तो राजनीतिक इस्तेमाल पर अंदर ही अंदर उबलती रही है भारत की सेना
नई दिल्ली। एक असामान्य चिट्ठी, एक बड़ी चिन्ता, एक बड़ा हंगामा। यह चिट्ठी पूर्व सैन्य वेटरन्स की ओर से लिखी गयी है और राष्ट्रपति को संबोधित है। 11 अप्रैल की तारीख चिट्ठी पर पढ़ी जा सकती है। राष्ट्रपति कार्यालय को यह चिट्ठी नहीं मिली है, ऐसी प्रतिक्रिया भी सामने आ चुकी है। चिट्ठी जिनकी ओर से लिखी गयी है उनमें से कुछेक नामों ने इस बात से इनकार किया है, एक पूर्व अधिकारी ने ऐसी चिट्ठी लिखने के लिए सहमति देने की बात कही है तो एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने इस चिट्ठी की ज़रूरत बतलायी है। मतलब ये कि चिट्ठी पर भी सेना बंटी हुई दिख रही है।
चिट्ठी में बंटी सेना वास्तव में इसी दिशा में आगे बढ़ती हुई दिख रही है। चिट्ठी के चौथे पाराग्राफ में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है कि चूके सेना का अनुशासन सैनिकों को उस स्थिति में भी बोलने की इजाजत नहीं देता जब खुद उसका नुकसान हो रहा हो, इसलिए पूर्व वेटरन्स को सामने आना पड़ा है जो वर्तमान सैनिकों से सम्पर्क में रहा करते हैं। यह बहुत बड़ी बात है। इससे पता चलता है कि सेना के भीतर भी ज़ुबान फूट पड़ने को बेताब है। यह स्थिति पैदा क्यों हुई? कौन इसके लिए जिम्मेदार है?
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कुर्बानी देने में हमेशा आगे रही है भारतीय सेना
आज़ादी के बाद से ही भारतीय सेना सीमा पर संघर्षरत रही है। कई युद्धों का देश ने सामना किया, कई उपलब्धियां सेना के खाते में हैं, अनगिनत कुर्बानियां सैनिकों ने दी हैं। कभी कोई शिकायत सेना की नहीं रही। चाहे श्रीलंका जाकर एलटीटीई से लोहा लेना पड़ा हो या यूएन की शान्ति सेना का हिस्सा बनकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में तैनाती रही हो। यहां तक कि सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध में हथियारों के मामले में कमतर रहने के बावजूद सैनिकों ने जान लड़ा दी थी, मगर कभी कोई गिला-शिकवा सामने नहीं आया। देश के भीतर भी हर आपात स्थितियों से निबटने में सेना ने संकोच नहीं दिखाया है। ऐसे में आज़ादी के 72 साल बाद ऐसी क्या परिस्थिति पैदा हो गयी है कि रिटायर्ड अधिकारी और सैनिक उनके लिए आवाज़ बुलन्द करने को मजबूर हुए हैं जो अनुशासन में बंधे रहने की वजह से बोल नहीं सकते?
जम्मू-कश्मीर की सरहदों पर तैनात सैनिकों को पाकिस्तान ही नहीं, हिन्दुस्तान की अंदरूनी परिस्थितियों से भी जूझना पड़ता है। उन्हें सीमा पार से जितना भय होता है, सीमा के भीतर भी उतना ही भय होता है। अब तो स्थिति ये है कि सैनिकों को छुट्टियों में घर जाने पर भी जान का ख़तरा है। वे केवल अपनी जान की नहीं, अपने परिवार की जान के लिए चिन्तित हो गये हैं। फिर भी इन परिस्थितियों से कोई शिकायत चिट्ठी में पढ़ने को नहीं मिली।
वेटरन
की
मानें
तो
राजनीतिक
इस्तेमाल
से
व्यथित
हैं
सैनिक
शिकायत
है
तो
इस
बात
का
कि
सीमा
पार
सैन्य
अभियानों
का
राजनीतिक
इस्तेमाल
किया
जा
रहा
है।
शिकायत
इस
बात
का
है
कि
देश
की
सेना
को
'मोदी
की
सेना'
बताया
जा
रहा
है।
पाकिस्तान
के
एफ-16
को
मार
गिराने
वाले
अभिनन्दन
की
तस्वीर
के
इस्तेमाल
और
सैनिकों
की
वर्दी
पहने
राजनीतिक
कार्यकर्ताओं
की
तस्वीर
पर
उन्हें
आपत्ति
है।
अगर बातों को और साफ तरीके से कहें तो सैनिक कभी किसी 'चौकीदार की सेना' का हिस्सा कहा जाना पसंद नहीं कर सकते। वे इस बात को भी पसंद नहीं कर सकते कि कोई कहे कि उसने सेना को खुली छूट दी। राजनीतिक नेतृत्व राजनीतिक फैसले लेता है। 'छूट' और 'बंदिश' जैसे शब्द सेना में ग्लानि का भाव पैदा करते हैं। जिस कथित छूट की बात राजनीतिक कारणों से देश के प्रधानमंत्री कहते रहे हैं क्या इस छूट के साथ भी सेना विरोधी सेना की गर्दन काट कर ला सकती है, या विरोधी सैनिकों के शव क्षत-विक्षत कर सकती है या विरोधी सैनिकों को कब्जे में लेने के बाद उसके साथ बुरा सलूक कर सकती है?- कतई नहीं। क्योंकि, सेना को पता है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मर्यादा क्या है। उसे किसी राजनेता की ओर से दी गयी कोई छूट नहीं चाहिए। सैनिकों को चाहिए निर्णय। निर्णय सेना के शीर्ष कमांडर लेते हैं और वह राजनीतिक नेतृत्व से दिशानिर्देश पाने के बाद ऐसा करते हैं।
वेटरन सैन्य अधिकारियों व सैनिकों की चिट्ठी बता रही है कि बीते दिनों में सेना का जो राजनीतिक इस्तेमाल हुआ है उससे सैनिकों के मन में कितनी व्यथा है। यह राजनीतिक इस्तेमाल सत्ताधारी दल या सरकार की ओर से ही नहीं, विरोधी दलों की ओर से भी हुआ है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सेना के भीतर भी राजनीतिक विचारों ने कुनबे खड़े करने शुरू कर दिए हैं। यह एक ऐसा पड़ाव है जहां यह सोचना बहुत जरूरी है कि विचारों की मजबूती जहां मुर्दों में भी जान फूंक देती है वहीं विचारों में बंटे होने की वजह से ज़िन्दा भी मुर्दा हो जाते हैं। सैन्य जीवन में प्रेरणा का बहुत महत्व होता है।
कहीं
चिट्ठी
पर
भी
न
शुरू
हो
जाए
सियासत
हो
सकता
है
कि
सैनिकों
की
लिखी
चिट्ठी
में
जो
नाम
हैं
उनमें
से
कुछ
कहें
कि
वो
इस
चिट्ठी
के
साथ
नहीं
हैं,
कुछ
कहें
कि
वे
चिट्ठी
के
मसौदे
से
पूर्णत:
सहमत
हैं
और
कुछ
आंशिक
सहमत
पूर्व
सैनिक
और
अफसर
भी
सामने
आएं।
ज्यादातर
लोग
सामने
नहीं
आएंगे
क्योंकि
यही
सैनिकों
का
स्वभाव
होता
है।
इसके
बावजूद
चिट्ठी
में
लिखी
गयी
बातों
को
गम्भीरता
से
लेने
की
जरूरत
है।
कहीं
ऐसा
न
हो
कि
इसे
भी
विरोधी
दलों
का
प्रोपेगेंडा
बताकर
कथित
राष्ट्रवादी
ताकतें
अपने
ही
पूर्व
अधिकारियों
और
वेटरनों
पर
'कीचड'
उछालने
शुरू
कर
दें।
मीडिया चैनलों पर आते रहे वेटरन कभी ऐसी बातें नहीं कह पाए जो आज चिट्ठी में कही गयी है। इससे पता चलता है कि मीडिया पर वही लोग आ पाते हैं जो सत्ता से सहानुभूति रखने वाले विचार रख सकें। इसका मतलब ये है कि मीडिया में ऐसे वेटरन्स में सेना का प्रतिबिम्ब देखने और दिखाने की गलती की जा रही थी। दूसरा पहलू सामने नहीं आ रहा था। यानी मुकम्मल पहलू सार्वजनिक नहीं हो पा रही थी।
सैनिकों के भीतर वैचारिक असंतोष किसी अन्य तरह के असंतोष से अधिक ख़तरनाक हैं। यह सेना की एकता और मनोबल को मजबूत करने के बजाए विखण्डित करते हैं या कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि राष्ट्रपति इस चिट्ठी का संज्ञान लें और सभी राजनीतिक दलों को ख़बरदार करें कि चुनावी रैलियों, भाषणों और चुनाव प्रचार से सेना और सैनिकों को दूर रखें।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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