भारत में भुखमरी और अमीरी की लगातार गहरी होती खाई
भारत भुखमरी और अमीरी के कन्ट्रास्ट के दौर से गुजर रहा है. दोनों बिना ब्रेक के फर्राटे भर रहे हैं, एक तरफ तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है वहीं दूसरी तरफ देश के चुनिंदा अरबपति बेहिसाब दौलत बना रहे हैं. इससे अधिक शर्मनाक क्या हो सकता है कि तरक्की के तमाम दावों के बावजूद भारत बड़ी सख्या में अपने नागिरकों को भोजन जैसी बुनियादी जरूरत पूरी करने में फिसड्डी साबित हुआ है. भूख आज भी भारत की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है. देश में भूख की व्यापकता हर साल नये आंकड़ों के साथ हमारे सामने आ जाती है जिससे पता चलता है कि भारत में भूख की समस्या कितनी गंभीर है. ऐसा नहीं है कि देश में इसके लिए जरूरी धन और संसाधनों की कोई कमी है, दरअसल समस्या मंशा, इरादे और सबसे ज्यादा आर्थिक व राजनीतिक दृष्टिकोण की है. पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में अकूत धन सम्पदा का संचय हुआ है लेकिन यह मुट्ठीभर अरबपतियों के हाथों में सिमट कर रह गया है. असमान विकास की इस प्रक्रिया की वजह से देश की करोड़ों आबादी कुपोषण और भूख के दंश के साथ जीने को मजबूर है. इधर कोरोना महामारी की वजह से देश में असमानता की खाई और अधिक चौड़ी हो गयी है. कोरोना संकट ने भारत के वर्ग विभाजन को बेनकाब कर दिया है, इसने हमारे कल्याणकारी राज्य होने के दावे के बुनियाद पर निर्णायक चोट करते हुये क्रोनी पूँजीवाद के चेहरे को पूरी तरह से सामने ला दिया है. यह गरीबों के लिए आपदा और अमीरों के लिए आपदा में अवसर साबित हुयी है. इसने पहले से ही हाशिये पर जी रहे देश की करोड़ों जनता को एक ऐसे गर्त में धकेल दिया है जहाँ से निकलने में दशकों लग सकते हैं.
भुखमरी का गर्त
वैश्विक
भूख
सूचकांक
2021
को
देखने
से
पता
चलता
है
कि
इस
मामले
में
भारत
की
स्थिति
बद
से
बदतर
होती
जा
रही
है,
पिछले
सात
सालों
से
भारत
इस
सूची
में
लगातार
फिसलता
गया
है.
साल
2021
में
भारत
को
कुल
116
देशों
की
सूची
में
101वें
स्थान
पर
रखा
गया
है
जिसका
मतलब
है
वैश्विक
भूख
सूचकांक
में
भारत
से
पीछे
दुनिया
के
केवल
15
सबसे
पिछड़े
देश
ही
हैं.
साथ
ही
भारत
में
भूख
के
स्तर
को
"खतरनाक"
बताते
हुए
"भूख
की
गंभीर"
श्रेणी
में
शामिल
31
देशों
में
भी
रखा
गया
है.
यही
नहीं
भारत
की
तुलना
में
छोटी
अर्थव्यवस्था
और
कमजोर
माने
जाने
वाले
नेपाल
(76),
बांग्लादेश
(76),
म्यांमार
(71)
और
पाकिस्तान
(92)
जैसे
पडोसी
देश
भी
इस
मामले
में
हमसे
बेहतर
स्थिति
में
है
जिसका
अर्थ
है
इन
देशों
ने
अपने
नागरिकों
को
भोजन
जैसी
बुनियादी
जरूरत
उपलब्ध
कराने
के
मामले
में
बेहतर
काम
किया
है.
गौरतलब
है
कि
वैश्विक
भूख
सूचकांक
साल
2006
से
लगातार
जारी
की
जा
रही
है
इसमें
विकसित
देश
शामिल
नहीं
किये
जाते
हैं.
वैश्विक
भूख
के
सूचकांक
की
गणना
चार
संकेतकों
के
आधार
पर
की
जाती
है
जिसमें
अल्पपोषण,शिशुओं
में
गंभीर
कुपोषण,
चाइल्ड
स्टंटिंग
और
बाल
मृत्यु
दर
शामिल
है.
साल
2014
में
मोदी
सरकार
के
आने
के
बाद
से
इस
सूचकांक
में
भारत
की
रैंकिंग
लगातार
गिरती
जा
रही
है.
2014
के
रैंकिंग
में
भारत
55वें
पायदान
पर
था.
इसके
बाद
से
गिरावट
का
यह
सिलसिला
लगातार
जारी
है.
2014
से
2021
के
बीच
वैश्विक
भूख
सूचकांक
में
भारत
की
स्थिति
वर्ष रैंकिंग में शामिल कुल देश भारत की रैंकिंग
2014
76
55
2015
104
80
2016
118
97
2017
119
100
2018
119
103
2019
117
102
2020
107
94
2021
116
101
उपरोक्त तालिका के आधार पर 2014 से 2021 के बीच ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति देखें तो वर्ष 2014 में भारत की रैंकिंग जहाँ 55वें स्थान पर थी वहीं 2021 में 101वें स्थान पर हो गयी है. हालांकि इस दौरान इस सूचकांक में शामिल देशों की संख्या भी घटती-बढ़ती रही है. 2014 की इंडेक्स में कुल 76 देशों को शामिल किया गया था जबकि 2021 की रैंकिंग में कुल 116 देशों को शामिल किया गया है.लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इस दौरान पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे भारत के हमसाया मुल्कों ने अपनी रैंकिंग में काफी सुधार किया है. 2014 में भारत के 55वें स्थान के मुकाबले बांग्लादेश और पाकिस्तान 57वें स्थान पर थे लेकिन आज 2021 में ये दोनों मुल्क भारत की तुलना में काफी बेहतर स्थिति में क्रमशः 76वें और 92वें स्थान पर हैं. इन दोनों देशों को भारत की तुलना में गरीब और छोटा माना जाता है साथ ही इन देशों के घरेलू राजनीति भी एक दूसरे को मुद्दा बनाकर संचालित होती है खासकर भारत और पाकिस्तान की. ऐसे में क्या घरेलू राजनीति में बात-बात पर पाकिस्तान को मुद्दा बनाने वाली सियासी पार्टियाँ भुखमरी के मुद्दे पर भारत के पाकिस्तान से पीछे छूट जाने को भी मुद्दा बनाने का साहस करेंगीं?
अमीरी की बेलगाम सीढ़ी
इस
मुल्क
में
एक
तरफ
तो
भूख
से
बेहाल
लोगों
की
संख्या
बढ़
रही
है
तो
दूसरी
तरफ
अरबपतियों
की
संख्या
और
दौलत
भी
बेलगाम
तेजी
से
बढ़ती
जा
रही
है.
जनवरी
2021
में
ऑक्सफैम
द्वारा
जारी
की
गयी
रिपोर्ट
"द
इनइक्वैलिटी
वायरस"
बताती
है
कि
किस
तरह
से
भारत
के
लोगों
पर
महामारी
के
साथ
आर्थिक
असमानता
के
वायरस
की
मार
पड़ी
है.
रिपोर्ट
के
अनुसार
कोविड
लॉकडाउन
के
दौरान
भारत
के
अरबपतियों
की
संपत्ति
में
35
फीसदी
से
ज्यादा
की
बढ़ोतरी
हुई
है
वहीँ
दूसरी
तरफ
कोविड
के
चलते
देश
के
84
फीसदी
परिवारों
को
आर्थिक
तंगी
से
गुजरना
पड़ा
है.
रिपोर्ट
बताती
है
कि
महामारी
के
दौरान
मुकेश
अंबानी
को
एक
घंटे
में
जितनी
आमदनी
हुई,
उतनी
कमाई
करने
में
एक
अकुशल
मजदूर
को
दस
हजार
साल
लग
जाएंगे.
यही
नहीं
भारत
अरबपतियों
की
संपत्ति
के
मामले
में
अमेरिका,
चीन,
जर्मनी,
रूस
और
फ्रांस
के
बाद
छठे
स्थान
पर
पहुंच
गया
है.
देश
में
धनवानों
को
लेकर
जारी
की
जाने
वाली
आईआईएफएल
वेल्थ
हुरुन
इंडिया
रिच
लिस्ट
2021
के
अनुसार
पिछले
एक
दशक
के
दौरान
भारत
में
अरबपतियों
की
संख्या
में
दस
गुना
की
बढ़ोतरी
हुयी
है.
2001
में
देश
में
केवल
100
अरबपति
थे
जबकि
2021
में
इनकी
संख्या
1,007
तक
पहुंच
गई
है.
जैसा
कि
इस
साल
के
शरुआत
में
जापान
के
प्रतिष्ठित
आर्थिक
अखबार
निक्केई
एशिया
में
प्रकाशित
एक
लेख
में
रूपा
सुब्रमण्यम
ने
बताया
था
भारत
बहुत
तेजी
से
गैंगस्टर
पूंजीपतियों
के
देश
में
बदलता
जा
रहा
है.
आज
दो
गुजराती
कारोबारियों
अंबानी
और
अडानी
का
एकतरफा
डंका
बज
रहा
है,
हर
दिन
उनकी
संपत्ति
में
बेहिसाब
बढ़ोतरी
हो
रही
है.
यह
भी
ऐसा
अद्भुत
संयोग
है
कि
भारत
सरकार
जो
भी
नीति
बना
रही
है
उसका
सबसे
अधिक
फायदा
इन
दो
कारोबारियों
को
हो
रहा
है,
हालांकि
इनके
अलावा
भी
दो-चार
कारोबारी
हैं,
जिनको
कुछ
लाभ
हुआ
है
लेकिन
इन
दो
कारोबारियों
की
कमाई
असीमित
है.
हाल
ही
में
भारत
सरकार
के
पूर्व
मुख्य
आर्थिक
सलाहकार
डॉ.
अरविंद
सुब्रह्मण्यन
ने
भी
अंबानी
और
अडानी
की
"अभूतपूर्व
पहुंच"
का
जिक्र
करते
हुए
इसे
'वैश्विक
पूंजीवाद
के
इतिहास
में
अनूठी
घटना'
बताया
है.आंकड़े
बताते
हैं
कि
2014
से
2019
के
दौरान
मुकेश
अंबानी
की
नेटवर्थ
में
130.58
प्रतिशत
और
गौतम
अदाणी
की
नेटवर्थ
में
114.77
प्रतिशत
की
बढ़ोतरी
दर्ज
की
गई
है.
लेकिन
यह
तो
महज
2019
तक
के
आंकड़े
हैं.
ब्लूमबर्ग
बिलिनेयर
इंडेक्स
2021
के
मुताबिक
मुकेश
अंबानी
की
दौलत
84
अरब
डॉलर
से
ज्यादा
हो
गई
है
और
वे
दुनिया
के
12वें
सबसे
अमीर
व्यक्ति
बन
गए
है,
इस
साल
अंबानी
की
दौलत
में
7.62
अरब
डॉलर
का
इजाफा
हुआ
है.
गौतम
अडानी
उनके
ठीक
पीछे
हैं
और
उनकी
संपत्ति
बढ़कर
77
अरब
डॉलर
के
पार
हो
गई
है
और
वे
दुनिया
के
14वें
सबसे
अमीर
शख्स
हैं,
इस
साल
उनकी
संपत्ति
में
43.2
अरब
डॉलर
का
इजाफा
हुआ
है.
ब्लूमबर्ग
के
आंकड़ों
के
मुताबिक
दोनों
एक
सौ
अरब
डॉलर
की
संपत्ति
वाले
दुनिया
के
चुनिंदा
कारोबारियों
की
सूची
में
शामिल
होने
के
लिए
तेजी
से
आगे
बढ़
रहे
हैं.
जाहिर
है
भारत
के
शीर्ष
कारोबारियों
की
इस
तरक्की
के
साथ
गहरी
असमानता
भी
नत्थी
है.
उदारीकरण
के
बाद
से
ही
भारत
को
उभरती
हुई
आर्थिक
महाशक्ति
माना
जाता
रहा
है.
इस
दौरान
भारत
ने
आर्थिक
रूप
से
काफी
तरक्की
भी
की
है
लेकिन
जीडीपी
के
साथ
आर्थिक
असमानताएं
भी
बढ़ी
हैं
जिसकी
झलक
हमें
साल
दर
साल
भूख
और
कुपोषण
से
जुड़े
आकड़ों
में
देखने
को
मिलती
है.
ऐसा
इसलिये
हुआ
है
क्योंकि
हम
अपने
आर्थिक
विकास
का
फायदा
सामाजिक
और
मानव
विकास
को
देने
में
नाकाम
साबित
हुये
हैं.
उदारीकरण
के
बाद
आई
चमक
के
बावजूद
आज
भी
देश
की
बड़ी
आबादी
गरीबी
रेखा
से
नीचे
रहने
को
मजबूर
हैं,
जीडीपी
के
ग्रोथ
के
अनुरूप
सभी
की
आय
नहीं
बढ़ी
है.
भारत
की
यह
असमानता
केवल
आर्थिक
नहीं
है,
बल्कि
कम
आय
के
साथ
देश
की
बड़ी
आबादी
स्वास्थ्य,
शिक्षा
और
सामाजिक
सुरक्षा
जैसे
मूलभूत
जरूरतों
की
पहुंच
के
दायरे
से
भी
बाहर
है.
साल
2020
के
मानव
विकास
सूचकांक
(एचडीआई)
में
भारत
को
189
देशों
में
131वां
स्थान
प्राप्त
हुआ
है.
2019
में
भारत
दो
पायदान
उपर
129वें
स्थान
पर
था.
गौरतलब
है
कि
यह
रैंकिंग
देशों
के
जीवन
प्रत्याशा,
शिक्षा
और
आमदनी
के
सूचकांक
के
आधार
पर
तय
की
जाती
है.
जिस
देश
में
असमानता
अधिक
होगी
उस
देश
रैंकिंग
नीचे
होती
है.
इस मर्ज की दवा क्या?
ऐसा नहीं है कि इस देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिये संसाधनों या सामर्थ की कमी है दरअसल इस देश की किसी भी सरकार ने अभी तक भूख और कुपोषण को जड़ से खत्म करने के लक्ष्य के बारे में सोचा तक नहीं है हालांकि हमारे देश और समाज के लिये यह प्रमुख मुद्दा होना चाहिए लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. भारतीय राजनीति में भूख और कुपोषण एक महत्वहीन विषय हैं, समाज के स्तर पर भी यही रुख है. हमारी सरकारें इसे खुले रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है तभी तो इस साल के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंकिग को लेकर केंद्र सरकार ने आलोचना करते हुये इसे अवैज्ञानिक बताया है. केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सूचकांक का विरोध करते हुए कहा है कि "यह जानकर हैरानी हुई कि ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2021 ने कुपोषित आबादी को लेकर किए गए एफएओ के अनुमान के आधार पर भारत की रैंक कम कर दी है, जो जमीनी हकीकत-तथ्यों से परे है."
लेकिन इसके कुछ अपवाद भी रहे हैं, साल 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सावर्जनिक रूप से स्वीकार किया था कि तेजी से प्रगति कर रहे भारत के लिए यह राष्ट्रीय शर्म की बात है कि उसके 42 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है, साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि कुपोषण जैसी बड़ी और बुनियादी समस्या से निपटने के लिए केवल एकीकृत बाल विकास योजनाओं (आईसीडीएस) पर निर्भर नहीं रहा जा सकता. इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा वर्ष 2013 में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून लाया गया. इस कानून की अहमियत इसलिये है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है जिसमें भोजन को एक अधिकार के रूप में माना गया है. यह कानून 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 67 फीसदी आबादी (75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी) को कवर करता है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मुख्य रूप से 4 हकदारियों की बात की गयी है जो योजनाओं के रूप में पहले से ही क्रियान्वयित हैं लेकिन अब एनएफएसए के अंतर्गत आने से इन्हें कानूनी हक का दर्जा प्राप्त हो गया है. इन चार हकदारियों में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), एकीकृत बाल विकास सेवायें (आईसीडीएस), मध्यान भोजन (पीडीएस) और मातृत्व लाभ शामिल हैं. लेकिन 2014 में सरकार बदल जाने के बाद इसे लागू करने में पर्याप्त इच्छा-शक्ति और उत्साह नहीं दिखाया गया. केंद्र और राज्य सरकारों के देश के अरबों लोगों के पोषण सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े कानून को लेकर जो प्रतिबद्धता दिखायी जानी चाहिये थी उसका अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है और उनके रवैये से लगता है कि वो इसे एक बोझ की तरह देख रहे हैं. जुलाई 2017 में सरकारों के इसी रवैये को लेकर देश के सर्वोच्य न्यायालय द्वारा भी गंभीर टिप्पणी की जा चुकी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह बहुत क्षुब्ध करने वाली बात है कि नागरिकों के फायदे के लिए संसद की ओर से पारित इस कानून को ठंडे बस्ते में रख दिया गया है.
यह भी समझाना जरूरी है कि भारत में भूख और कुपोषण की समस्या को देखते हुये खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 एक सीमित हल पेश करता ही है, उपरोक्त चारों हकदारियां खाद्य असुरक्षा की व्यापकता को पूरी तरह से संबोधित करने के लिये नाकाफी हैं और ये भूख और कुपोषण के मूल कारणों का हल पेश नही करती हैं. इसलिये हंगर इंडेक्स में भारत के साल दर साल लगातार पिछड़ते चले जाने के बाद आज पहली जरूरत है कि इसके लिये चलायी जा रहीं योजनाओं की समीक्षा की जाये और इनके बुनियादी कारणों की पहचान करते हुये इस दिशा में ठोस पहलकदमी हो, जिससे आर्थिक असमानता कम हो और सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़े. इसके लिए सरकार की तरफ से बिना किसी बहाने के जरूरी निवेश किया जाये ताकि देश में आर्थिक विकास के साथ-साथ मानव विकास भी हो सके. लेकिन इस दिशा में सबसे पहली जरूरत है देश के गैंगस्टर पूंजीपतियों पर 'उच्च संपत्ति कर' लगाया जाये जो सिर्फ सामाजिक सुरक्षा और मानव विकास की दिशा में व्यय किया जाये.