वन नेशन-वन इलेक्शन से पहले क्या ज्यादा जरूरी नहीं है वन नेशन-वन एजुकेशन
नई दिल्ली। इस समय देश में वन नेशन वन इलेक्शन पर बहस चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे सबसे प्रमुख एजेंडों में से एक रखा है। बताया गया है कि प्रधानमंत्री का मानना है कि इस मुद्दे को किसी खास पार्टी का विचार मानकर नहीं सोचना चाहिए बल्कि देश की सोच मानकर इस पर आगे बढ़ना चाहिए। हालांकि कुछपार्टियों ने इस विचार का विरोध किया है। इन पार्टियों के अपने तर्क हैं। कई पार्टियां खासकर एनडीए से जुड़े दल इसके पक्ष में हैं। लेकिन यह एक सच्चाई है कि एक देश एक चुनाव का विचार सबसे पहले भाजपा की ओर से आया और वही इसे लगातार आगे बढ़ाती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पहली बार सत्ता संभालने के बाद इस पर अपनी राय रखी थी। हालांकि तब यह बात आगे नहीं बढ़ पाई थी। अब दूसरी बार सत्ता संभालने के तुरंत बाद नए सिरे से इस पर पहल की गई है और लगता है कि अब वह किसी निर्णायक स्थिति में इसे पहुंचाना चाहते हैं। जाहिरा तौर पर अगर यह मुद्दा देश हित से जुड़ा हुआ है, तो इस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। लेकिन यह भी देखने की बात है कि क्या इससे ज्यादा अहम मुद्दा एक देश एक समान शिक्षा का नहीं है जिसको लेकर लंबे समय से आवाज उठाई जा रही है।
शिक्षा किसी भी देश अथवा समाज की बुनियाद होती है
शिक्षा किसी भी देश अथवा समाज की बुनियाद होती है। विकास की पूरी अवधारणा में इसका सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। लेकिन भारत में शिक्षा खासकर समान शिक्षा को लगातार उपेक्षित रखा गया। शिक्षा के लिए बजट में सबसे कम आबंटन किया जाता रहा है। देश के बहुत सारे बच्चे स्कूलों का मुह तक नहीं देख पाते थे। बाद में अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की गई। आंगनबाड़ी से लेकर प्रौढ़ शिक्षा तक की मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की गई, लेकिन इस सबके पीछे साक्षरता बढ़ाना मुख्य उद्देश्य रहा। कभी इस पर विचार अथवा काम नहीं किया गया कि पूरे देश में एक समान शिक्षा व्यवस्था लागू की जाए। शिक्षा नीतियां बनती रहीं, आयोग भी बनते रहे, लेकिन शिक्षा का कभी भला नहीं हो पाया। शिक्षा अभी भी कुछ लोगों के लिए अप्राप्य जैसी रह गई है, तो कुछ के लिए सब कुछ प्राप्य हो गई है। यह किसी के लिए भी अबूझ पहेली नहीं है कि भारत में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है। गरीबों के लिए अलग और अमीरों के लिए अलग। इसे सरकारी और निजी शिक्षा के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। यहां सब कुछ अलग है। पाठ्यक्रम से लेकर वातावरण और सुविधाओं तक। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों तक की कमी होती है। संसाधन तो होते ही नहीं।
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निजी प्रकाशकों की पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव होता है
दूसरी तरफ निजी स्कूल हैं जो इतने महंगे हैं कि गरीब उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वहां इतनी ज्यादा फीस होती है कि गरीब उसे वहन ही नहीं कर सकता। पाठ्यक्रम भी दोनों जगह अलग-अलग होते हैं। निजी प्रकाशकों की पुस्तकों में उस गुणवत्ता का अभाव होता है जो बच्चों को चाहिए। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के चलते कमीशनखोरी का बाजार गर्म है। निजी स्कूलों की मनमानी पर सरकार का भी किसी तरह का अंकुश नहीं है। वे जो चाहते हैं करते हैं और छात्र तथा अभिभावक उस सबको झेलने के लिए मजबूर होते हैं। इसके अलावा, राज्यों के अपने शिक्षा बोर्ड हैं जिनके अपने नियम और मार्किंग प्रणाली होती है। अब जैसे उत्तर प्रदेश के शिक्षा बोर्ड के बारे में माना जाता है कि वहां बहुत कम छात्रों को ज्यादा अंक मिल पाते हैं। इसके विपरीत सीबीएसई के बारे में सर्वज्ञात है कि अनगिनत छात्रों को 99 प्रतिशत से ज्यादा अंक मिल जाया करते हैं। ऐसा इसलिए कि दोनों ही बोर्डों में छात्रों को अंक प्रदान करने की नीतियां एकदम भिन्न हैं।
चपरासी की नौकरी के लिए आवेदकों में बीटेक के छात्र
इसका परिणाम यह होता है कि अन्य बोर्डों से शिक्षा प्राप्त कर आने वाले छात्रों को दिल्ली में दाखिले में सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अनेक छात्रों को तो प्रवेश ही नहीं मिल पाता। ऐसे में उन्हें निजी उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाजे पर जाने को मजबूर होना पड़ता है। उनकी फीस और खर्चे इतने ज्यादा होते हैं कि इन बच्चों के अभिभावकों के लिए उसे वहन कर पाना बेहद मुश्किल होता है। इसका एक दूसरा पहलू भी देखने में आता है। सिविल सर्विसेज, नीट और अन्य तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों अथवा अन्य बोर्डों से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र न केवल सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हैं बल्कि काफी संख्या में होते हैं। इस सबसे एक खास तरह की विरोधाभाषी स्थितियां सामने आती हैं। साफ पता चलता है कि ये अंतर्विरोध समान शिक्षा प्रणाली न होने की वजह से हो रहा है। चूंकि शिक्षा का सीधा संबंध रोजगार से भी होता है, इसलिए असमान शिक्षा व्यवस्था का असर वहां भी देखने में आता है। हाल में लगातार आ रही इस आशय की खबरों को देखा जा सकता है जिनसे पता चलता है कि चपरासी की नौकरी के लिए आवेदकों में बीटेक और पीएचडी तक किए छात्र शामिल होते हैं। इससे पता चलता है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कितनी तरह की पेचीदगियां हैं जिसका कोई लाभ देश और समाज को नहीं मिल पा रहा है।
पूरे देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू की जानी चाहिए
भारत की शिक्षा प्रणाली की तुलना में अगर विदेशों में शिक्षा व्यवस्था को देखा जाए तो पता चलता है कि बहुत सारे विकसित देशों में विश्वविद्यालय स्तर की उच्च शिक्षा से पहले की पूरी शिक्षा व्यवस्था सरकारी और एक समान होती है। भारत में इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। आजादी के बाद काफी समय तक भारत में कुछ इसी तरह की व्यवस्था थी, लेकिन धीरे-धीरे उसे खत्म कर दिया गया और निजीकरण को बढ़ावा दिया जाने लगा जिसमें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक शामिल है। इस मुद्दे पर समय-समय पर आवाजें भी उठती रहती हैं। देश के विभिन्न राज्यों से और राष्ट्रीय स्तर पर समान शिक्षा व्यवस्था के लिए सामाजिक संगठनों से लेकर स्वयंसेवी संगठनों और छात्र संगठनों की ओर से भी आवाज उठाई जाती रही है। सरकारों से मांग की जाती रही है कि पूरे देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। लेकिन कभी भी सरकारों की ओर से इस पर कोई ठोस पहल नहीं की गई। इस वजह से ही ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि सरकारें नहीं चाहती हैं कि शिक्षा व्यवस्था एक समान हो। इतना ही नहीं, समान शिक्षा का मामला अदालतों में भी जा चुका हैं। सर्वोच्च न्यायालय तक में याचिकाएं दाखिल की जा चुकी हैं। लेकिन इस तरह के तमाम प्रयासों का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आ सका है और अभी भी भारत में समान शिक्षा का मुद्दा उपेक्षित ही है।
देश की सबसे बड़ी जरूरत सबको शिक्षा और समान शिक्षा है
अगर आज के परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि फिलहाल देश की सबसे बड़ी जरूरत सबको शिक्षा और समान शिक्षा की जरूरत है। ऐसा करने से देश के समक्ष मौजूद बहुत सारी समस्याओं का समाधान खोजने में आसानी हो सकती है। वैसे भी यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी देश की सामाजिक और आर्थिक उन्नति उसके लोगों की शिक्षा पर ज्यादा निर्भर करती है। यह तभी हो सकता है जब सभी को समान शिक्षा मिल सके जिसका हमारे देश में पूर्णतया अभाव है। नई शिक्षा नीतियां बनती और लागू होती रहती हैं, लेकिन इनमें समान शिक्षा पर कोई बात नहीं होती। अभी एक नई शिक्षा नीति का मसौदा सरकार को सौंपा गया है। उसमें बहुत सारी बातें हैं, लेकिन लगता नहीं कि समान शिक्षा नीति को लेकर भी कुछ कहा गया है। क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होता कि हमारी सरकारें पूरे देश में एक समान शिक्षा की व्यवस्था करतीं जिससे देश और समाज का कुछ भला हो पाता। फिलहाल इसको लेकर उम्मीद ही की जा सकती है कि कभी तो यह मुद्दा सरकारों के एजेंडे पर आ सकेगा।
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