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कौन कहता है कि चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता?

By आर एस शुक्ल
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नई दिल्ली। चुनाव आयोग ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वह चाहे तो कुछ भी कर सकता है। भले ही ऐसा विपक्ष की चौतरफा आलोचना की वजह से हुआ हो अथवा सर्वोच्च अदालत के कड़े रुख के कारण, लेकिन चुनाव आयोग ने यह बताने की कोशिश की जरूर की है कि मजबूरी में ही सही वह कुछ तो कर सकता है। बीते कुछ दिनों में चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की बातें नेताओं द्वारा की जा रही थीं, उससे इस तरह का आम संदेश जा रहा था कि चुनाव आयोग या तो मूकदर्शक बना हुआ है या संभवतः जानबूझकर कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। महिलाओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां की जा रही थीं और सांप्रदायिक वक्तव्य दिए जा रहे थे। लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। चुनाव आयोग की ओर से कहा जा रहा था कि उसके पास कार्रवाई के लिए सीमित शक्तियां हैं। वह केवल नोटिस जारी कर सकता है।

 है जिस पर सर्वोच्च अदालत सुनवाई कर रही है। यह याचिका एक एनआरआई ने दाखिल की है जिसमें अभद्र और सांप्रदायिक टिप्पणियों पर रोक लगाने और चुनाव प्रक्रिया पर नजर रखने और आयोग की भूमिका की भी जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से पैनल के गठन की मांग की गई थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने आयोग से यह पूछा कि आखिर ऐसी शिकायतों पर उसकी ओर से क्या कार्रवाई की जा रही है। इस सवाल पर आयोग

लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में ज्यादा तहकीकात की, तो अन्य लोगों के अलावा आयोग को भी पता चला कि नहीं वह नोटिस के आगे जाकर भी कुछ कर सकता है। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ, पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती, सपा नेता आजम खान और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के खिलाफ कार्रवाई करते हुए दो से तीन दिनों तक इनके चुनाव प्रचार पर रोक लगा दी। एक और उल्लेखनीय कार्रवाई आयोग की ओर से की जा रही है।

आयोग ने राष्ट्रपति से गुहार लगाई है कि वह वेल्लोर में चुनाव स्थगित करना चाहता है क्योंकि वहां के एक डीएमके नेता के यहां से करोड़ों रुपये की नगदी और नशीले पदार्थ जब्त किए गए हैं जिसके बारे में माना जा रहा है कि यह सब कुछ चुनावों को प्रभावित करने के लिए उपयोग में लाया जाना था। चुनाव आयोग के प्रस्ताव पर अगर राष्ट्रपति की मुहर लग जाती है तो वेल्लोर का चुनाव स्थगित किया जा सकता है। इससे भी यह पता चलता है कि चुनाव आयोग न केवल जागता हुआ लग रहा है बल्कि कुछ करता हुआ दिखाई दे रहा है।

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दरअसल, यह सब कुछ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई उस एक याचिका के बाद सामने आया है जिस पर सर्वोच्च अदालत सुनवाई कर रही है। यह याचिका एक एनआरआई ने दाखिल की है जिसमें अभद्र और सांप्रदायिक टिप्पणियों पर रोक लगाने और चुनाव प्रक्रिया पर नजर रखने और आयोग की भूमिका की भी जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से पैनल के गठन की मांग की गई थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने आयोग से यह पूछा कि आखिर ऐसी शिकायतों पर उसकी ओर से क्या कार्रवाई की जा रही है। इस सवाल पर आयोग की ओर से बताया कि उसके अधिकार सीमित हैं। वह कोई सख्त कार्रवाई नहीं कर सकता सिवाय इसके कि नोटिस कर दिया जाए।

सुप्रीम कोर्ट इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ और जब आयोग के अधिकारों के बारे में पूछताछ की, तो पता चला कि नहीं आयोग नोटिस जारी करने के आगे जाकर भी कार्रवाई कर सकता है। इसके बाद ही आयोग की ओर से चार नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की गई। हालांकि अभी भी बहुत सारे लोग संतुष्ट नहीं लग रहे हैं। इसीलिए वे चाहते हैं कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कहीं अधिक सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि नेताओं को सबक मिल सके कि वे लगातार मनमानी नहीं कर सकते।

हालांकि आयोग की कार्रवाई पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। मायावती तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई कि उनके साथ ज्यादती की है। इसके अलावा, भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई की ओर से भी कहा गया कि योगी आदित्यनाथ ने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया है। इस सबके बावजूद कुछ तो ऐसा किया जा रहा है जिसकी वजह से आलोचनाएं हो रही हैं, सुप्रीम कोर्ट को सवाल पूछना पड़ रहा है और आयोग को कार्रवाई करनी पड़ रही है।

चुनावों के दौरान आजम खान, मायावती, मेनका गांधी और योगी आदित्यनाथ की ओर से चुनावी सभाओं में जिस तरह की बातें की गईं उसे कोई भी कैसे जायज ठहरा सकता है। हर प्रत्याशी और पार्टी को चुनाव जीतना है, लेकिन उसके लिए क्या कुछ भी करने की छूट दी जा सकती है या दी जानी चाहिए। क्या यह ज्यादा अच्छी स्थिति नहीं होती कि पार्टियां और उम्मीदवार अपने काम के आधार पर मतदाताओं के बीच जातीं और वोट मांगतीं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जाएगा कि वोट के लिए ऐसे तरीके अख्तियार किए जा रहे हैं जो किसी भी तरह से स्वस्थ नहीं कहे जा सकते। शायद इन्हें यह लगता है कि इसी तरह की टिप्पणियों के जरिये चुनाव जीता जा सकता है या उनकी सोची-समझी कोशिश है कि चुनावों को ऐसा ही बना दिया जाए और फिर इसका राजनीतिक लाभ ले लिया जाए।

अभी भी जो कार्रवाइयां की गई हैं वह सीमित ही लगती हैं। चुनावों के दौरान रोज कोई न कोई नेता किसी न किसी के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां करता ही रहता है और उसकी शिकायतें भी होती रहती हैं। लेकिन उन सब के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा रही है। इसके अलावा बहुतायत कार्रवाइयां सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद ही की जा रही लगती हैं। अब जैसे नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म को लेकर काफी पहले से शिकायतें की जा रही थीं, लेकिन उसके प्रदर्शन पर रोक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आधार पर ही लगी। इसके अलावा, सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रचार पर रोक के बाद ये नेता फिर से इसी तरह की बयानबाजी नहीं करेंगे और यदि करेंगे, तब क्या किया जाएगा। आजम खान पर पहले भी कार्रवाई की जा चुकी है, लेकिन वे अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। उनके बारे में तो राजनीतिक हलकों में यहां तक कहा जाता है कि वे अक्सर इसी तरह की अभद्र टिप्पणियां करते रहते हैं।

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फिलहाल चुनाव आयोग के लिए यह बड़ी चुनौती का समय है। एक तरह से यह उसके लिए साबित करने का समय है क्योंकि विपक्ष की ओर से लगातार ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं कि वह सत्ता पक्ष के इशारे पर काम करने वाली संस्था बन गई है। वैसे इस तरह के आरोप कोई पहली बार नहीं लग रहे हैं। इससे पहले भी लंबे समय से ऐसे आरोप लगाए जाते रहे हैं और चुनाव आयोग व चुनाव आयुक्तों की ओर से इसका पुरजोर खंडन भी किया जाता रहा है। इसके बावजूद कुछ तो है जिसकी वजह से आयोग आलोचना का शिकार होता रहता है। फिलहाल इस तरह की आलोचना ज्यादा आम हो चुकी है। क्या यह ज्यादा बेहतर स्थिति नहीं होगी कि चुनाव आयोग खुद भी इस बारे में सोचे और कोई ऐसे उपाय खोजे जाएं जिससे उसके प्रति बढ़ रही अविश्वसनीयता को खत्म या कम किया जा सके। सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर टीएन शेषन बड़े काम कर सकते थे, तो उसके बाद के आयुक्त वैसा कुछ क्यों नहीं कर सकते। बहरहाल चुनाव आयोग की ओर से जो कार्रवाइयां की गई हैं वह भी कम नहीं हैं। अगर इतना भी किया जाता रहे, तब भी उम्मीद की जा सकती है कि कुछ हो सकता है।

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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