किरेन रिजिजू ने खोल दी नेहरूवादियों की झूठ की पोल
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और भारत में कश्मीर के विलय, इन दो महत्त्वपूर्ण विषयों को लेकर देश को सच्चाई से दूर रखने की दशकों तक कोशिशें होती रहीं। बहुत से तथ्य छुपाए गए, जिन्हें लेकर बाद की सरकारों ने कई विस्फोटक खुलासे किए।
पहले अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में और बाद में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में सुभाष चन्द्र बोस को लेकर कई तथ्य उजागर किए गए, जिनसे पुरानी धारणाएं टूटी हैं और जवाहर लाल नेहरू पर सवाल खड़े हुए हैं।
कश्मीर को लेकर नेहरू के रुख पर प्रश्न उठते रहे कि उनकी वजह से ही कश्मीर का मसला विवादास्पद बना। उन्होंने ही विलय में देरी की, उन्होंने ही कबायली हमले के समय महाराजा हरिसिंह की गुजारिश के बावजूद फ़ौज भेजने में देरी की, वही कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ ले गए, और उन्होंने ही संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ कर कश्मीर का भारत में वास्तविक विलय नहीं होने दिया। लेकिन यह सारी बातें आरएसएस और भाजपा के लोग ही कहा और लिखा करते थे। हालांकि एक समय समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने भी इन्हीं बातों को उठाया था।
दूसरी तरफ वामपंथी इतिहासकारों और सेक्यूलर मीडिया ने जवाहर लाल नेहरू का लगातार बचाव करते हुए महाराजा हरीसिंह को ही खलनायक बनाया हुआ था कि वही कश्मीर का भारत में विलय नहीं करना चाहते थे। कांग्रेसी और वामपंथी अक्सर ये सवाल उठाते रहे है कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय पर फैसला लेने में इतनी देर क्यों की। उनका तर्क रहा है कि महाराजा कश्मीर का भारत में विलय नहीं करना चाहते थे, 26 अक्टूबर 1947 को भी महाराजा हरि सिंह ने मजबूरी में भारत के साथ विलय पत्र पर साइन किए थे।
उनका तर्क यह भी है कि महाराजा हरि सिंह अपने राज्य को ना तो भारत में मिलाना चाहते थे और ना ही पाकिस्तान में। उनके दिमाग में ये खयाल था कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच आजाद मुल्क की हैसियत से रहेंगे। वह जम्मू-कश्मीर को स्विटजरलैंड की तरह खूबसूरत देश बनाना चाहते थे।
कांग्रेसियों का इस तरह का एकतरफा प्रचार महाराजा हरिसिंह के खिलाफ चलता रहा है। इस बीच एक तथ्य यह भी सामने आया कि जवाहर लाल नेहरू के अत्यंत करीबी लॉर्ड माउंटबेटन 18 जून 1947 को श्रीनगर उनसे मिलने गए थे। उन्होंने महाराजा को पाकिस्तान में विलय का सुझाव दिया था, और उनकी कश्मीर यात्रा के दौरान चार दिन में फैसला करने को कहा था। लेकिन उसके बाद महाराजा हरिसिंह उन से नहीं मिले। वह माउंटबेटन को चार दिनों तक टरकाते रहे। अलबत्ता महाराजा के मंत्री काक जरूर माउंटबेटन से मिले, लेकिन काक ने भी साफ जवाब नहीं दिया।
बाद में 14 नवंबर 1946 को ब्रिटिश रेजिडेंट ने जो रिपोर्ट भेजी, उसमें लिखा था कि महाराजा हरि सिंह आजाद मुल्क के तौर पर ही बने रहना चाहते हैं। इसी से यह बात लिखी और क वह अब कुछ ऐसे तथ्य सामने ला रहे हैं, जो अब तक महाराजा हरिसिंह के बारे में बनाई गई धारणा को तोड़ते हैं।
उन्होंने तथ्यों के आधार पर लिखा है कि नेहरु ने कश्मीर के विलय के मसले को सरदार पटेल के हवाले करने की बजाए खुद देखने का फैसला किया था। किरेन रिजिजू ने एतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर नेहरू की पांच गलतियाँ गिनाते हुए एक लेख लिखा है।
पहली गलती का जिक्र करते हुए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के संसद में 24 जुलाई 1952 को दिए गए भाषण का उल्लेख किया, जिसमें नेहरू ने खुद कहा कि महाराजा हरी सिंह ने आज़ादी से एक महीना पहले जुलाई 1947 में ही भारत में शामिल होने के लिए कांग्रेस से संपर्क किया था, लेकिन विलय को अंतिम रूप देने की बजाए नेहरू ने खुद अपने इसी भाषण में कहा कि वह महाराजा हरीसिंह के अलावा वहां के लोकप्रिय संगठन नेशनल कांफ्रेंस और उनके नेताओं के संपर्क में थे। हमने दोनों से कहा कि कश्मीर एक स्पेशल केस है, इसलिए कुछ भी जल्दबाजी में नहीं करना चाहिए।
नेहरू लगातार शेख अब्दुल्ला के संपर्क में थे, जिन्होने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ गद्दी छोडो आन्दोलन शुरू किया हुआ था। किरन रिजीजू संसदीय दस्तावेजों के आधार पर तथ्य सामने लेकर आए हैं। वैसे इसका जिक्र खुद शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार में भी किया था।
नेहरू ने शर्त रखी थी कि विलय से पहले महाराजा जम्मू कश्मीर की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दें। नेहरू को लगता था कि शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर की आवाज हैं, इसलिए वह विलय से पहले उनके माध्यम से जनता की सहमति चाहते थे। आखिर क्यों नेहरू कश्मीरी जनता की सहमति चाहते थे, जबकि किसी अन्य रियासत के मामले में तो ऐसा नहीं हुआ था।
इसका जवाब माउंटबेटन के सुझाव में दिखाता है। माउंटबेटन ने महाराजा हरिसिंह को पाकिस्तान में विलय का सुझाव दिया था, क्योंकि जम्मू कश्मीर की ज्यादा आबादी मुस्लिम थी। तो क्या नेहरू और माउंटबेटन आपस में मिले हुए थे। क्या नेहरू भी चाहते थे कि जम्मू कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो? नेहरू ने खुद विलय में देरी की और मामले को उलझा दिया, जो हमेशा के लिए भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया।
महाराजा हरिसिंह जब जम्मू कश्मीर का भारत में विलय करने को तैयार थे, तो नेहरू ने विलय से पहले शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपने की शर्त क्यों रखी? किरन रिजीजू ने अब वे सारे दस्तावेज जनता के सामने रख दिए हैं, जो नेहरू की कश्मीर की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपने की सारी साजिश को उजागर कर रहे हैं।
26 अक्टूबर 1947 को नेहरू ने जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री एमसी महाजन को विलय कैसे हो, इस संबंध में एक चिठ्ठी लिखी थी कि महाराजा को किस तरह विलय करना है, इस प्रारूप में ही दूसरे प्वाईंट में लिखा है कि महाराजा की ओर से किया गया विलय "प्रोविजनल" होगा, जो अंतत: जनता की राय पर आधारित होगा और जनता की राय क़ानून व्यवस्था कायम होने के बाद ली जाएगी। इसी प्रोविजनल को आधार बना कर बाद में नेहरू ने जम्मू कश्मीर को 370 का विशेष दर्जा दिलाया।
इसी चिठ्ठी के तीसरे प्वाईंट में लिखा है कि महाराजा हरी सिंह पहले शेख अब्दुल्ला को सरकार बनाने का न्योता देंगे। नेहरू ने संसद में दिए अपने भाषण में खुद कबूल किया है कि भारत ने महाराजा हरीसिंह और वहां के लोकप्रिय संगठन नेशनल कांफ्रेंस की ओर से अपील किए जाने के बाद जम्मू कश्मीर का भारत में विलय किया।
सच्चाई यह भी थी कि 20 अक्टूबर को कबायली घुसे थे और 21 अक्टूबर को भी महाराजा हरिसिंह ने विलय की अपील की थी, लेकिन नेहरू ने मना किया था। 24 जुलाई 1952 में संसद में दिए अपने इसी भाषण में वह यह भी बताते है कि जब 26 अक्टूबर को विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत हो गए थे, तो 27 अक्टूबर को हम इस नतीजे पर पहुंचे कि अब सेना भेजने के सिवा कोई विकल्प नहीं। इससे भी साबित होता है कि वह विलय और कश्मीर में सेना भेजने को किस तरह टालना चाहते थे।
नेहरू और कांग्रेस की ओर से जो यह बार कहा जाता रहा कि कश्मीर में विलय कुछ विशेष शर्तों पर हुआ, यह भी बिलकुल गलत था। किरन रिजीजू ने विलय का वह दस्तावेज भी अपने लेख में शामिल किया है, जो हू-ब-हू वही है, जो अन्य रियासतों के विलय का प्रारूप है। इसके बाद भी नेहरू ने दो बड़ी गलतियाँ की, पहली युद्ध विराम करके संयुक्त राष्ट्र में जाना और वहां जनमत संग्रह की बात कहना।
और दूसरी बड़ी गलती शेख अब्दुल्ला की मांगों के आधार पर कश्मीर को 370 का विशेष दर्जा दिया जाना, 17 अक्टूबर 1949 को जब संविधान सभा में जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव रखा गया था, तो डा. अंबेडकर ने बहस में हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि वह विशेष दर्जा देने के खिलाफ थे और उन्होंने ड्राफ्ट बनाने से भी इनकार कर दिया था।
यह ड्राफ्ट गोपालस्वामी आयंगर और शेख अब्दुल्ला ने बनाया था। बहस में हिस्सा लेते हुए मौलाना हसरत मोहनी और कई अन्य ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने के इस प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया था। उन्होंने शेख अब्दुल्ला को ज्यादा रियायतें दिए जाने का मामला भी उठाया था।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)