इंडिया गेट से: राष्ट्रपति चुनाव में राजनीति और नैतिकता
पचास साल पहले समाचार पत्रों में राजनीतिक शब्द का इस्तेमाल दिखाई नहीं देता था। अलबत्ता राजनैतिक शब्द का इस्तेमाल होता था। इस शब्द के भीतर नैतिक जुड़ा हुआ है जो खास मायने रखता है। तब सार्वजनिक जीवन के माध्यम से राज-काज की नीति से जुड़ने वाले लोगों का व्यक्तिगत जीवन भी नैतिकता भरा होता था जिसकी झलक राजनीति में भी मिलती थी।

जैसे-जैसे राजनीति से नैतिकता गायब होती गयी, राजनीति से जुड़े लोग राजनैतिक नहीं रह गए अलबत्ता राजनीतिक और राजनीतिज्ञ हो गए। अब राजनीति पूरी तरह नैतिकता विहीन हो गई है, इसलिए समाचार पत्रों में अब राजनैतिक शब्द गायब हो गया है।
पिछले पचहतर साल में भारतीय राजनीति में आई गिरावट के सबूत भी मिले हैं। महाराष्ट्र विधान परिषद के चुनाव में वोट डालने के लिए एक मंत्री और एक पूर्व मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इजाजत नहीं दी। लेकिन क्या पचहतर साल पहले किसी ने कल्पना की होगी कि जेल में जाने के बावजूद कोई संवैधानिक पद पर रह सकता है ?
अब राष्ट्रपति पद का चुनाव सर पर है, और उन जैसे कई वोटर जेलों में हैं। अगर उन्हें वोट डालने की इजाजत मिल जाती है , जैसा कि पहले भी मिलती रही है, तो कई अहम सवाल खड़े होते हैं। संविधान और हमारी क़ानून व्यवस्था उन सब को वोट डालने, चुनाव लड़ने और यहाँ तक कि मंत्री बनने का अधिकार भी देती है , जिन पर मुकद्दमें लंबित हों। क्योंकि हम यह मानते हैं कि कोई भी अभियुक्त तब तक निरपराध है , जब तक क़ानून से उसे सजा नहीं मिल जाती।
निचली अदालत से सजायाफ्ता भी ऊपरी अदालत से स्टे ले कर चुनाव लड सकते हैं। यह शर्त राष्ट्रपति पद के निर्वाचन तक नहीं लगाई गई है कि उम्मीदवार पर कोई मुकद्दमा दायर न हो , उस पर कोई चार्जशीट न हो। चुनाव लड़ने की जो शर्तें लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने की हैं , वही शर्तें राष्ट्रपति चुनाव की भी हैं।
बुद्धिजीवी वर्ग अब यह सोचने को मजबूर है कि क्या राष्ट्रपति के चुनाव की नई शर्तें रखकर प्रक्रिया में भी बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। जैसे इस तरह की शर्तें रखी जा सकती हैं कि उम्मीदवार पढ़ा लिखा हो, किसी भी अदालती मुकदमे में सजा याफ्ता न हो,कोई भी मुकदमा लंबित न हो, अपराधियों को पनाह देने के दस्तावेजी सबूत किसी अदालत में कभी पेश न हुए हों, पिछले दस साल तक किसी राजनीतिक दल का सदस्य न रहा हो।
इन शर्तों के साथ राष्ट्रपति का चुनाव भी अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह सीधे जनता की ओर से किए जाने का प्रावधान किया जा सकता है। और राष्ट्रपति के निर्वाचन मंडल पर ये सभी शर्तें लागू हों। हमारे संविधान निर्माता तो दूरदृष्टि वाले थे, लेकिन उन्हें पचास-साठ साल बाद ही भारतीय राजनीति में होने वाली गिरावट का आभास नहीं हुआ।
क्या यह देश का दुर्भाग्य नहीं कि हमारे राष्ट्रपति का चुनाव करने वाले मतदाताओं में से दर्जनों तो इस समय जेलों में हैं, दर्जनों जमानत पर हैं और दर्जनों चार्जशीटेड हैं। संविधान निर्माताओं ने यह भी प्रावधान नहीं किया कि इन सब सांसदों-विधायकों को राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने से रोका जा सके। संभवतः आजादी के समय भारतीय राजनीति नैतिकता पर आधारित थी इसलिए आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले संविधान निर्माताओं ने ऐसे समय की कल्पना ही नहीं की थी, जब हमारे राष्ट्रपति का चुनाव अपराधियों, हत्यारों, बलात्कारियों, उपद्रवियों, भ्रष्टाचारियों के हाथ में आ जाएगा।
अब समय आ गया है कि कम से कम राष्ट्रपति चुनाव के लिए हमें कानून-कायदे बदलने चाहिए। भारत के राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तरह दिखने लगा है, जिसमें व्यक्तिगत आचरण-व्यवहार भी चुनावी मुद्दा बनता है। ऐसा दो बार सार्वजनिक तौर पर हो चुका है। पहली बार 1969 में , जब नीलम संजीव रेड्डी पर चारित्रिक आरोप लगाए गए थे , और दूसरी बार 2007 में , जब प्रतिभा पाटिल के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे।
अमेरिका में अगर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के व्यक्तिगत या पारिवारिक आचरण के बारे में विस्फोटक खुलासे होते हैं तो मतदाता उसी के आधार पर अपने मतदान का फैसला करता है। लेकिन भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में मतदाता राजनीतिक दलों के सांसद और विधायक ही होते हैं, इसलिए वह मोटे तौर पर अपनी पार्टी के दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं।
हमारे सामने एक ही उदाहरण ऐसा मिलता है जब उम्मीदवार का एलान होने के बाद उसके व्यक्तिगत आचरण से जुड़ी बातें मतदाताओं के सामने रखकर उनका मन बदलने की सफलता पूर्वक कोशिश हुई थी। आज भले ही हमको ऐसा लगता हो कि राष्ट्रपति का चुनाव बेहद कड़वाहट भरा और पद की गरिमा के प्रतिकूल हो गया है, लेकिन 1969 के चुनाव में प्रचार का स्तर इससे भी नीचे गिर गया था और उस समय राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के चरित्र को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने आरोप लगाए थे।
चुनाव हारने के बाद नीलम संजीव रेड्डी ने उनके खिलाफ बंटे पर्चों को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट में वीवी गिरि के निर्वाचन को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का एक पैराग्राफ उस पर्चे की गंभीरता को समझने के लिए काफी है।
फैसले के सैतालीसवें पैराग्राफ में कहा गया - "सवाल खड़ा होता है कि क्या इस पेंफलेट को मतदाताओं को प्रभावित करने में सक्षम माना जा सकता है ? हमें इसमें कोई शक नहीं है कि यह इस परिभाषा के दायरे में आता है। इस पेंफलेट को विस्तार के साथ फिर से पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि इससे हम इस आपत्तिजनक पेंफलेट को और प्रचारित करेंगे। पेंफलेट में सेक्सुअल अनैतिकता से जुड़ी अनेक काल्पनिक घटनाओं का जिक्र करते हुए नीलम संजीव रेड्डी को विलासी करार दिया गया है। फिर यह पेंफलेट पूछता है कि क्या सर्वोच्च पद के लिए ऐसे व्यक्ति को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस की गरिमा इतनी गिरानी चाहिए थी ? इस पेंफलेट में आगे कहा गया है- एक वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद ने आशंका जाहिर की कि अगर संजीव रेड्डी राष्ट्रपति बने तो वह राष्ट्रपति भवन को हरम, दुराचार और अनैतिकता का केंद्र बना देंगे।"
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वी.वी. गिरी को निर्दलीय उम्मीदवार बना कर कांग्रेसी सांसदों और विधायकों को आत्मा की आवाज से वोट देने की अपाल की थी। इस पेंफलेट ने नीलम संजीव रेड्डी को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह अलग बात है कि 1978 में बदले की भावना के तहत इंदिरा गांधी के विरोधी मोरारजी देसाई ने नीलम संजीव रेड्डी को सातवें राष्ट्रपति के तौर पर फिर उम्मीदवार बनाया और इंदिरा गांधी ने खुद उनका समर्थन किया।
राजनैतिक से राजनीतिक होने का सफर स्वतंत्रता के बाद से चल रहा है। यह देश की राजनीति और राजनीतिज्ञों को आगे कहां ले जाएगा, यह मौजूदा चुनाव के बाद बुद्धिजीवियों के चिंतन मनन का विषय होना चाहिए।
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