क्या चुनावी राजनीति के बारे में नए सिरे से सोचने का वक्त नहीं आ गया है?
नई दिल्ली। चुनाव के पहले सारी राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए सोच रही थीं। चुनाव परिणाम आने के बाद कमियों और उपलब्धियों के बारे में सोच रही हैं। यह भी विचार कर रही हैं कि क्या नहीं करना चाहिए था और अब क्या करना चाहिए। राजनीति को जानने-समझने वालों के साथ भी यही हो रहा है। इसमें सभी शामिल हैं। जो जीत गए उन्हें भी और हार गए वे भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जीत के बाद विभिन्न सार्वजनकिक कार्यक्रमों में इसी बात पर जोर दिया कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।
आगामी विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की जा सके
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कहा कि निराश होने की जरूरत नहीं है। हम जरूर जीतेंगे। बताया जाता है कि उन्हें कई बातों का अफसोस भी है जिसमें एक यह भी है कि वह नहीं चाहते थे कि नेताओं के बेटों को टिकट दिया जाए, लेकिन नेतागण इसके लिए दबाव बनाते रहे। इस्तीफे की पेशकश को लेकर भी कई तरह की बातें हैं। इसके अलावा भी बहुत कुछ कहा जा रहा है। ममता बनर्जी ने भी कहा कि वह इस्तीफा देना चाहती थीं लेकिन नेताओं ने ऐसा नहीं करने दिया। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने तो अपना पूरा गुस्सा प्रवक्ताओं पर ही उतार दिया और पूरी कमेटी को ही बर्खास्त कर दिया। अब नेताओं-कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर प्रचार करने के लिए कह रहे हैं ताकि आगामी विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की जा सके।
क्या चुनौतियां हैं और उनसे वे कैसे निपटेंगे
ये कुछ एक उदाहरण हैं। अन्य पार्टियों में भी इसी तरह का कुछ हो रहा है, चाहे वह विजयी रही हों अथवा हारी हों। इसमें डीएमके प्रमुख स्टालिन से लेकर एनसीपी प्रमुख शरद पवार और अरविंद केजरीवाल तक शामिल हैं। इन पार्टियों के समर्थक और विरोधी भी इन सभी के बारे में अपनी राय रख रहे हैं। जिसको जो समझ में आ रहा है, वह वही कह रहा है। उसे समय औऱ परिस्थिति का भी ध्यान नहीं लगता और इस पर भी कोई साफ सोच नजर नहीं आती कि उसकी सलाह कितनी प्रासंगिक और व्यावहारिक है। इस विमर्श में उनको छोड़ा जा सकता है जिन्हें अपार जीत और बहुत बड़ा जनसमर्थन मिला है। जाहिर है जिस आधार उन्हें यह सब मिला है, उसके अनुरूप वे अगले पांच साल तक काम करेंगे। इसके बावजूद कई लोग उन्हें भी सलाह दे ही रहे हैं कि अब उनके समक्ष क्या चुनौतियां हैं और उनसे वे कैसे निपटेंगे।
अगर कुछ हुआ भी तो उसे रस्मी ही कहा जा सकता है
दूसरी महत्वपूर्ण है कि जो हार गए हैं वह क्या करते हैं। अब जैसे पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार और विपक्ष के सफाए के बाद कम से कम सत्ता विरोधी विचार वालों को यह लग रहा था कि अगर सरकार जनहित की अनदेखी करती है, तो उसके खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा किया जाएगा। कुछ इसी तरह तब भी लोगों ने उम्मीदें की थीं जब उत्तर प्रदेश में दो मुख्य विपक्षी पार्टियों सपा और बसपा को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था। तब भी लोगों में यह आशा थी कि आने वाले दिनों में यह दोनों पार्टियां अपने मतों की रक्षा और प्रदेश की जनता के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए कुछ जरूर करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। इस दौरान अगर कुछ हुआ भी तो उसे रस्मी ही कहा जा सकता है। ये दो उदाहरण हैं।
‘उधो का लेना न माधो का देना वाला’
ऐसा नहीं है कि अन्य पार्टियों ने अपने यहां कुछ अलग किया हो। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी शायद यह मानकर चल रही थीं उनका किला अभेद्य है जिसमें कोई सेंध नहीं लगा सकता। ओडिशा में भी संभवतः इसी तरह की मानसिकता काम करती लगती है कि यहां नवीन बाबू का ‘उधो का लेना न माधो का देना वाला' फार्मूला चलता रहेगा। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में भी कांग्रेस ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली थी और हमेशा की तरह इस बार भी मान लिया था कि सब कुछ ठीक है, कुछ करने की जरूरत नहीं है। लोग उन्हीं को वोट देंगे। यही हाल दिल्ली में आम आदमी पार्टी के अरविंद क्जरीवाल का भी लगता है। बिहार में आरजेडी और तेजस्वी यादव को भी निश्चित रूप से यह मुगालता रहा होगा कि नीतीश कुमार ने इतनी बड़ी गलती की है कि लोगों के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचता कि वे उन्हें और उनके गठबंधन को वोट दें।
कोई मतदाताओं की समझ को कोस रहा है, तो कोई अपनी ही पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को
देखने की बात यह है कि क्या भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी कुछ सी तरह सोच रहे थे और कर रहे थे। बहुत सतही तरीके से भी सोचें तब भी यह पता चलता है कि इन तीनों ने हर स्तर पर अथक परिश्रम किया और जीत की गारंटी के लिए दिन-रात एक कर दिया। इसके लिए जो भी संभव था वह किया। कहा जा सकता है कि आखिर विपक्ष ने भी तो क्या नहीं किया। प्रचार भी किया, रोड शो भी किया, सरकार की कमियां और अपनी अच्छाइयां भी बताई। अपने मतदाताओं की गोलबंदी की भी कोई कम कोशिश नहीं कि। इसके बावजूद उन्हें क्यों करारी हार का सामाना करना पड़ा। यही वह सवाल है जिसका जवाब खोजने की जरूरत है। लेकिन यह परंपरागत फार्मूलों के आधार पर नहीं खोजा जा सकता जैसा कि फिलहाल किया जा रहा है। कोई मतदाताओं की समझ को कोस रहा है, तो कोई अपनी ही पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को और कोई विजयी पार्टी को। यह सोचने-समझने की शायद ही कोई कोशिश कर रहा हो कि क्या यह वक्त और परिस्थितियां भी पहले जैसी ही हैं अथवा उसमें कोई ऐसा बदलाव आ चुका है कि अब पुराने फ्रेम वाली राजनीति से काम चलने वाला नहीं है। कोई भी विचार जब यहां से शुरू किया जाएगा, तो संभव है भविष्य के लिए कोई ऐसा सूत्र मिल सके जिसके आधार पर भावी राजनीति की रूपरेखा तैयार की जा सके।
थोड़ा सा इतिहास को खंगालने और थोड़ा सा वर्तमान का मंथन करने की आवश्यकता
ऐसे में सबसे पहले थोड़ा सा इतिहास को खंगालने और थोड़ा सा वर्तमान का मंथन करने की आवश्यकता है। यह ध्यान में रखते हुए कि भारतीय राजनीति कभी एक जैसी नहीं, यह देखना होगा कि क्या भविष्य में भी एक जैसी रह सकती है। अगर जवाब नहीं में निकलता है तो भी अब इससे काम नहीं चलने वाला है कि जो जीता है उसे भी एक दिन हारना ही है और तब हमारी ही जीत होनी है। केंद्र और राज्यों में कांग्रेस हारी है तो भाजपा को सत्ता मिली है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस हारी तो कम्युनिस्टों को सत्ता मिली। फिर कम्युनिस्ट हारे तो टीएमसी को सत्ता मिली। अब टीएमसी हार रही है तो भाजपा को सत्ता मिल रही है। दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराकर आम आदमी पार्टी ने सत्ता हासिल की। कभी असम में असम गण परिषद में आई थी। तब वहां एक तरह से छात्रों की सरकार बन गई थी। जनता पार्टी और जनता दल की भी सरकारे बनी थीं। लेकिन यह सब इतनी आसानी से कभी नहीं हुआ न होगा। इसीलिए इन ऐतिहासिक तथ्यों का नए सिरे से विश्लेषण करना होगा। यह भी याद रखना होगा कि भारतीय राजनीति के तमाम उदार-चढ़ावों में मंडल-कमंडल ने बड़ी भूमिका अदा की थी। उसके बाद देश की पूरी राजनीति एकदम से बदल गई थी। ऐसा लगता है कि अब भारतीय राजनीति एक ऐसे मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है जहां से पुराने तरीकों से शायद काम चलने वाला नहीं है। इसीलिए राजनीतिक हलकों में इसको लेकर भी चर्चा तेज हो रही है कि अब हार पर इस्तीफा देने-दिलाने से आगे बढ़कर यह सोचने की ज्यादा जरूरत है कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे इन हालात से पार पाया जा सकता है। जाहिर है परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल हैं लेकिन रास्ता तो इसी के बीच से निकालना होगा। सवाल है कि क्या विपक्ष इसके लिए खुद को तैयार कर सकता है।