Romila Thapar: एक हिन्दू विरोधी कथित इतिहासकार की छटपटाहट
रोमिला थापर को एक खास वर्ग में इतिहासकार कहते हैं। पर समय समय पर वो जिस तरह से गलत तथ्यों के आधार पर बयानबाजी करती हैं इससे उनका ऐसा हिंदू विरोधी स्वरूप उभरकर सामने आ जाता है जो इतिहास से नहीं वर्तमान से पीड़ित दिखता है।
Romila Thapar: डा. सीडी देशमुख मेमोरियल लेक्चर 2023 में विवादित वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर के लव जिहाद पर दिए गए वक्तव्य की अधिक चर्चा नहीं हुई। देश भर से सैकड़ों की संख्या में लव जिहाद के मामले सामने आ चुके हैं। इतनी सारी केस स्टडी के बावजूद यदि रोमिला यह कह रही है कि लव जिहाद किसी खास विचारधारा वालों का प्रोपेगेण्डा है तो फिर हम इस बात को बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि 'इतिहासकार' रोमिला थॉपर ने कैसे तथ्यों के साथ इतिहास लेखन किया होगा।
वामपंथी इतिहासकार एक खास नैरेटिव को पोषित करने वाली कहानियों को इतिहास बताकर लिखते और पढ़ाते आये हैं। उनकी अगुवाई में मुगलों का खूब महिमामंडन किया गया। वीर सावरकर के बारे में झूठ अभी और कई दशकों तक पढ़ाया जाता, यदि विक्रम संपत ने दो खंडों में सावरकर की जीवनी 'सावरकर: इकोज फ्रॉम फॉरगाटन पास्ट' के नाम से ना लिखी होती। इसी तरह अयोध्या और राम मंदिर की कहानी को मीनाक्षी जैन ने 'राम एंड अयोध्या' और 'द बैटल फॉर राम' में लिखकर सामने लाने का काम किया। विदेशों में भारत के खिलाफ चल रहे नैरेटिव के षडयंत्रों पर राजीव मल्होत्रा की पैनी नजर रहती है। हाल में ही उनकी किताब 'स्नेक्स इन द गंगा' आई है।
प्रो. थॉपर ने पिछले हफ्ते दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 'हमारा इतिहास, तुम्हारा इतिहास, किसका इतिहास' विषय पर बोलते हुए कोई नई बात नहीं कही। उन्होंने राष्ट्रवाद और मोदी की आलोचना करते हुए अपना एक घंटे का भाषण किया। इस तरह उन्होंने अपनी उसी नफरत को स्वर दिया है, जो उनके इतिहास लेखन में भी नजर आता है। रोमिला थॉपर कह रही हैं इतिहास लेखन करते समय "धार्मिक राष्ट्रवाद" जैसा सहारा नहीं लिया जाना चाहिए। ये एक ऐसे अफीमची का इतिहास हो जाता है जो सिर्फ अपने सुनहरे अतीत में खोया रहता है।
उनका संकेत वर्तमान मोदी सरकार की ओर है। वो उस समाज के खिलाफ बोल रही हैं जो अपनी कटी हुई जड़ों को तलाश रहा है। रोमिला थॉपर या फिर उनके जैसे हिंदू विरोधी इतिहासकारों को हमेशा से यह समस्या रही है कि भारत का हिंदू समाज धार्मिक रूप से अपनी जड़ों को समझ न सके। इसलिए उन्होंने अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा दिया और इसी की आड़ में मुगलों के शासन को महिमामंडित किया।
रोमिला थॉपर आज भी यही कर रही हैं। वो मुगलों के समय में मान सिंह को हिन्दू प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत करके पूरे इस्लामिक शासन की बर्बरता को छिपा लेना चाहती हैं। वो नहीं चाहतीं कि भारत के लोग मुगलों के बर्बर इतिहास को जानें। वो एक तरह से मुगल काल के मान सिंह को सामने रखकर समूचे भारतीय समाज को मान सिंह की मानसिकता वाला बना देना चाहती हैं।
फिर रोमिला थापर और इरफान हबीब तो भारतीय इतिहास जगत के कुख्यात नाम रहे हैं। राम मंदिर जन्मस्थान की खुदाई करने वाले पुरातत्वविद केके मोहम्मद तो खुलकर कह चुके हैं कि इरफान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकार नहीं चाहते थे कि लोग सत्य तक पहुंचे। इसके लिए रोमिला थापर या इरफान हबीब जैसे वाम इतिहासकारों ने हर प्रकार के झूठ का सहारा लिया और समाज को संकट में डाला।
पुरातत्वविद् केके मुहम्मद ने लिखा है कि "हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग इस बात पर बहुत पहले सहमत हो गए थे कि अयोध्या में राम मंदिर बनाया जाए। सिर्फ रोमिला थापर और उनके गिरोह के इतिहासकारों ने मिलकर इस पूरे मामले को लंबे समय तक लटकाया। इससे हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच जो सौहार्द का वातावरण था, वह भी प्रभावित हुआ।"
आर्यों के आक्रमण की थ्योरी के साथ भी रोमिला थॉपर का नाम जुड़ा हुआ है। यह थ्योरी अब पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है। हरियाणा के हिसार में स्थित राखीगढ़ी पर रिसर्च कर रही टीम के निदेशक प्रोफेसर वसंत शिंदे के मुताबिक भारत पर आर्यों के आक्रमण की कहानी पूरी तरह गलत है। इस खुदाई से मिले हड़प्पाकालीन शवों के डीएनए परीक्षण से यह बात भी साबित हुई कि उत्तर और दक्षिण भारत ही नहीं, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और श्रीलंका तक सभी हड़प्पाकालीन सभ्यता के वंशज हैं।
इसके बावजूद अगर रोमिला थॉपर गलत इतिहास का रोना रो रही हैं तो यह उन जैसे कथित इतिहासकारों की पीड़ा है जिन्होंने 75 सालों से भारत के लोगों को अपने ही इतिहास से परिचित होने से रोक कर रखा। इसमें रोमिला थापर और इरफान हबीब के अलावा आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा, सूरज भान जैसे इतिहासकारों का नाम शामिल है जिन्होंने बहुसंख्यसक वाद के नाम पर हिन्दू विरोध वाला इतिहास लिखा।
भारतीय इतिहास पर राजनीतिक दबाव और विचारधारा के प्रभाव का असर आजादी मिलने के बाद से ही दिखाई देने लगा था, जब इतिहासकारों की समिति बनाने से लेकर उन्हें इतिहास लिखने के काम में लगाने तक की जिम्मेवारी सरकार ने अपने ऊपर ले ली। एक खास तरह के इतिहास लेखन को बढ़ावा देने के लिए ही भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद बनाए गए।
मौलाना साहब की शिक्षा और इतिहास विषयक नीति पर दो खंडो में 'भारतवर्ष का वृहद इतिहास' लिखने वाले इतिहासकार भगवद्दत लिखते हैं - ''सांस्कृतिक दृष्टि से अर्ध स्वतंत्र भारत के शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने उस शिक्षा आयोग को स्वीकार किया, जिसमें दो विदेशी और शेष अंग्रेजी छाप सदस्य थे। इन लोगों को शिक्षा के वास्तविक ध्येय का, विद्या के महत्व आदि का मार्मिक ज्ञान न था।''
भगवद्दत आगे लिखते हैं- ''सन 1948 में मौलाना के विभाग से एक और योजना उपस्थित की गई। तदनुसार निर्णय हुआ कि वेद काल से आरंभ होने वाला भारतीय दर्शन शास्त्र का इतिहास भारत सरकार की ओर से प्रकाशित हो। जिन्होंने वेद का कभी गंभीर अध्ययन ना किया हो, जो इतिहास और कल्पना में अंतर न कर पाते हों, और जो कपिल से जैमिनी पर्यन्त अधिकांश महापुरुषों को मिथक मानते हों, उन पाश्चात्य पद्धति के विश्वविद्यालयों में पढ़े लोगों से ऐसा ग्रंथ लिखवाना और भारतीय शासन की ओर से उसे प्रकाशित करना दूसरी अक्षम्य भूल थी।"
यह सारी बातें इतिहासकार भगवद्दत सन् 1951 में लिख रहे थे। आप जब भगवद्दत द्वारा लिखा भारतीय इतिहास पढ़ेंगे, उन्होंने अपने इतिहास में पश्चिम से प्रभावित वामपंथी इतिहासकारों की तरह भारतीय ऋषियों के लिए गालियां नहीं लिखी है। भगवद्दत मानते हैं कि भारतीय ज्ञान का मूल सत्य कथन है। ऋषि लोग सत्य वक्ता थे। उन्होंने उपनिषद, आरण्यक, ब्राम्हण और आयुर्वेद के ग्रंथों में सत्य भाषण किया है। उनके स्वीकृत ऐतिहासिक महापुरुषों को मिथिक कहना, सारे आर्य ऋषियों को गाली देना है। वर्तमान समय में इतिहास में 'वैज्ञानिकता' का यही प्रकार है।
इस कथित वैज्ञानिक इतिहास को अगर किसी ने तथ्यों के साथ चुनौती दी तो उसे हिन्दूवादी, भगवा, संघी, भाजपाई जैसा कोई एक नाम देकर, उनकी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा दिया गया। रोमिला थॉपर आज भी इतिहास के पाप को ऐसे ही गलतबयानियों से छिपाने की कोशिश कर रही हैं जब वो सारी समस्या की जड़ राष्ट्रवाद को ठहराने लगती हैं। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि वो इतिहास से आहत हैं या वर्तमान उन्हें ज्यादा पीड़ित कर रहा है।
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