लोकसभा चुनाव 2019 : अति आत्ममुग्धता का शिकार तो नहीं हो गया है विपक्ष
नई दिल्ली। विश्वास बड़ी चीज होती है। आत्मविश्वास को भी अच्छा माना जाता है। लेकिन आत्ममुग्धता और वह भी अति के स्तर पर दिखने लगे, तो उसे नुकसानदेह अथवा घातक तक माना जाता है। विपक्ष को लेकर फिलहाल लगने लगा है कि तीसरे स्तर यानी अति आत्ममुग्धता का शिकार हो चला है। बीते पांच वर्षों में जो कुछ भी हुआ है, उसी से वे शायद यह मान बैठे हैं कि इस आम चुनाव में लोग उन्हें खुद ही स्वीकार कर लेंगे। इसी तरह संभवतः यह समझ गए हैं कि लोग एकदम तैयार बैठे हैं विपक्ष को सत्ता सौंपने के लिए। कोई यह सोचने-समझने की कोशिश करता नहीं नजर आ रहा है कि आखिर जमीनी हकीकत क्या है और वक्त की जरूरतें कैसी हैं। क्या हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि मतदाता आंख मूंदकर हर विपक्षी पार्टी अथवा प्रत्याशी को ही वोट करने जा रहा है। जाहिर है ऐसा आमतौर पर नहीं होता है और इस बार भी शायद ऐसा हो। लोग जिन आधारों पर मतदान के बारे में तय करते हैं, उसमें यह भी देखने की कोशिश करते हैं कि क्या विपक्ष ने अपने को इसके लिए तैयार किया है अथवा नहीं।
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बीते
करीब
एक
वर्षों
के
दौरान
विपक्षी
एकता
का
बहुत
शोर
सुनाई
पड़
रहा
था।
विपक्षी
एकता
की
वकालत
करने
वालों
का
सबसे
मजबूत
तर्क
यह
था
कि
अगर
ऐसा
होता
है,
तो
भाजपा
को
आसानी
से
हराया
जा
सकता
है।
इसी
आधार
पर
कभी-कभी
यह
लगने
लगा
था
कि
2019
का
लोकसभा
चुनाव
एकजुट
विपक्ष
और
सत्तापक्ष
के
बीच
लड़ा
जाएगा।
इसी
आधार
पर
कुछ
लोगों
में
ऐसी
उम्मीदें
भी
जगने
लगी
थीं
कि
अगर
ऐसा
हुआ
तो
परिणाम
वाकई
कुछ
भिन्न
हो
सकता
है।
लेकिन
अब
जबकि
चुनाव
प्रक्रिया
की
औपचारिक
शुरुआत
हो
चुकी
है,
एक
तरह
से
साफ
हो
गया
लगता
है
कि
विपक्षी
एकता
नाम
जैसी
वैसी
स्थिति
नहीं
बन
पाएगी
जैसी
पहले
कही
जा
रही
थी।
कुछ
राज्यों
में
जरूर
कुछ
पार्टियों
में
तालमेल
हुआ
है,
लेकिन
उसे
समग्र
विपक्षी
एकता
नहीं
कहा
जा
सकता।
इतना ही नहीं, एक खास बात यह भी देखी जा रही है कुछ पार्टियों का रुख इतना सख्त है कि वे किसी भी सूरत में एक दूसरी पार्टी के साथ किसी तरह का गठबंधन न करने का ऐलान तक किए जा रही हैं। इनमें बसपा से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियां और कुछ क्षेत्रीय दल भी हैं। कारण भले ही कुछ भी हों, कांग्रेस का रुख भी कई राज्यों में अकेले ही चुनाव मैदान में जाने का है। इन्हीं परिस्थितियों के आधार पर इस तरह के आरोप लगने लगे हैं कि शायद विपक्ष खुद नहीं चाहता है कि उसकी केंद्र में सरकार बने। विपक्ष सरकार और भाजपा की बयानों में चाहे जितनी आलोचना करे, चुनाव में शिकस्त देने को लेकर या तो वह तैयार नहीं है या आध्यात्मिक तरीके से यह मानकर चल रहे हैं कि लोग खुद ब खुद उसके सिर जीत का सेहरा बांध देंगे, भले ही उन्होंने लोगों में विश्वास पैदा करने के लिए कुछ भी न किया हो।
इसके विपरीत जिस सरकार और भाजपा के खिलाफ संयुक्त लड़ाई लड़ने और हराने का संकल्प बैठकों और सभाओं में लिया जा रहा था, उसके काम करने के तरीकों, लोगों में उनकी पैठ और चुनाव जीतने की रणनीति यह बता रही है कि वह भाजपा किस तरह बड़ी जीत की गारंटी करने की कोशिश में लगी हुई है। विपक्ष की तुलना में अगर भाजपा पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि गठबंधन को लेकर उसका नजरिया एकदम स्पष्ट है। उसे किसी प्रकार का भ्रम नहीं लगता। बहुमत हासिल करने और सत्ता की गारंटी करने के लिए वह बहुत सारे किंतु-परंतु को दरकिनार कर खुद को मजबूत करने में लगी है। हालांकि उसके कुछ गठबंधन सहयोगी उसे छोड़कर जरूर जा चुके हैं,लेकिन कई को उसने साथ बनाए रखने में भी सफलता पाई है जो यह बताता है कि इस चुनाव को भाजपा कितनी गंभीरता से ले रही है। लगातार तीखी आलोचना करती रही शिवसेना, अंतिम समय में आंख दिखाने वाली दो सीटों वाली पार्टी अपना दल और साथ छोड़कर जा चुके असम गण परिषद को पाले में लाकर भाजपा यह संकेत देने में सफल रही है कि वह कहीं से कमजोर नहीं हुई है। एक और पूराने सहयोगी जेडीयू को भाजपा पहले से ही एनडीए का हिस्सा बना चुकी है। इसके अलावा, विपक्षी दलों कांग्रेस, बसपा से लेकर सपा तक के अनेक नेताओं को भाजपा में शामिल कराकर भी यह बताने की कोशिश की जा रही है कि उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है।
असल में जीत की चाहत रखना एक बात होती है और जीत की गारंटी करना दूसरी बात। फिलहाल ऐसा लग रहा है कि विपक्ष पहली स्थिति और सत्ता पक्ष दूसरी स्थिति में है। इसीलिए सत्ता पक्ष चुनाव के लिए एजेंडे तय कर रहा है और विपक्ष अलग-अलग इस काम को करने में लगा दिख रहा है। इसके अलावा, एक बात और गौर करने की है कि अगर विपक्ष वाकई यह मानता है कि बीते पांच वर्षों में सब कुछ खराब ही हुआ है, तो विपक्ष ने उन विषयों पर कितने बड़े आंदोलन किए अथवा लोगों को जागरूक बनाने के लिए क्या वे प्रभावी राजनीतिक तरीके अख्तियार किए या सिर्फ इस बात पर खुश हो लिए कि छात्रों, किसानों, दलितों और आदिवासियों ने जो बड़े आंदोलन किए, उसकी बदौलत ही मतदाता विपक्ष को वोट कर देगा। अगर ऐसी अमूर्त धारणाओं के साथ विपक्ष चुनाव में जा रहा है कि मतदाता इस सरकार और भाजपा से इतना नाराज है कि मजबूरी में विपक्ष को जिता देगा, तो इसे गलत धारणा या अति आत्ममुग्थता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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