कांग्रेस की काया को कलह के घुन से बचाने की दरकार
नई दिल्ली। किसी भी दल अथवा संगठन को आंतरिक कलह से बचाकर ही उसे सक्रिय और लोकप्रिय किया जा सकता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए यह वाक्य कुछ बेमानी सा लग रहा है। पार्टी में लगातार आंतरिक कलह बढ़ रहा है। स्वाभाविक है, इससे पार्टी का ही नुकसान होगा। सो हो रहा है। हर तरफ से पार्टी नेताओं के झगड़े की खबरें आ रही हैं। इसे देखने वाला कोई नहीं है। उधर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अभी भी कांग्रेस के साथ अपने पद को लेकर दुविधा में हैं क्योंकि 25 मई को उन्होंने कहा था कि वह लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ रहे हैं। इस पर कांग्रेस ने कहा था कि राहुल का पद छोड़ने का सवाल ही नहीं उठता।
कुछ नेताओं ने राहुल को अपना फैसला बदलने के लिए मनाने की कोशिश भी की थी। हालांकि अभी तक यह साफ नहीं है कि राहुल गांधी पद पर बने रहेंगे या हटेंगे या फिर वह अस्थायी तौर पर तब तक काम करते रहेंगे जब तक उन्हें कहीं और प्रतिस्थापित नहीं कर दिया जाता। राजस्थान, पंजाब, तेलंगाना, हरियाणा और मध्य प्रदेश में शातिर गुटबाजी के बीच तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी थी और केसीआर में शामिल हो गए। इन सबके बाद राहुल गांधी नेताओं से मिलने से इनकार कर रहे हैं, आखिर कैसे वह अपनी स्थिति की व्याख्या करें या फिर कैसे संकट की स्थिति में उन्हें संबोधित करें।
कांग्रेस में आंतरिक कलह
इस तरह के कुछ सवाल सियासी हलकों में तैर रहे हैं, जिनका जवाब जानना जरूरी है।आपको बता दें कि राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में अशोक गहलोत, कमलनाथ और पी चिदंबरम की ओर इशारा करते हुए कहा था कि वह अपने बेटों के चुनाव में ध्यान लगाए हुए थे और उनके लिए पितृत्व का भाव पार्टी की जरूरत से बड़ा था। वहीं राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत का डिप्टी सीएम सचिन पायलेट से पहले ही मतभेद चल रहा है। गहलोत ने कहा था कि पायलट मेरे बेटे की जोधपुर सीट से हार की जिम्मेदारी लें। जोधपुर सीट से अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत 2.7 लाख वोटों से हार गए थे। इस बीच, पायलट का वह कैंप जिसका मानना है कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था, अब राजस्थान में आए कांग्रेस के लोकसभा के नतीजों का उपयोग कर रहा है। इस कैंप का दावा है कि अब उनके पास राज्य का प्रभार लेने का समय है। पायलट अकेले ऐसे उत्तराधिकारी नेता हैं जिन्होंने पांच साल के लिए राज्य प्रमुख की जिम्मेदारी संभाली और उन्होंने दिसंबर में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित की। सूत्रों का कहना है, उन्होंने सीएम पद के लिए कभी गहलोत से मेल मिलाप नहीं किया और अब वह डिप्टी सीएम के पद से इस्तीफा देने का विचार कर रहे हैं। अगर वह ऐसा करते हैं तो वह कहेंगे कि वह लोकसभा चुनावों के नतीजों की जिम्मेदारी ले रहे हैं और जन संपर्क यात्रा शुरु करेंगे।
पार्टी नेताओं के बीच विवाद
वहीं पंजाब में सीएम अमरिंदर सिंह, राहुल गांधी से नवजोत सिंह सिद्धू के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। कैप्टन के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बोलना सिद्धू ने अपनी आदत बना ली है। कैप्टन ने पिछले दिनों पंजाब कैबिनेट की मीटिंग भी बुलाई थी जिसमें सिद्धू ने भाग नहीं लिया। जिसके बाद कैप्टन ने सिद्धू का पोर्टफोलियो बदल दिया। सूत्रों का कहना है कि सिद्धू ने राहुल गांधी से पब्लिक मेल्ट डाउन से पहले बात करने की कोशिश की थी जहां उन्होंने कहा था कि वह परफॉरर्मर हैं जो रिजल्ट देते हैं और उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार को पहले ही बीजेपी से खतरा है क्योंकि वह सरकार गिराने की प्लानिंग कर रही है। अगर वह वापस लड़ने की कोशिश करते हैं तो उनके प्रतिद्वंद्वी ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह चाहते हैं कि उन्हें राज्य प्रमुख के रूप में हटा दिया जाए। सिंधिया ने अपने परिवार की गुना सीट को खो दिया है और अब वह राज्य प्रमुख बनना चाहते हैं। लेकिन दिग्विजय सिंह भोपाल के चुनाव में हारे हैं और वह चाहते हैं कि सिंधिया को राज्य का प्रमुख नहीं बनाया जाए। वहीं सोनिया गांधी ने बीते दिनों सभी राज्यों के प्रमुखों को कहा था कि वह इस बात को लिखित में दें कि वह चुनाव क्यों हारे। कुछ नेता इसे लिखित रूप में स्कोर को व्यवस्थित करने के अवसर के रूप में भी देखते हैं।
राहुल का इस्तीफे की पेशकश
सूत्रों का कहना है कि गांधी के इस्तीफे की पेशकश का मकसद कामराज प्लान 2 को शुरू करना था, जो इस्तीफा देने के खिलाफ उनके द्वारा बोले गए नेताओं को शर्मिंदा करेगा। ऐसा नहीं हुआ, लेकिन गांधी ने साफ कर दिया था कि वह पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। यूं कहें कि कांग्रेस को कलह का घुन बरबाद किए जा रहा है। पार्टी की चिंता करने वाले नेताओं को चाहिए कि वह कांग्रेस को बचाने के लिए आंतरिक कलह से खुद को दूर करें और संगठन को मजबूत बनाने के लिए काम करें, वरना धीरे-धीरे कांग्रेस इतिहास बन जाएगी। जबकि अभी देश को कांग्रेस की जरूरत है। क्योंकि राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी नहीं विचार और विचारधारा है। उसे बचाना चाहिए।हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत इकत्तीस से बढ़कर अड़तीस हो गया है। बंगाल में प्रदर्शन आशातीत रहा है। सपा-बसपा गठबंधन की सारी धूमधाम खोखली साबित हुई है। भोपाल जैसी सीट पर आतंकवादी गतिविधियों के आरोपी गोडसे की प्रशंसिका महोदया को टिकट दिए जाने पर वितृष्णा तो दूर की बात, आइएएस, आइपीएस अधिकारियों के इलाकों के मतदान केंद्रों तक पर उन्हें जबर्दस्त समर्थन हासिल हुआ है।
कांग्रेस में दरार की वजह
शेक्सपियर के नाटक, हेमलेट की पंक्ति याद आती है, देयर इज समथिंग रॉटेन इन दि स्टेट ऑफ डेनमार्क (कुछ सड़ांध है यहां)। इस सड़ांध की जड़ में बरसों से चलाया जा रहा वह अभियान है जो गांधी और नेहरू को राष्ट्रीय खलनायकों के तौर पर पेश करता रहा है। आरएसएस और हिंदुत्ववादी विचारकों की दशकों की वह कोशिश है जो जनता की सहज देशभक्ति को संकीर्ण राष्ट्रवाद की ओर ले जाती रही है। हिंदू चित्त का सैनिकीकरण बड़ी हद तक हो चुका है, लोगों के राजनैतिक चुनावों, राजनीतिक प्रक्रिया का हिंदूकरण भी अब सच्चाई है। यह लोगों के धर्म परायण हो जाने का प्रमाण नहीं है। सावरकर इस मामले में एकदम स्पष्ट थे। उन्होंने हिंदुत्व नामक पुस्तक की शुरुआत में ही साफ कह दिया था, कि हिंदुत्व का उस अस्पष्ट, सीमित और संकीर्ण शब्द हिंदुइज्म से कोई लेना-देना नहीं है।
कांग्रेस खुद को कितना बचा पाती है?
विडंबना यह है कि कांग्रेस पिछले कई बरसों से इस समावेशी, प्रगतिशील राष्ट्रवाद की जमीन से फिसलती गयी है। हद यह है कि कांग्रेस के मंचों पर ही नहीं, नीति-निर्धारण केंद्रों तक में ऐसे लोग नजर आए हैं, जिन्हें भारत माता की जय का नारा तक आपत्तिजनक लगता है। देशभक्ति और राष्ट्रीयता की चर्चा तक जिन्हें नागवार गुजरती है। ऐसे लोगों की विशेषज्ञता का उपयोग पार्टी नेतृत्व करे, यह तो समझ में आता है, लेकिन ऐसे लोग नीतियों का भी निर्धारण करने लगेंगे तो वही होगा जो हुआ है। कांग्रेस के सामने इस वक्त सचमुच अस्तित्व का संकट है। इससे निपटने का एक ही रास्ता है, कांग्रेस को अपने वैचारिक आधार पर पुनर्जीवित करना। इस काम के लिए सलाह चाहे जितने विशेषज्ञों से, सोशल एक्टिविस्टों से ले ली जाए, लेकिन मूल आधार होंगे, गांधी, नेहरू और पटेल जैसे नेताओं के वाद-विवाद और संवाद। बहरहाल, देखना यह है कि कांग्रेस खुद को कितना बचा पाती है?