इस्तीफ़ा तो जरूरी है पर राहुल कांग्रेस की मजबूरी हैं
नई दिल्ली। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव नतीजों की जिम्मेदारी ली। वे इस्तीफे के लिए भी तैयार दिखे। मगर, कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उनका इस्तीफ़ा सामने आने से पहले ही इस प्रश्न के साथ बड़ी रुकावट पैदा कर दी कि राहुल गांधी नहीं तो कौन? यह वही प्रश्न है जो लोकसभा चुनाव के दौरान देश में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के लिए उछाला था। तब 'कौन?' के जवाब में समूचे विपक्ष ने कहा था कि पहले नरेंद्र मोदी हटें, विकल्प पर बाद में चर्चा करेंगे।
कांग्रेस के भीतर भी यह आवाज़ उठ सकती थी कि पहले राहुल गांधी इस्तीफ़ा दें। बाद में पार्टी अपना नेता चुन लेगी। मगर, जैसा जनादेश नरेंद्र मोदी के लिए देश की जनता ने दिया है वैसा ही कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के लिए दिखता है। यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति लग सकती है मगर कमोबेश वही स्थिति माननी पड़ेगी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बुरा प्रदर्शन किया है- पहले तो ये बात माननी पड़ेगी। फिर इस बुरे प्रदर्शन का जिम्मेदार कौन है, इसे तय करना होगा। ज़िम्मेदारी तय कर लेने के बाद इस्तीफे की बात आती है। अब तक की स्थिति के हिसाब से राहुल गांधी ने कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन की जिम्मेदारी ली है। यूपी से राजबब्बर का इस्तीफ़ा सबसे पहले आया है जो दूसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने हार की जिम्मेदारी ली है।
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एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान में ख़राब प्रदर्शन का जिम्मेदार कौन?
यह बात हर कांग्रेसी के मन को कचोट रही है कि आखिर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ख़राब प्रदर्शन के लिए तीनों मुख्यमंत्री आगे आकर जिम्मेदारी क्यों नहीं ले रहे हैं? कांग्रेस विरोधी पंजाब में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का सेहरा राहुल गांधी को नहीं देते। वे कैप्टन अमरिन्दर सिंह को देते हैं। फिर यही बात इन राज्यों में लागू क्यों नहीं होती? केरल में अच्छे प्रदर्शन का सेहरा किसके माथे बांधा जाए, यह भी अहम सवाल है।
नैतिकता यही कहती है कि राहुल गांधी को इस्तीफ़ा देना चाहिए। मगर, व्यावहारिकता ऐसा करने से रोकती है। राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष पद सम्भाले 18 महीने हुए हैं। इस दौरान मरणासन्न कांग्रेस में जान फूंकने की उन्होंने कोशिश की। आखिर उनके मुकाबले दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी और दुनिया के सबसे बड़े लीडर के तौर पर प्रॉजेक्ट किए जा रहे नरेंद्र मोदी हैं। लिहाजा चुनौती आसान नहीं थी। उन्होंने कुछ सफलताएं भी कांग्रेस के लिए हासिल कीं। मगर, बड़ी परीक्षा में खरे नहीं उतरे। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने मेहनत में कोई कसर छोड़ी हो। नरेंद्र मोदी से अधिक रैली और रोड शो उन्होंने किए। नारों से लेकर मुद्दों तक में लगातार वे बीजेपी और मोदी को ललकारते दिखे। फिर भी वो जादू पैदा नहीं कर सके, जो नरेद्र मोदी ने कर दिखाया। मोदी के सामने पराजित हुए हैं राहुल गांधी। कांग्रेस को तय करना है कि वह इस्तीफे की नैतिकता को आगे बढ़ाएं या कांग्रेस के लिए राहुल गांधी की जरूरत का सम्मान करें।
कौन हो सकते हैं राहुल का विकल्प
कांग्रेस की जरूरत हैं राहुल गांधी, इससे इनकार नहीं किया सकता। मगर, विकल्प खोजना बंद कर दें यह भी कांग्रेस की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। सवाल है कि आखिर विकल्प कौन हो, कहां से आए। एक बात साफ है कि पंजाब और केरल छोड़कर कहीं से कांग्रेस के लिए विकल्प बनता नहीं दिखता। जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी आजाद अपनी सीट नहीं जीत पाए, तो दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश में हार गये। अशोक गहलोत अपने बेटे को नहीं जिता सके, तो बघेल भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को कोई रिटर्न गिफ्ट नहीं दे पाए। यहां तक कि कर्नाटक के मल्लिकार्जुन खड़गे भी चुनाव हार गये। पंजाब से कैप्टन अमिरन्दर सिंह और केरल से एके एंटनी ही दो ऐसे नाम हैं जो कांग्रेस का नेतृत्व करने की क्षमता रखते दिखते हैं। सवाल यही है कि क्या कांग्रेस इन दो में से किसी एक नाम के साथ बढ़ना चाहेगी?
यूपीए के घटक दलों पर भी बढ़ेगा दबाव
एक प्रश्न और है जिस पर कांग्रेस को राहुल से इस्तीफा लेते समय गौर करना चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, एनसीपी जैसी पार्टियां भी चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी हैं। ये सभी यूपीए के सहयोगी दल हैं। क्या इन दलों के प्रमुखों पर भी राहुल के इस्तीफों का असर नहीं पड़ेगा? देश में यूपीए से अलग जो क्षेत्रीय दल हैं और जिन्होंने अच्छा प्रदर्शन चुनाव के दौरान नहीं किया है उन दलों के प्रमुखों पर भी इस्तीफ़े का दबाव है। राहुल गांधी के इस्तीफे से उन पर दबाव बढ़ जाने वाला है। क्या वाकई इस दबाव को बढ़ाने की ज़रूरत है? क्या कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष में इससे जान आ जाएगी? यह सोचने समझने की बात है।
अखिलेश, ममता पर भी बढ़ेगा दबाव
राहुल गांधी इस्तीफा देते हैं तो अखिलेश यादव पर भी इसका असर पड़ेगा। मायावती से आप ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते। उनके पास 10 सीटें जीतने का और गर्व करने की वजह भी है। मगर, ममता बनर्जी को क्यों नहीं हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए? क्यों नहीं उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देते हुए सामने आना चाहिए? प्रश्न वहां भी वही है कि ममता का विकल्प कौन है? अगर राहुल, ममता, अखिलेश, तेजस्वी या अन्य नेताओं के विकल्प इन दलों में नहीं हैं तो इसके लिए भी यही नेता जिम्मेदार हैं। आप कैसे नेता हैं कि आपका विकल्प ही नहीं है! प्रश्न अपनी जगह ठीक है। मगर, वास्तविकता भी यही है। इन नेताओं के बगैर ये पार्टिय़ां दो कदम चलने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में क्या राहुल और दूसरे नेताओं के लिए इस्तीफ़ा तो जरूरी लगता है मगर ये नेता अपने-अपने दलों के लिए मजबूरी लगते हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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