मोदी-शाह की पॉलिटिक्स से यूपी-हरियाणा में खूंटे पर जाट राजनीति
नई दिल्ली। 2019 के लोकसभा चुनाव के रिजल्ट में कई किले ढह गए हैं। कई पार्टियों के राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं लेकिन इस सब के बीच एक और बड़ी अहम बात हुई वो है और वो है जाट राजनीति का 'अंत'। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में बीते पांच दशकों में जाट लगातार बड़ी राजनीतिक ताकत रहे। 2014 में भी इसे झटका लगा था लेकिन इस दफा के नतीजों के बाद लगता है कि पश्चिमी यूपी और हरियाणा में जिस तरह से राजनीति की हर छोटी-मोटी चर्चा में भी जाटों की बात होती थी, वो इतिहास हो जाएगी।
ऐसा कहने के पीछे कुछ वजह हैं, अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो सूबे में आजादी के बाद किसी ने कांग्रेस को चुनौती दी थी तो वो थे चौधरी चरण सिंह। चौधरी चरण सिंह ने सूबे में उस कांग्रेस को रोक दिया था, जिसे उस वक्त कांग्रेस बड़ी ताकत थी। 1967 में वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और फिर केंद्र में मंत्री और प्रधानमंत्री भी रहे। इसके बाद से ही जाट उत्तर प्रदेश में बड़ी ताकत रहे हैं और कोई भी राजनीतिक दल उनको नजरअंदाज नहीं कर सका। ये अलग बात है कि चरण सिंह के बाद उनके बेटे अजित सिंह की राजनीति पश्चिम के कुछ जिलों तक सिमट गई लेकिन एक पहचान बनी रही।
देखा जाए, आमतौर पर आम जाट पहचान की राजनीति करते रहे हैं। इसी का असर था कि 2014 में अजित सिंह के हारने के बावजूद मुजफ्फरनगर के सांसद संजीव बालियान और बागपत से सांसद सत्यपाल सिंह को केंद्र में मंत्री बनाया गया, जो कि दोनों जाट हैं। पड़ोस की कैराना सीट से सीनियर नेता हुकुम सिंह और लगातार दूसरी बार मेरठ से सांसद बने राजेंद्र अग्रवाल को मोदी ने कैबिनेट में जगह नहीं दी। इसे जाटों के प्रभाव के तौर पर भी देखा गया। ऐसा करने की बड़ी वजह यही हो सकती है कि जाट पुरानी पार्टी की ओर ना जाएं लेकिन अब शायद किसी को ऐसा करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि जाटों के पास अब पुरानी पार्टी का कई विकल्प है ही नहीं।
दूसरी ओर 2014 और 2017 की विधानसभा चुनाव की हार के बाद जयंत चौधरी और अजित सिंह ने पार्टी राष्ट्रीय लोकदल को संभालते हुए सपा और बसपा से गठबंधन किया। लोकसभा में तीन सीटों पर पार्टी चुनाव लड़ी और तीनों हार गई। अजित सिंह और जयंत दोनों चुनाव हार गए। अब सवाल है कि क्या जिस परिवार और पार्टी के पीछे दशकों तक जाट खड़े रहे, वो उठ पाएगी? अजित सिंह 80 साल के हो चुके हैं तो जयंत लगातार दो लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। 80 साल की उम्र में चुनाव हारने के बाद अजित सिंह के कितने सक्रिय रहेंगे, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीं खुद, मथुरा और बागपत जैसी जाटों की अच्छी तादाद वाली सीटों से लगातार दो चुनाव हारकर जयंत के लिए खुद को और पार्टी को खड़ा करना मुश्किल होगा।
राष्ट्रीय लोकदल ने सपा-बसपा से गठबंधन कर 2019 का चुनाव लड़ा, अभी फाइनल आंकड़े तो नहीं आए हैं लेकिन सामने आ रहा है कि सपा-बसपा को जाटों का वोट ट्रांसफर कराने की बात तो दूर उनके तीनों कैंडिडेट को भी जाट वोट उस तरह से नहीं मिला, जैसा मिलता रहा है। ऐसे में आगे के चुनाव में अगर वो किसी भी दल से गठबंधन करने की कोशिश करेंगे तो उनके पास दिखाने के लिए कुछ भी नहीं होगा। साफ है यूपी में जाटों की अलहदा राजनीति की पहचान अब शायद खत्म हो गई है।
हरियाणा की बात करें तो एक लंबे वक्त से राज्य की राजनीति चौटाला परिवार और हुड्डा परिवार के इर्द-गिर्द दिखती रही। 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद दोनों की परिवार कमजोर पड़ गए। ताऊ देवीलाल ना सिर्फ हरियाणा के सीएम रहे बल्कि केंद्र की राजनीति में भी उनका रोल रहा। चौटाला परिवार के बाद भूपेंद्र हुड्डा हरियाणा की राजनीति में चमके। कांग्रेस में रहने के बावजूद जाट राजनीति का उनका अपना प्रभाव रहा। अगर कहा जाए कि हरियाणा के राज्य बनने के बाद से ही वहां जाटों का राजनीति में वर्चस्व रहा जो 2014 में टूटा, 2015 में भाजपा ने गैर-जाट सीएम बनाकर इसे चुनौत दी, लेकिन कहें कि 2019 में हरियाणा की जाट राजनीति हाशिये पर चली गई है तो गलत नहीं होगा।
मौजूदा चुनाव में भूपेंद्र हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा दोनों हार गए हैं। अपनी सीटें हारने के बाद अब उनके लिए वापसी करना कितना मुश्किल होगा, ये आसानी से समझा जा सकता है। वहीं चौटाला परिवार एक तो अपनी कलह से जूझ रहा है वहीं इस चुनाव में उनको बड़ा झटका लगा है। दुष्यंत चौटाला, उनके भाई दिग्विजय चौटाला दोनों चुनाव हार गए। वहीं दो-फाड़ हुए परिवार के विधानसभा चुनाव में भी किसी चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगी। ऐसे में अगर हम कहें कि मोदी-शाह की जोड़ी के चलते यूपी -हरियाणा की जाट राजनीति के दिन लद गए तो गलत नहीं होगा।
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