समय है ज्ञान को किताबों से बाहर निकालने का
नई दिल्ली। आज सोशल मीडिया केवल अपनी बात कहने का एक सशक्त माध्यम नहीं रह गया है बल्कि काफी हद तक वो समाज का आईना भी बन गया है क्योंकि कई बार उसके माध्यम से हमें अपने आसपास की वो कड़वी सच्चाई देखने को मिल जाती है जिसके बारे में हमें पता तो होता है लेकिन उसके गंभीर दुष्परिणामों का अंदाजा नहीं होता। ताज़ा उदाहरण सोशल मीडिया पर तेज़ी से वायरल होते एक वीडियो का है जिसमें कॉलेज के युवक युवतियों से हाल के विधानसभा चुनावों के बाद नई सरकार के विषय में उनके विचार जानने की कोशिश की जा रही है। प्रश्नकर्ता हर युवक-युवती से पूछती है कि चुनावों के बाद मध्यप्रदेश का "राष्ट्रपति" किसे बनना चाहिए? किसी ने किसी नेता का नाम लिया तो किसी ने दूसरे का। एक दो ने तो यहां तक कहा कि उसे लगता है कि शिवराज को एक और मौका दिया जाना चाहिए। लेकिन एक भी युवा ने यह नहीं कहा कि प्रश्न ही गलत है क्योंकि राज्य में राष्ट्रपति नहीं मुख्यमंत्री होता है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। प्रश्नकर्ता ने आगे पूछा कि "दिल्ली का राष्ट्रपति" कौन है, तो किसी ने केजरीवाल किसी ने प्रणब मुखर्जी तो किसी ने मोदी का नाम लिया। देश के युवाओं की इस स्थिति पर क्या कहा जाए? इसका दोष किसे दिया जाए? इन बच्चों को? या फिर हमारी शिक्षा प्रणाली को?
यह विषय केवल इन युवाओं का "राजनीति में उनकी रुचि" नहीं होने का नहीं है यह विषय है उनके "सामान्य" ज्ञान का। अपने देश के राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री का नाम जानने के लिए किसी विशेष योग्यता अथवा बड़ी बड़ी और कठिन पुस्तकों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, आवश्यकता होती है थोड़ी सी जागरूकता की। लेकिन जब देश का तथाकथित पढ़ा-लिखा युवा इन सामान्य प्रश्नों पर अपनी अनभिज्ञता जाहिर करता है तो एक साथ कई सवाल खड़े कर देता है। क्योंकि दरअसल यह सिक्के का एक ही पहलू है। सिक्के के दूसरी तरफ वो युवा भी हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में अपने ज्ञान के दम पर शीर्ष पर हैं। बल्कि हमारे देश की कई प्रतिभाओं का तो देश में उचित अवसरों के अभाव में ब्रेन ड्रेनेज तक होता है। यानी एक तरफ वो युवा जिनके पास सामान्य ज्ञान भी नहीं है और दूसरी तरफ वो युवा जो अपने ज्ञान के बल पर विदेशों में भी देश का नाम ऊंचा कर रहे हैं।
क्या हमने कभी सोचा है कि हमारे बच्चों के ज्ञान के विषय में इस प्रकार की विरोधाभास वाली परिस्थितियां क्यों हैं? विषय इसलिए भी गंभीर है क्योंकि हम स्वयं को एक युवा देश कहते हैं और जो युवा इस देश का भविष्य है, उसकी यह स्थिति बेहद चिंतनीय है। लेकिन सिर्फ बच्चों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। हमें यह समझना होगा कि बच्चे देश का भविष्य ही नहीं बुनियाद भी होते हैं। अगर हम अपने देश का भविष्य संवारना चाहते हैं तो हमें देश की शिक्षा नीति और शिक्षण प्रणाली दोनों में वो बुनियादी सुधार लाने होंगे जो हमें क्रांतिकारी परिणाम दें। यह एक कड़वी हकीकत है कि हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति में केवल इन दो-तीन परिस्थितियों में ही बच्चा पढ़ सकता है, (यहां पढ़ने से तात्पर्य केवल साक्षर होना अथवा अक्षर ज्ञान ना होकर ज्ञानोपार्जन लिया जाए)।
1-
जिसके
घर
में
उसके
माता-पिता
में
से
कोई
एक
उसे
पढ़ता
हो
(यानी
बच्चे
के
पढ़ने
के
लिए
माता-पिता
में
से
एक
का
पढ़ा
लिखा
होना
आवश्यक
है)
2-
उसने
ट्यूशन
लगाई
हो
(वर्तमान
परिस्थितियों
में
हम
सभी
जानते
हैं
ट्यूशन
और
कोचिंग
संस्थान
कैसे
फल-फूल
रहे
हैं)
3-
बच्चे
में
खुद
ही
पढ़ने
की
लगन
हो
(जो
बहुत
कम
देखने
को
मिलती
है)
4-
या
वो
यह
समझ
चुका
हो
कि
अपने
घर
की
गरीबी
से
लड़
कर
जीतने
का
एकमात्र
उपाय
पढ़ाई
है
(जब
किसी
रिक्शा
चलाने
वाले
या
अखबार
बेचने
वाले
का
बेटा
या
बेटी
किसी
परीक्षा
में
टॉप
करते
हैं)।
इस
प्रकार
हम
देखते
हैं
कि
लगभग
हर
परिस्थिती
में
बच्चे
को
पढ़ाने
के
लिए
उसका
स्कूल
में
दाखिला
करवाना
ही
पर्याप्त
नहीं
होता।
स्कूल
फीस
देने
के
बाद
ट्यूशन
अथवा
कोचिंग
की
भारी
भरकम
फीस
देनी
पड़ती
है,
नहीं
तो
माता-पिता
में
से
एक
को
बच्चे
को
घर
में
पढ़ाना
पड़ता
है।
नहीं
तो
वो
बच्चा
राष्ट्रपति
प्रधानमंत्री
और
मुख्यमंत्री
के
अंतर
को
भी
नहीं
जान
पाएगा।
काश
कि
हमारी
सरकारें
स्थिति
की
गंभीरता
को
समझतीं
और
केवल
बस्तों
का
बोझ
कम
करने
या
फिर
होमवर्क
ना
देने
जैसे
बचकाने
आदेशों
से
ऊपर
आती
और
शिक्षा
प्रणाली
में
बुनियादी
सुधार
लाती।
इसके
लिए
हमें
ज्ञान
को
किताबों
से
बाहर
निकालने
की
व्यवस्था
करनी
पड़ेगी
क्योंकि
आज
जिस
प्रकार
की
नॉलेज
हम
अपने
बच्चों
को
दे
रहे
हैं
वो
किताब
से
निकल
कर
उत्तर
पुस्तिका
में
पहुंच
कर
समाप्त
हो
जाती
है।
आज
जो
शिक्षा
हम
दे
रहे
हैं
वो
मार्क्स
यानी
नंबरों
या
परसेंटेज
में
तो
परिवर्तित
हो
कर
खत्म
हो
जाती
हैं
"ज्ञान"
में
बदल
कर
हमेशा
के
लिए
जेहन
में
जीवित
नहीं
रहतीं।
वैसे भी कहते हैं कि पोथिगत विद्या और गढ़ा हुआ धन किसी काम का नहीं होता। काश कि हमारी शिक्षा नीति बनाने वाले बुद्धिजीवी समझ पाते कि पोथियों से मिलने वाला ज्ञान ना सिर्फ एक बालक के लिए नीरस होता है बल्कि वो अंततः पोथियों में ही सिमट कर रह जाता है। इसलिए अगर हम अपने देश का भविष्य संवारना चाहते हैं तो हमें उसकी बुनियाद पर ध्यान देना होगा। शिक्षा नीति ऐसी हो कि बालक को शिक्षा बोझ ना लगे, किताबी ज्ञान से ज्यादा फोकस व्यवहारिक ज्ञान पर दिया जाए, उसे एक रट्टू तोता बनाने के बजाए उसके व्यक्तित्व निर्माण पर ध्यान दिया जाए। कक्षायें अधिक से अधिक क्लासरूम में नहीं एक्चुअल फील्ड में लगाई जाएं। पढ़ाई वो ही नहीं हो जो टीचर ने बताया और बच्चों ने उसे याद कर लिया बल्कि वो हो जो गुरु ने समझाया और बच्चों ने उसे महसूस किया। रोचक कहानियों के माध्यम से कूटनीति, राजनीति, मनोविज्ञान और व्यवहारिक ज्ञान बालकों को देने का पंचतंत्र एक सर्वश्रेष्ठ उदहारण है और प्राचीन गुरुकुल परंपरा बालक को उसके पसंद के विषय में निपुण करने की एक श्रेष्ठ पद्धति। आज के इस आधुनिक युग में तो बच्चों के शिक्षा को रोचक बनाने के अनेकों उपाय मिल जाएंगे आवश्यकता है बस दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ एक ठोस पहल की।
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)