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि इन सारे सुझावों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन इतना तो माना जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय ने इन सुझावों और सवालों के महत्व को समझा होगा, तभी यह नोटिस जारी किया गया है। अभी वीवीपैट का मुद्दा भी न्यायालय में रहा है जिसके बारे में सर्वोच्च अदालत का एक फैसला भी आया है। फैसले में कहा गया है कि चुनाव आयोग को मतगणना के दौरान एक विधानसभा क्षेत्र में वीवीपैट से पर्चियों की आकस्मिक जांच के लिए अब पांच ईवीएम की वीवीपैट से मिलना किया जाए। इनमें से कोई भी एक जांच के लिए चुनी जाएगी।
इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम लोगों को भी संतुष्ट करना है। यह फैसला 21 विपक्षी दलों की ओर से दाखिल याचिका पर आया है जिसमें चुनाव परिणाम के ऐलान से पहले एक लोकसभा सीट पर 50 प्रतिशत ईवीएम की वीवीपैट से मिलान करने की मांग की गई थी। इस याचिका के पीछे विपक्ष की वह शास्वत शिकायत रही है कि ईवीएम के जरिये मतदान में खामियां हैं और इससे परिणाम सही नहीं आते हैं। विपक्ष का यह भी आरोप रहा है कि सत्ता पक्ष ईवीएम में छेड़छाड़ कर परिणाम अपने पक्ष में करवा लेता है। इसके बाद ही वीवीपैट मिलाने की मांग जोर पकड़ने लगी थी। हालांकि इसका चुनाव आयोग और सत्ताधारी पार्टी की ओर से लगातार खंडन किया जाता रहा है। लेकिन यह सवाल बरकरार रह जा रहा था। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद माना जा सकता है कि विपक्ष की शिकयतों में शायद कुछ कमी आ सके।
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चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल
यद्यपि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन आयोग की भी अपनी शिकायतें रही हैं और उसके अपने दावे भी रहे हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। एक जानकारी के मुताबिक अब से कोई दो वर्ष पूर्व चुनाव आयोग ने केंद्रीय गृहमंत्रालय को एक पत्र लिखा था जिसमें अदालत की अवमानना अधिनियम 1971 में बदलाव की मांग की गई थी। इतना ही नहीं, आयोग ने यह मांग भी की थी कि चुनाव आयोग की छवि खराब करने वालों पर अवमानना की कार्रवाई का अधिकार उसे दिया जाए। अभी हाल में चुनाव आयोग ने वित्त मंत्रालय को सलाह दी है कि चुनाव के दौरान उसकी प्रवर्तन एजेंसियों की कोई भी कार्रवाई निष्पक्ष और भेदभाव रहित होनी चाहिए और ऐसी कोई भी कार्रवाई की जानकारी चुनाव आयोग के अधिकारियों के संज्ञान में होनी चाहिए। इस सलाह के पीछे हाल में पड़े कुछ छापे रहे हैं जिनको लेकर विपक्ष आरोप लगा रहा है कि यह कार्रवाई केवल विपक्षी नेताओं और उनके करीबियों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण तरीके से की जा रही है। इस सबके बावजूद अगर चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं, तो यह सभी की जिम्मेदारी बनती है कि शिकायतों पर न केवल गौर किया जाए बल्कि उन्हें दूर करने के पुख्ता उपाय भी किए जाएं।
ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में चुनाव आयोग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोगों में यह विश्वास होता है कि आयोग पूरी निष्पक्षता के साथ चुनावों को संपन्न कराएगा। अगर ऐसा नहीं हो सका अथवा इसमें किसी भी तरह की कमी रह गई है, तो यह न केवल लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होगा बल्कि देश के लिए भी उचित नहीं माना जाएगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)