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क्या नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोक देगा बिहार?

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा नीत एनडीए से अलग हो चुके हैं और दावा कर रहे हैं कि वह विपक्षी दलों को नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक करने का काम करेंगे। राजनीतिक जानकार नीतीश की इस कोशिश को प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से जोड़कर देख रहे हैं, लेकिन इससे इतर बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार भाजपा और नरेंद्र मोदी के 2014 से लगातार चल रहे अश्वमेघी रथ को रोक देगा? याद हो तो बिहार 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी के रामरथ को रोक चुका है। तो क्या नरेंद्र मोदी के विजय रथ का लगाम भी यही राज्य थामेगा?

bjp in bihar after nitish kumar alliance

आंकड़ों के नजरिये से बिहार भाजपा के लिये महत्वपूर्ण राज्य रहा है। बीते लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बिहार में 39 सीटें जीती थीं, लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में भाजपा और नरेंद्र मोदी की आगे की राह आसान नहीं दिख रही है।

2014 के मोदी लहर में एनडीए ने 28 सीटें बिहार से हासिल की थी, लेकिन तब जदयू और राजद अलग अलग चुनाव मैदान में उतरे थे। इस बार यह दोनों दल एक साथ हैं। इनके साथ कांग्रेस, तीनों वामदल और जीतन राम मांझी की हम भी शामिल है, जो बिहार की मजबूत सियासी ताकत है। जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में जब एनडीए के कई प्रमुख सहयोगी गठबंधन से बाहर हो चुके हैं तो भाजपा के लिये पुराने प्रदर्शन को दोहराना आसान नहीं रहने वाला है। बिहार में महागठबंधन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती बन सकता है। महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकाली दल तथा अब बिहार में जदयू के अलग राह चुन लेने से भाजपा की मुश्किलें 2024 में बढ़ेंगी। बिहार में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का असर उत्तर प्रदेश के भी सीमावर्ती लोकसभा सीटों पर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता है।

नीतीश कुमार केवल एनडीए और मोदी का विजय रथ रोकने की कोशिश में ही नहीं जुटे हुए हैं बल्कि वह अपने लिए भी संभावनाएं तलाश रहे हैं। नीतीश जब भाजपा नीत एनडीए गठबंधन से अलग हो चुके हैं तब एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर क्यों नीतीश 2020 के विधानसभा चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बता रहे थे? क्या इस बयान के जरिये वह जनता की सहानुभूति हासिल करना चाहते थे या फिर उनके दिमाग में कुछ और चल रहा था? नीतीश का अगला कदम क्या होगा उनके विरोधी तो दूर समर्थक भी नहीं जान सकते हैं। इसीलिए लालू यादव ने एक बार नीतीश कुमार को लेकर कहा था कि उनके पेट में दांत है। बहरहाल, अगर भाजपा को बिहार में नुकसान होता है तो इसका सीधा असर दिल्ली की कुर्सी पर पड़ेगा।

नीतीश सार्वजनिक तौर पर भले ही इनकार करते हों, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की उनकी महत्वाकांक्षा पुरानी है। लंबे समय से वह इस कुर्सी को पाने का सपना देख रहे हैं। राजद के सहयोग से रिकार्ड आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश कुमार ने जब धर्मनिरपेक्षता का सहारा लेते हुए 2013 में एनडीए से गठबंधन तोड़ा था, तब वह खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानकर चल रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने पटना में भाजपा कार्यसमिति के लिये आयोजित रात्रि भोज को नरेंद्र मोदी का कटआउट लगाये जाने से नाराज होकर रद्द कर दिया था। इस कदम से भाजपा को शर्मिंगदगी उठानी पड़ी थी, जबकि महत्वाकांक्षी नीतीश के बारे में यह माना गया कि अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को मजबूत करने की कोशिश में यह कदम उठाया है ताकि गैर भाजपा दलों की धुरी बनने की राह में सांप्रदायिकता के रोड़े ना अटके।

खैर, मोदी की प्रचंड लहर ने नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा पर पानी फेर दिया। 2014 में भाजपा ने बिहार में 22 तथा सहयोगी दल लोजपा ने 6 सीटों पर जीत हासिल कर नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर तुषारापात कर दिया। जदयू को केवल दो सीटें मिलीं। वर्ष 2017 में नीतीश कुमार ने एनडीए गठबंधन में वापसी की और 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा। भाजपा को 17, जदयू को 16 तथा लोजपा को 6 सीटें मिलीं। मुख्यमंत्री पद पर वह बीते 17 सालों से लगातार जमे हुए हैं, इसलिए अब देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर उनकी नजर है। अब नीतीश उम्र के जिस पड़ाव पर हैं, वहां से उनके पास बहुत आगे की राजनीति नहीं बची है। इसी वजह से वह 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में अपने लिये आखिरी मौका देख रहे हैं।

पर, इन सब के बीच बड़ा सवाल यह है कि 2013 और 2022 के बीच नीतीश कुमार की स्वीकार्यता कितनी बची है? बिहार की राजनीति में अब उनकी अहमियत कितनी रह गई है? बीते नौ सालों में नीतीश कुमार की छवि और लोकप्रियता जनता के बीच लगातार कम हुई है। इस बात की गवाही जदयू के चुनावी आंकड़ों से मिल सकता है। वर्ष 2013 में जब नीतीश एनडीए से अलग हुए थे, तब बिहार में वह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं बड़ा चेहरा थे। बिहार की राजनीति उनके इर्दगिर्द सिमटी हुई थी। वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में जनता ने नीतीश के नाम पर एनडीए गठबंधन को प्रचंड बहुमत दिया था। 243 विधानसभा सीटों में गठबंधन को 206 सीटों पर बड़ी जीत मिली थी। जदयू 115 तथा भाजपा 91 सीटों पर सफल रही थी। तीसरी बड़ी ताकत राजद केवल 22 सीटों पर सिमट गई थी।

2010 के चुनाव के बाद बिहार में राजद का अवसान माना जाने लगा था, लेकिन नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा ने उसे जीवनदान दे दिया। 2015 में महागठबंधन एवं 2020 में एनडीए गठबंधन के साथ लड़कर नीतीश कुमार सीएम जरूर बने, लेकिन इस बीच उनकी ताकत लगातार कमजोर होती चली गई। 2015 में जदयू को राजद के 80 के मुकाबले 71 सीटें मिलीं तो 2020 में भाजपा के 74 सीटों के मुकाबले जदयू 43 सीटों तक जा पहुंची। सवाल है कि अपनी घटती लोकप्रियता एवं जनता पर कमजोर होती पकड़ के बीच क्या नीतीश कुमार बिहार की 40 लोकसभा सीटों में इतनी सीट निकाल लायेंगे, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पार्टी की प्रासंगिकता बनी रहे? इस कुर्सी के लिये नीतीश का मुकाबला केवल नरेंद्र मोदी से नहीं है बल्कि राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल के साथ एंटी इनकैम्बेंसी फैक्टर भी उनकी राह में बाधा बनकर खड़ी होगी।

नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी से खुद को अलग करते हुए विपक्ष को एकजुट करने की बात कही है, लेकिन क्या यह इतना आसान है? नरेंद्र मोदी और भाजपा के विरोध के नाम पर विपक्षी दल भले साथ आयें, लेकिन इसे एक छत के नीचे लाने का काम कांग्रेस के अलावा किसी भी क्षेत्रीय दल के बूते का नहीं होगा। भाजपा नीत एनडीए का कुनबा लगातार छोटा होता जा रहा है, लेकिन मजबूत गठबंधन बनाये बगैर मोदी सरकार को अपदस्थ करना विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं होने वाला है। भाजपा सरकार की लोकप्रियता कम जरूर हुई है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इस स्थिति में नहीं है कि वह विपक्षी एकता की धुरी बन सके। ऐसे में क्या नीतीश कुमार बिहार-झारखंड से इतनी सीट लेकर आयेंगे कि वह विपक्षी दलों से अपनी शर्तों पर बात कर सकें?

नीतीश कुमार के लिये यह इतना आसान तो नहीं दिख रहा है, लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल है। ऐसा माना जा रहा है कि बिहार में नीतीश कुमार जातीय जनगणना के मुद्दे के सहारे हिंदुत्व की धार को कमजोर करने का प्रयास कर सकते हैं। राजद तो पहले से ही जातीय जनगणना की मांग करती रही है और जदयू भी इसे लेकर सहज रही है। माना जा रहा है कि नीतीश कुमार इस मुद्दे के जरिये भाजपा को परेशान कर सकते हैं। नीतीश कुमार भले ही घोर हिंदुवादी दल भाजपा के साथ मंच शेयर करते रहे हों, लेकिन उनके प्लान बी में धर्मनिरपेक्षता, मंडल की सियासत और सामाजिक न्याय के मुद्दे पहले से शामिल रहे हैं।

ऐसे हालात में इतना तो कहा ही जा सकता है कि बिहार में भले ही नरेन्द्र मोदी का विजय रथ रुके या न रुके, उसकी राह में रोड़े तो अटकाये ही जा सकते हैं। हालांकि बीजेपी भी इससे निपटने की तैयारियों में जुट गयी है। दिल्ली की कोर कमेटी की बैठक में बीजेपी ने तय किया है कि वह बिहार में छोटे दलों को अपने साथ लाने का प्रयास करेगी। साथ ही चिराग पासवान और पशुपति पारस के बीच सुलह समझौता करायेगी। इसके साथ ही बिहार में भाजपा नीतीश के खिलाफ पोल खोल अभियान भी चलायेगी। 2024 में पहली बार बिहार में उच्च जातियों पर फोकस करके मैदान में उतरेगी।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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