साक्षी का मीडिया ट्रायल कितना उचित ?
नई
दिल्ली।
मीडिया
में
कुछ
ख़बरों
को
जिस
तरह
परोसा
जा
रहा
वो
गलत
है।
इलेक्ट्रानिक
मीडिया,
सोशल
मीडिया
और
कुछ
हद
तक
प्रिंट
मीडिया
में
भी
खबरे
गलत
ढंग
से
या
एजेंडा
के
रूप
में
पेश
की
जाती
हैं।
यह
कोई
खबर
नहीं
बल्कि
तमाशा
है।
ताजा
उदाहरण
बरेली
की
बेटी
साक्षी
का
है।
एक
निहायत
निजी
मसले
पर
जिस
तरह
मीडिया
ट्रायल
किया
गया
वह
गलत
था।
इस
पर
शर्म
शर्म
कह
गर्मा-गर्म
बहस
होती
रही।
एक
पारिवारिक
मनमुटाव
को
राजनीतिक
रंग
दे
दिया
गया।
कर्नाटक
में
सियासी
उठापटक
तेज
है,
लद्दाख
में
चीनी
घुसपैठ
की
खबर
है,
मुद्रास्फीति
में
बढ़ोतरी
हुई
है,
मंहगाई
भी
बढ़ी
है,
देश
की
जनसंख्या
लगातार
बढ़ना
चिंता
का
विषय
है,
कहीं
भारी
बारिश
से
तबाही
हो
रही
है
तो
कहीं
किसानों
को
अभी
भी
बारिश
की
आस
है,
शुद्ध
पेयजल
का
भारी
संकट
है।
और
भी
कई
जरूरी
मुद्दे
हैं
लेकिन
मीडिया
का
सारा
ध्यान
दो
परिवारों
के
झगडे
को
चटपटे
पकवान
की
तरह
परोसने
पर
है।
बेटियों
पर
अत्याचार,
रेप
और
आनर
किलिंग
की
खबरें
लगातार
आ
रहीं
हैं
लेकिन
इन
विषयों
पर
दिनभर
बहस
नहीं
होती।
समाज
को
सवर्ण-
दलित
में
बाँट
कर
सुर्खियाँ
बटोरी
जा
रहीं।
आप
समझ
गए
होंगे,
यहाँ
बरेली
के
दो
परिवारों
के
बीच
चल
रहे
टकराव
और
उसको
लेकर
चैनलों
पर
चले
'नाटक’
की
बात
हो
रही
है।
एक 'प्रेम विवाह' को दिया गया राजनीतिक रंग
मामले ने इस लिए तूल पकड़ लिया या कहें मीडिया ने उछाल दिया क्योंकि इत्तफाक से इसमें एक परिवार सवर्ण है और दूसरा अनुसूचित जाति का। लड़की के पिता सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं तो लडके के पिता दलित समाज से हैं। संयोग से दोनों सम्पन्न हैं वर्ना एक नया एंगल मिडिया को मिल जाता। कहा जा रहा कि पहले दोनों परिवारों में घनिष्ठता थी, आना-जाना था। लेकिन दोस्ती दुश्मनी में तब बदल गई जब सवर्ण विधायक की बेटी ने अनुसूचित जाति के युवक से प्रेम विवाह कर लिया। क्या इसके पहले सवर्ण युवती और अनुसूचित जाति के युवक के बीच प्रेम विवाह नहीं हुए या अनुसूचित जाति की युवती और सवर्ण युवक के बीच शादियाँ नहीं हुईं? इसके अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे। शायद ही कभी इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा हुआ हो। हाँ, गाँव में कुछ ऐसे मामलों की दुखद परिणति आनर किलिंग के रूप में जरूर हुई हैं। लेकिन पढ़े-लिखे समाज ऐसे मामलों में समय के साथ परिवार आपस में तालमेल बैठा लेते हैं। लेकिन यहाँ तो मामला हाई प्रोफाइल था सो मीडिया को मन माफिक चटपटी खबर मिल गई।
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एक्शन, इमोशन से भरपूर मीडिया ट्रायल
शुरुआत सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो से हुई। लड़की ने अपने विधायक पिता से जान को खतरा बता इलाहबाद हाईकोर्ट में सुरक्षा की गुहार लगाई। उसके बाद टीवी चैनल्स पर क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं। पारिवारिक असहमति ने सियासी रंग ले लिया। समाज जातीय वर्गों और राजनीतिक खेमों में बंट गया। एक टॉप न्यूज़ चैनल पर किसी मुम्बइया मसाला फिल्म तरह दिनभर ‘शो' चला जिसमें एक्शन था, इमोशन था और गुस्सा भी, मासूमियत थी और तल्खी भी, आरोप और प्रत्यारोप भी, आसूं भी थे और आवेश भी। कुछ किरदार मंच पर थे तो कुछ परदे के पीछे। दोनों परिवार दिन भर अपनी बेगुनाही के तर्क या कुतर्क देते रहे। मीडिया ट्रायल के साथ साथ पब्लिक ट्रायल भी चलता रहा। लोगों ने अपने अपने हिसाब से लड़की-लडके और उनके परिवारों को दोषी ठहरा ठहरा दिया।
मसाला तलाशते मीडिया वाले
कुछ तथाकथित खोजी पत्रकार नए-नए तथ्य खोज कर इस ‘प्रेम कहानी' को और भी मसालेदार बनाने में जुटे हैं। एक एंगल यह भी है कि विवाद की असली वजह राजनीतिक है। किसी ने शिगूफा छोड़ा कि लडके के करीबी रिश्तेदार भी बरेली की एक अन्य विधानसभा सीट से सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं और लड़के का परिवार भी राजनीति में उतरना चाहता है। जितने मुंह उतनी बातें। परिवारों के इस टकराव की परिणति क्या होगी यह तो समय ही बताएगा। लेकिन एक प्रेम विवाह और पिता-पुत्री के टकराव ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिनको "सनसनीखोर" मीडिया नहीं उठा रहा या जानबूझ कर अनदेखी कर रहा। सबसे बड़ा सवाल है कि दोनों परिवारों के इस "अप्रिय" प्रेम विवाह में सबसे ज्यादा पीड़ा कौन झेल रहा- विधायक राजेश मिश्र, उनकी बेटी साक्षी या उनका पूरा परिवार? अनुसूचित जाति का अजितेश, उनके पिता हरीश कुमार या उनका पूरा परिवार?
यह कैसी परवरिश या संवादहीनता
आरोप-प्रत्यारोप के बीच चले मीडिया ट्रायल के बीच में लड़की के पिता ने तो यहाँ तक कह दिया कि वो और उनकी पत्नी इस प्रकरण से बहुत आहात और परेशान हैं, अगर इसे बंद न किया गया तो वो आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठाने पर मजबूर होंगे। कौन झूठ बोल रहा और कौन सच, इस सवाल से इतर क्या किसी ने एक बेटी के एक मजबूर पिता के दर्द को महसूस किया, क्या किसी ने बेटी की मां की पीड़ा को महसूस किया? टीवी स्क्रीन पर फूट फूट कर रोते हुए गले मिलने वाले पिता-पुत्र के आसूं क्या बनावटी हैं? कौन नहीं चाहता कि बेटी या बेटा सुखी रहे? लेकिन बेटी कह रही कि वो अपने घर में घुटन महसूस कर रही थी, अब खुली हवा में नई जिंदगी शुरु करना चाहती है। मतलब गड़बड़ तो कहीं हुई है। माना कि विधायक पिता एक पब्लिक फिगर हैं और उनकी राजनितिक व्यस्तता भी जायज है। लेकिन यह कैसी परवरिश या संवादहीनता है कि बेटी विद्रोह कर दे? यहाँ संस्कार और परस्पर सम्वाद की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है जो अब परिवारों से दूर होता जा रहा। बच्चों में अच्छे संस्कार से यहाँ मतलब जात-पात से ऊपर उठ सही दिशा में सोचने और सही निर्णय की क्षमता विकसित करने से है। इसमें माता-पिता की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। साक्षी के केस में शायद ऐसा नहीं हुआ। साक्षी ने सार्वजनिक रूप से अपने परिवार पर गंभीर आरोप लगाये जो कि गलत था। यह भी परवरिश में हुई चूक का नतीजा है। अगर किसी बेटी को लगता कि उसके साथ अन्याय हो रहा तो इसके लिए अदालत है न। लेकिन इस तरह मीडिया ट्रायल कर न्याय मांगना कितना उचित ? इस पर बेटियां भी सोचें और उनके पेरेंट्स भी।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)