Lok Sabha Election Results 2019: जीत बड़ी होगी, तो हार छोटी कैसे होगी?
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद हार और जीत को लेकर चुनाव विश्लेषकों से लेकर आम लोगों तक में एक खास तरह का अतिरेक देखने को मिल रहा है। जीत के समर्थकों और प्रशंसकों को वह सारा कुछ अच्छा लग रहा है जो जीतने वाली पार्टी और गठबंधन ने चुनाव से पहले और चुनावों के दौरान किया तथा जिसकी उम्मीद नई सरकार बनने के बाद वे कर रहे हैं। एक-एक दांव पर वे फूले नहीं समा रहे हैं और लगता है जैसे बखान के लिए उनके पास शब्द कम पड़ते जा रहे हैं। वो जो उनके अंतरमन में है और कह नहीं पा रहे हैं, उसे भी किसी न किसी रूप में व्यक्त कर देना चाह रहे हैं ताकि भविष्य के लिए कुछ बच न जाए और मन में किसी तरह की ग्लानि न रह जाए कि यह बात कह देने वाला मैं पहला क्यों नहीं हो सका।
कुछ लोग हार पर आगबबूला
कुछ इसी तरह का हाल हार से दुखी-परेशान होने वालों का भी है। जिसकी समर्थक-प्रशंसक पार्टी और जिनको लेकर उम्मीदें थी, उनकी हार पर वे इतना आगबबूला लग रहे हैं कि कुछ भी कह डालने से परहेज नहीं कर पा रहे हैं। उनके मनोभाव, हावभाव और बयानों से साफ लग रहा है कि सारी की सारी गलतियां-कमजोरियां हारने वाली पार्टी, उसके नेता और उन लोगों का है जिनके ऊपर जीत दिलाने का जिम्मा था। किसी ने किसी पार्टी के लिए कह दिया कि उस पार्टी को ही खत्म कर दिया जाना चाहिए। कोई इस्तीफा मांग रहा है, कई लोग इस्तीफा दे रहे हैं। कई लोग आपस में ही एक दूसरे से लड़-झगड़ रहे हैं, तो कुछ सार्वजनिक रूप से पार्टी और नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराते हुए आलोचना में लग गए हैं। एक तरह का ऐसा माहौल बन गया है जैसे चुनावों में हर कोई केवल जीतता ही है और हारता कोई नहीं और यह पहली बार हो रहा है कि इतनी बड़ी जीत अथवा इतनी बड़ी हार हुई है। इसी चुनाव परिणाम के आधार पर ही ऐसे लोग और विश्लेषक सब कुछ फाइनल कर लेना चाहते हैं और यह स्थापित कर देना चाहते हैं अब भूतो न भविष्यत। बाद के लिए कुछ भी नहीं छोड़ना है ताकि कोई भविष्य में कुछ कह न सके।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हमेशा चुनावों के परिणाम कुछ के पक्ष में और कुछ के विपक्ष में आते हैं। यह अंतर छोटा-बड़ा हो सकता है। लेकिन इससे न किसी को बहुत इतराने और न किसी को कोमा में चले जाने की जरूरत होती है। लोकतंत्र का यही तकाजा होता है। हर कोई अपने तरीके से चुनावों में जाता है और फिर मतदाता उसके बारे में राय बनाते तथा फैसला देते हैं जो सभी को शिरोधार्य होता है और होन भी चाहिए। उसके बाद बचता है अपने किए का विश्लेषण करना और उससे निकलने वाले निष्कर्षों के आधार पर भविष्य के बारे में योजना बनाना और फिर उस पर अमल करना। यह प्रक्रिया दोनों पक्षों के लिए ही समान रूप से अपेक्षित होती है। लेकिन देखने में यह आता है कि इसका कोई भी पक्ष पालन या तो नहीं करता या तो केवल दिखावे के लिए करता है। जीत गए पक्ष को शायद यह जरूरत ही नहीं महसूस नहीं होती कि उसे भी खुद के बारे में कुछ सोचने की जरूरत रह गई है क्योंकि वह तो यही मान लेते हैं कि उनके पास जनादेश है जिसके बाद कुछ भी सोचने-विचारने की जरूरत नहीं बचती। जीतने वालों के समर्थकों और प्रशंसकों के साथ भी यही स्थिति होती है।
हारने वाले को देना होता है जवाब
हारने वालों के लिए यह एक तरह की मजबूरी होती है क्योंकि उनको जवाब देना होता है और इसकी शुरुआत ही वे यहीं से करते हैं कि हम जल्दी ही बैठकें और विचार करेंगे कि कहां-क्या कमियां रह गईं और फिर उन्हें दूर करने में लगेंगे। उनके भी समर्थकों के साथ यही होता है कि वे मानकर चलने लगते हैं कि उनका नेतृत्व जरूर सोचेगा और फिर क्या करना है तय करेगा। तब तक उनके पास इसके अलावा कुछ भी समझने के लिए नहीं बचता कि आखिर उन्हें भी कुछ करना है अथवा नहीं। इन हारने वालों के शुभचिंतक भी अपने तरह के होते हैं जो इतने दुखी-परेशान होते हैं कि बड़ी-बड़ी गलतियां गिनाने और सुधार के लिए सलाह देने लगते हैं जिनमें से अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रख पाते।
क्या
यह
देखने
और
समझने
की
बात
नहीं
होती
है
कि
चुनावों
में
अंतिम
रूप
से
सब
कुछ
मतदाता
होता
है
जो
किसी
की
भी
और
कैसी
भी
हार-जीत
तय
करता
है।
उसके
बाद
किसी
के
लिए
बहुत
कुछ
नहीं
बचता
सिवाय
उसे
स्वीकार
करने
कर
लेने
के।
लेकिन
हो
यह
रहा
है
कि
जीतने
वालों
की
बल्ले-बल्ले
और
हारने
वालों
में
लट्ठम-लट्ठ।
इस
चुनाव
और
परिणामों
में
कुछ
चीजें
जरूर
ऐतिहासिक
हुई
हैं
लेकिन
किसी
को
यह
भी
नहीं
भूलना
चाहिए
कि
उससे
पहले
भी
कुछ
इतिहास
बने-बिगड़े
हैं,
तभी
इतिहास
बनने
की
गुंजाइश
बची
है।
इसी
तरह
इसे
भी
नजरंदाज
किया
जाना
चाहिए
कि
इतिहास
कभी
रुकता
नहीं
और
आगे
भी
नए
इतिहास
बन
सकते
हैं।
झारखंड: इस चुनाव में कई गढ़ ढहे, कई मिथक टूटे
कई पार्टियां आई गईं
इस देश में कितनी पार्टियां आईं और गईं, कितने मोर्चे और गठबंधन बने और बिगड़े, कितनी सरकारें आईं और गईं। उनकी भी हार-जीत हुई थी और इस चुनाव में भी कमोबेश ऐसा हुआ है और आगे भी जरूर होगा। इसलिए चुनाव परिणामों के बाद नाराजगी, गुस्से और उत्तेजना में कुछ भी कहने-करने का कोई मतलब नहीं होता। यह दोनों ही पक्षों के लिए सोचने-समझने की बात होती है। चीजों को समग्रता में देखने, समझने और करने की आवश्यकता होती है जिसका एक तरह से अभाव दिख रहा है। इसे किसी भी तरह से लोकतंत्र और शांति-सद्भाव के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है। हर किसी को यह समझना चाहिए कि जब जीत बड़ी होगी, तो हार भी बड़ी होगी। उसमें किसी एक को दोष देने से नहीं चलने वाला है।
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(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)