हिन्दी दिवस: हिन्दी को बनाना होगा रोजगार की भाषा, तभी होगा इसका विस्तार
नई दिल्ली। आज हिंदी दिवस है। हिंदी एक भाषा के रूप में, लोक-संवेदना के रूप में और इस सब से बढ़कर एक चेतना के रूप में हमारे भीतर घर किये हुए है। यह आम-जन की भाषा है। आम-जन के खूबसूरत पलों के अभिव्यक्ति की भाषा है। अभिव्यक्ति जब सहज रूप में अपनी भाषा में होती है तो वो शब्द, शब्द मात्र नहीं रह जाते। उस शब्द की अनुभूति रूह में होने लगती है। हमारी भाषा हमारी अभिव्यक्ति की मां है, लेकिन यह भी सच है की उसके साथ ज्यादती हम खुद करते हैं क्योंकि हम ही उसके वाहक हैं। बहुभाषाओं के इस ग्लोबल दौर में यह कहना तो बहुत मुश्किल है कि हम अंग्रेज़ी से प्रभावित हुए हैं या दुष्प्रभावित लेकिन अपनी भाषा के प्रति हमने अपनी सजगता खोई जरूर है।
भाषा है बहता नीर
कबीर के शब्दों में कहें तो 'भाषा है बहता नीर'। परिवर्तन की लहर से सब प्रभावित होते हैं चाहे संस्कृति हो या भाषा। भाषा परिवर्तनशील है, तभी जीवंत है। संस्कृत, पाली, प्राकृत से हिंदी तक का सफर ‘भाषा बहता नीर' ही है। संस्कृत ने परिवर्तनशीलता को परिमाणात्मक रूप में नहीं स्वीकारा। भाषा हम गढ़ते हैं अपनी सुविधानुसार। भाषा हमें नही गढ़ती अपने लिए। जब हम शुद्धतावादी बनते हैं तो इसी से उलझ जाने का डर रहता है, जिसके खतरे बड़े घातक होते हैं। ऐसा ही कुछ संस्कृत के साथ हुआ। वक्त के साथ इसमें लचीलापन नहीं आया, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। यह सिमट कर रह गई है। दरअसल हमें अपनी भाषा के प्रति अति शुद्धतावादी नजरिये में थोड़ी उदारता लानी होगी और ये समझना होगा की भूमंडलीकरण के दौर में भाषा को संकुचित नहीं किया जा सकता है।
हिंदी की विशालता
यह सच भी है कि जो भाषा जितनी सरल सीधी और लचीली रहेगी वो उतना ही आगे बढ़ेगी। इसी वज़ह से तुलसी दास ने संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी रामचरितमानस की रचना अवधी में की। जहाँ तक बात हिंदी की है तो इस समस्या का समाधान कहीं बाहर नहीं, हमारे और आपके पास ही है। हिंदी सामान्यतया आम जन की ही भाषा रही है। इसने जरूरतों को खुद में समाहित किया भी है। वैसे हिंदी ने समय के साथ आये परिवर्तनों को न केवल स्वीकार किया है, बल्कि इसने उसे आत्मसात भी किया है। यही कारण है की यह आज के ग्लोबल भाषाई दौर में भी मुस्कुराती दिखती है। यह इसकी विशालता ही है। लेकिन यही विडम्बना भी है कि हिंदी हमारी पल-पल की अभिव्यक्ति का माध्यम होते हुए भी अभी तक असुरक्षित है।
हिंदी को कैसी होनी चाहिए
यह हमेशा मुस्काती रहे, इसके लिए हमें भी बहुत कुछ करना होगा। दैनिक जीवन में प्रयोग मात्र को सिर्फ प्राथमिकता देने से ही इसके दिन नहीं बहुरेंगे। वैश्विक और आर्थिक दौर में जब तक हम इसे इससे होड़ लेने की स्थिति में नहीं ले आयेंगे तब तक पर्याप्त सफलता हमें मिलेगी, इसमे संदेह है। भावात्मक लगाव के अतिरिक्त हमें इसे संपर्क भाषा बनाने के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे। इस भाषा में रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। इसे उस ओर जोड़ना होगा जहाँ से धनोपार्जन हो। रोजगारोन्मुखी भाषा के रूप में इसे प्रतिष्ठित करना होगा। तकनीकी क्षेत्रों में भी हिंदी को आगे लाना होगा। इसके लिए हमें प्राथमिक कक्षाओं के स्तर से ही सरकारी और गैर-सरकारी स्कूलों में हिंदी के प्रति अभिरुचि पैदा करने की कला सीखनी होगी। हालाँकि फिलवक्त प्रयास इस दिशा में हो रहे हैं (फेसबुक, ट्विटर आदि पर हिंदी टंकण, सरकार की तरफ से किये जा रहे प्रयास आदि) पर इतना ही काफी नहीं है।
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इसके अतिरिक्त हमारी राजभाषा की ‘सुरक्षा' के लिए कुछ ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है जो बस सप्ताह भर का कार्यक्रम मात्र न रहे। इसके लिए सरकार से तो अपेक्षाएं रहेंगी ही लेकिन सबसे पहले हमें ही हिन्दी को लेकर अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। हमें मुखर होकर हिंदी को सम्मान देने के प्रयास में ईमानदारी लानी होगी।