स्मृति शेष : जाते जाते समाज को संदेश दे गए राजनाथ सिंह सूर्य
लखनऊ। गुरूवार की सुबह साथी का मेसेज मिला कि राजनाथ सिंह सूर्य नहीं रहे। सुनकर झटका लगा। 82 वर्षीय राजनाथ सिंह की गिनती लखनऊ के वरिष्ठतम पत्रकारों में होती थी। अपने अंतिम दिनों में भी वह अखबारों में नियमित कॉलम लिखते रहे। राजनाथ सिंह अयोध्या के एक धर्मभीरु परम्परागत राजपूत परिवार से थे। लेकिन सही मायने में राजनाथ सिंह प्रगतिशील सोच वाले श्रमजीवी पत्रकार थे। ऐसी मान्यता है कि पिता का अंतिम संस्कार पुत्र करे तो मनुष्य को मुक्ति मिलती है। लेकिन राजनाथ सिंह सूर्य ने पहले ही अपने देहदान की घोषणा कर दी थी। पुत्र और भरापूरा परिवार था राजनाथ सिंह का लेकिन उनका मानना था कि मृत्यु के बाद शरीर को अग्नि को सुपुर्द करने से अच्छा है शरीर को दान कर दिया जाये जिससे अंग प्रत्यंग किसी के काम आ सकें। उनकी अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए घर वालों ने उनका पार्थिव शरीर लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज को सुपुर्द कर दिया। परम्परागत परिवार से आने के बावजूद उनकी सोच सही मायने में प्रगतिशील थी। वह राज्य सभा सदस्य और बीजेपी के प्रदेश महामंत्री भी रह चुके थे लेकिन राजनाथ सिंह पहले पत्रकार थे और बाद में और कुछ।
गुजरे सभी बारी बारी
राजनाथ सिंह सूर्य के सानिध्य में बिताए गए करियर के शुरूआती दिन न्यूज़ रील की तरह स्मृति पटल पर चलने लगे। बात 1986 की है तब स्वतंत्र भारत लखनऊ का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार था। स्वतंत्र भारत तब पायनियर लिमिटेड का ब्रांड था। उस समय के पत्रकारों के लिए स्वतंत्र भारत में काम करना एक सपना था। 1986 में काफी पापड़ बेलने के बाद तत्कालीन सम्पादक वीरेंद्र सिंह जी ने मुझे बतौर ट्रेनी काम करना का मौका दिया। लेकिन शर्त थी कि काम बनारस में स्वतंत्र भारत के नए संस्करण में करना होगा। ऑफिस वाराणसी के लहरतारा में था। धीरे धीरे एक साल बीतने को आया। अब भोले बाबा की नगरी में मन रमने लगा था। दोस्त बन गए थे और मैं ट्रेनी से उप सम्पादक बना गया था। तभी 1987 में स्वतंत्र भारत में सत्ता परिवर्तन हुआ। वीरेन्द्र सिंह की जगह प्रधान सम्पादक राजनाथ सिंह को बनाया गया। तब वो अपने नाम के आगे सूर्य नहीं लगाते थे। सम्भवतः तब युवा राजनाथ सिंह (वर्तमान में रक्षा मंत्री) उतने ख्यातिनाम नहीं थे। सम्भवतः कंफ्यूजन से बचने के लिए राजनाथ सिंह ने अपने नाम के अंत में सूर्य लिखना शुरू कर दिया। राजनाथ सिंह के पदभार ग्रहण करने के एक सप्ताह बाद सूचना आई की प्रधान सम्पादक बनारस यूनिट का दौरा करने वरुणा एक्सप्रेस से आ रहे हैं। राजनाथ सिंह से मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था। रात 11 बजे हम करीब एक दर्जन लोग राजनाथ जी की अगवानी करने स्टेशन पहुंचे। वहां हम सब से उन संक्षिप्त परिचय हुआ। मैंने उनसे हाथ मिलते हुए कहा था भाई साहब (तब सम्पादक को सर कहने का चलन नहीं था) हम भी लखनऊ के हैं। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा था अच्छा, यहाँ कैसे आ गये। मिलने के बाद राजनाथ जी सर्किट हाउस चले गए और तय हुआ कि सुबह ऑफिस में सबसे भेंट होगी।
परखी नजर और पारदर्शिता
मेरी ड्यूटी सुबह दस बजे से प्रादेशिक डेस्क पर होती थी। ऑफिस पहुंचा तो राजनाथ जी ऑफिस आ चुके थे। मैनेजमेंट के लोगों से मिलने के बाद सबसे पहले उन्होंने मुझे तलब किया। क्या देखते हो? भाईसाहब प्रादेशिक डेस्क पर हूँ। काम कैसा चल रहा ? मैंने कहा अव्यवस्था है सुधार की जरूरत है। डाक के पैकेट में ख़बरों के साथ अक्सर दो तीन सिगरेट भी निकलते हैं। अच्छा, लेकिन तुमसे लोगों को बहुत शिकायतें हैं। मुझे अच्छी तरह याद है ऐसा कहते हुए राजनाथ जी के चेहरे पर मुस्कान थी और आँखों में ऐसा भाव जैसे कोई अभिभावक शरारती बच्चे को उलाहना दे रहा हो।
मैं अवाक! उन्होंने फिर सवाल दागा, शिवपुर के सम्वाददाता फलाने सिंह को जानते हो? मैंने कहा भाईसाहब वो पत्रकार नहीं अखबार का एजेंट है, उसको दो लाइन हिंदी ठीक से लिखनी नहीं आती। उसकी कई कापी रखी है, कहें तो दिखाऊँ। राजनाथ जी ने कहा कि शिवपुर वाला सुबह सर्किट हाउस में मिलने आया था। कह रहा था की आप भी ठाकुर हैं और मैं भी लेकिन ये जो पंडित है न वो मेरी खबर नहीं लगता, खबर लगाने के बदले मुर्गा और इंग्लिश दारू की मांग करता है। मैंने कहा, मैं तो शाकाहारी हूँ, पान, सिगरेट, तम्बाकू छूता तक नहीं। मेरे चेहरे पे परेशानी थी और उनके चेहरे पर मुस्कान। मैं बोला.. तो हटा दीजिये मुझे प्रादेशिक डेस्क से। तब उन्होंने बस यही कहा था खूब मेहनत से काम करो। उनके कक्ष से निकल कर मैं काम में जुट गया। दोपहर बाद किसी ने बताया कि नोटिस लगी है कि शिवपुर के संवाददाता को तत्काल प्रभाव से हटाया जाता है और परिसर में उसका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया है। यह थी उनकी कार्यशैली और परखी नजर और पारदर्शिता।
अब फंस गये हो तो मन लगा कर काम करो
इसके बाद हर महीने-दो महीने में राजनाथ सिंह जी बनारस आते थे। हर बार मैं उनसे कहता था कि भाई साहब मैं बनारस में फंस गया हूँ, मुझे लखनऊ वापस बुला लीजिये। वो मुस्कराकर कहते, अब फंस गये हो तो मन लगा कर काम करो।
ऐसा करते करते छह माह और बीत गए 1988 की मई का महीना था स्वतंत्र भारत पायनियर की लहरतारा यूनिट में हड़ताल हो गई। दो हफ्ते से काम बंद था, पगार मिली नहीं थी सो मैं लखनऊ आ गया। लखनऊ यूनिट में हड़ताल नहीं थी। मैं वहाँ बतौर ट्रेनी काम कर चुका था सो सब से परिचय था। मैं कुछ देर के लिए सम्पादकीय विभाग में चला जाता था। मुझे वहां बैठा देख उन्होंने पूछा यहाँ क्या कर रहे? खाली क्यों बैठे हो कुछ मदद ही कर दो। उस समय कई जगह लोकसभा उपचुनाव की तैयारी चल रही थी। मैं रोज कुछ घंटे जाकर हाथ बटाने लगा। एक हफ्ते बाद हड़ताल खत्म हो गई। मैं राजनाथ सिंह से वापस बनारस जाने की अनुमति लेने को गया तो उन्होंने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कराते हुए कहा कहाँ जा रह हो, अगर यहाँ काम करोगे तो बनारस वाले तुमको पीटेंगे तो नहीं? कुछ देर समझ नहीं आया, जब समझा तो पता लगा कि राजनाथ सिंह अपने सहयोगियों का कितना ध्यान रखते थे। उन्होंने बनारस से लौटने की मेरी इच्छा पूरी कर दी थी। ऐसे थे राजनाथ सिंह सूर्य।
उस
समय
के
गूगल
थे
राजनाथ
सिंह
सूर्य
इसके बाद उन्होंने मुझे फीचर पेज पर लगा दिया। मैं हरफनमौला खिलाडी था लेकिन जिस दिन राजनीति का पेज निकलता था उस दिन मुझे पसीने छूटते थे। राजनाथ जी पूरा पेज ध्यान से देखते थे और छोटी सी छोटी गलती पर भी टोक देते थे। उनको राजनीति घटनाक्रम की गजब की जानकारी थी। तब गूगल का जमाना नहीं था लेकिन उन्हें नेताओं के नाम और तिथि अद्भुत ढंग से याद रहती थी।
अभी कुछ महीने पहले की ही बात है टीवी पैनल पर आने का अनुरोध किया तो राजनाथ सिंह सूर्य ने कहा था कि उम्र हो गई है, आने में दिक्कत होती है, किसी को घर भेज दो तो बात हो जाएगी। अब राजनाथ जी से कभी बात नहीं हो पाएगी लेकिन उनकी मुस्कान और उनकी सिखाई हर बात हमेशा याद आयेगी। हिंदी पत्रकारिता की जब भी बात होगी तो उनका नाम हमेशा सूर्य की तरह चमकता नजर आयेगा। श्रद्धांजलि।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)