क्विक अलर्ट के लिए
अभी सब्सक्राइव करें  
क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

बाबरी मस्जिद विध्वंस: बाकी है सजा एक गुनाह की

By संजय रोकड़े
Google Oneindia News

नई दिल्ली। 4 जून 2020, गुरूवार को फिर एक बाबरी मस्जिद विध्वंस के कई आरोपी विशेष सीबीआई अदालत में अपना बयान दर्ज करने नही पहुंचे। इस बयान को कोरोना वायरस की वजह से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए दर्ज किया जाना था और इस बात को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 8 मई को ही सभी आरोपियों को ताकीद कर दिया था लेकिन इस बात का असर चार आरोपियों को छोडक़र किसी पर नही पड़ा। जबकि इस मामले में कुल 32 आरोपी है।

Babri Masjid demolition case, cbi , Babri Masjid , uttar pradesh, ayodhya, ram mandir, bjp. , बाबरी मस्जिद, अयोध्या, भाजपा

इनमें से जो चार आरोपी अपना बयान दर्ज कराने के लिए लखनऊ की विशेष सीबीआई अदालत में पेश हुए उनमें भाजपा के पूर्व सांसद व राम मंदिर आंदोलन के जाने माने चेहरे विनय कटियार, राम विलास वेदांती, संतोष दुबे और विजय बहादुर सिंह शामिल थे। इन सबने अदालत में पेश होकर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 313 के तहत अपना बयान दर्ज कराया। जबकि अन्य आरोपियों ने अदालत में किसी दूसरी तारीख पर पेश होने की छूट हासिल कर ली। आपको बता दे कि इस मामले में वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, साध्वी उमा भारती, राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कल्याण सिंह, साध्वी रितंभरा और विश्व हिंदू परिषद के नेता चंपत राय बंसल सहित कई आरोपी है।

काबिलेगौर हो कि पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में 1992 में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस से संबंधित मुकदमे की सुनवाई पूरी करने के लिए विशेष अदालत का कार्यकाल तीन महीने के लिए बढ़ा दिया था। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस मामले में 31 अगस्त तक फैसला सुनाया जाना चाहिए। पीठ ने विशेष न्यायाधीश से कहा कि वह साक्ष्य कलमबंद करने और मुकदमे की सुनवाई के दौरान दायर आवेदनों पर सुनवाई पूरी करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा का उपयोग करे। इससे पहले पीठ ने पिछले साल नौ जुलाई को विशेष न्यायालय से कहा था कि वह नौ महीने के भीतर मुकदमे की कार्यवाही पूरी करके अप्रैल के अंत तक अपना फैसला सुनाएं। शीर्ष अदालत ने नौ जुलाई के अपने आदेश में विशेष न्यायाधीश एसके यादव का कार्यकाल भी इस मुकदमे की सुनवाई पूरी होने तक की अवधि के लिए बढ़ा दिया था।

इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने विशेष न्यायाधीश एसके यादव से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही को कानून के अनुसार नियंत्रित करें ताकि इसकी सुनवाई निर्धारित समय के भीतर पूरी की जा सके। इधर जस्टिस आरएफ नरिमन और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से इस मामले की सुनवाई करते हुए विशेष अदालत में चल रहे मुकदमे की कार्यवाही पूरी करने के लिए नयी समय सीमा निर्धारित करते हुए कहा कि साक्ष्य कलमबंद करने और मुकदमे की सुनवाई के दौरान दायर आवेदनों पर सुनवाई पूरी करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रें सुविधा का उपयोग करें। आज इसी आदेश का पालन करते हुए सभी आरोपियों के बयान लेने थे लेकिन सबक सब पहुंचे ही नही।

बता दें कि इस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती के साथ ही राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कल्याण सिंह, पूर्व सांसद विनय कटियार और साध्वी रितंभरा के खिलाफ विवादित ढांचा गिराने की साजिश में शामिल होने का आरोप सुप्रीम कोर्ट ने 19 अप्रैल, 2017 के आदेश में बहाल कर दिया था। इस मामले के आरोपियों में से विहिप नेता अशोक सिंघल, विष्णु हरि डालमिया की मुकदमे की सुनवाई के दौरान मृत्यु हो जाने की वजह से उनके खिलाफ कार्यवाही खत्म कर दी गई थी।

सब अच्छे से जानते है कि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद जितना पुराना विवाद कोई नहीं है। सदियों से हिंदू और मुसलमान उस जमीन पर अपना दावा पेश करते रहे है। पर सवाल है कि 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में विवादित जमीन पर हिंदुओं को मालिकाना हक दिए जाने के साथ अदालती कार्रवाई का अंत हो गया तो फिर इसके बाद भी आरोपियों के बयान और तारीख का मामला समझ में नही आता है। सवाल सही में भी। हर आम और खास इंसान के दिलों- दिमाग में उठेगा।

लेकिन बता दे कि फैसले के तुरंत बाद जो लोग बाबरी मस्जिद को गिराने (1992) में शामिल थे, उन्होंने भी खुद के निर्दोष होने और राहत महसूस करने की घोषणा की थी मगर यह बात ध्यान रखने की है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बाबरी मस्जिद के विध्वंस को सही नहीं ठहराया था। कोर्ट ने बार-बार यही कहा कि विध्वंस गैर कानूनी और कानून का खुला उल्लंघन था। मस्जिद के विध्वंस की घटना पर अदालत के फैसले के नतीजे का कोई असर नहीं पडऩे वाला है। विध्वंस का मुकदमा 27 वर्ष से अदालतों में चलता आ रहा है। अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभियुक्तों को मुख्य रूप से सीबीआइ के व्यवहार... और कुछ ऐसी तकनीकी खामियों के कारण सजा नहीं दी जा सकी जिन्हें आसानी से दूर किया जा सकता था, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें दूर नहीं किया।

इसकी पेचिदगी और केश की तमाम सच्चाई को विस्तार से जानने- समझने के लिए थोड़ा अतीत में चलते है। अगर हम सरसरी तौर पर गुजरे वक्त को देखें तो 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने ओबीसी को शिक्षा संस्थानों में जाति के आधार पर आरक्षण देने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया था और शायद यही उसकी पहल तथाकथित हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों का वजूद मजबूत करने की वजह बन गई।

इसके तुरंत बाद ही 1990 के सितंबर-अक्तूबर में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की प्रसिद्ध रथयात्रा देश में निकल पड़ी। एक तरह से देखा जाए तो यह यात्रा राम मंदिर के निर्माण का आमजन में अलख जगाने से कहीं अधिक बहस को दूसरी तरफ मोडऩे की कोशिश की शुरुआत भी थी। हिंदू संगठनों खासकर आरएसएस को डर था कि मंडल की बहस से हिंदू कहीं जाति के आधार पर आपस में बंट न जाएं। इसलिए मंदिर और मस्जिद के सवाल पर एक बड़े ध्रुवीकरण के मकसद से उस समय पूरी बहस को मोडऩे की कोशिश की गई।

1992 में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने घोषणा की कि अयोध्या में मंदिर का काम शुरू करने के लिए 6 दिसंबर का दिन चुना गया है। इसके बाद नवंबर के महीने में हजारों कारसेवक अयोध्या में जमा हो गए। इन कारसेवकों में ब्राहम्णों से कहीं अधिक तादात में ओबीसी और एसी, एसटी के युवा शामिल थे।

बतौर सावधानी केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अयोध्या से एक घंटे की दूरी पर 20 हजार अर्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया और उन्हें निर्देशित किया कि जरूरत पडऩे पर वे अयोध्या पहुंच जाएं। लेकिन 6 दिसंबर को मस्जिद की सुरक्षा का जिम्मा उत्तर प्रदेश पुलिस पर छोड़ दिया गया। बताते है कि पुलिस के जवानों की संख्या कम पड़ गई और वे वहां से जवान भाग गए। दरअसल यह भी अब तक शंका और संशय पैदा करने वाला सवाल ही बना हुआ है।

इसके बाद ही बाबरी मस्जिद पर हमला हो गया। मस्जिद पर पहला हमला करीब-करीब दोपहर में हुआ और तीसरे पहर के 5 बजे तक पूरी मस्जिद मलबे में तब्दील हो चुकी थी। मस्जिद के विध्वंस के कुछ ही मिनटों बाद दो प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआइआर) दर्ज की गई। पहली एफआइआर (1992 का अपराध नंबर 197) हजारों अज्ञात कार सेवकों के खिलाफ दर्ज की गई, जिसमें डकैती, चोट पहुंचाने, सार्वजनिक पूजास्थल की जगहों को अपवित्र करने, धर्म के आधार पर दो समूहों के बीच में दुश्मनी पैदा करने जैसे आरोपों के साथ दर्ज हुई।

दूसरी एफआइआर (1992 का अपराध नंबर 198) आठ व्यक्तियों के खिलाफ थी- जिनमें लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल, विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर और विष्णु हरि डालमिया के नाम शामिल थे। ये सभी संघ परिवार- भारतीय जनता पार्टी, विहिप और दूसरे संगठनों के नेता थे जो मस्जिद की जगह के निकट एक मंच पर मौजूद थे और कारसेवकों को मस्जिद गिराने के लिए उकसा रहे थे। एफआइआर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए (धर्म के आधार पर दो अलग-अलग समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाने), 153बी (राष्ट्रीय एकता को लांछित करना और हानि पहुंचाना), धारा 505 (सार्वजनिक उद्दंडता को प्रेरित करना) के तहत दर्ज की गई थी।

बाद में 47 अन्य एफआइआर भी दर्ज की गई। राज्य सरकार ने 8 सितंबर, 1993 को उस समय राष्ट्रपति शासन के अधीन इलाहाबाद हाइकोर्ट की सलाह से एक अधिसूचना जारी करके सभी मामलों को लखनऊ की एक विशेष अदालत में स्थानांतरित कर दिया। कानून के तहत हाइकोर्ट की सलाह लेना अनिवार्य थी। कारसेवकों के खिलाफ दर्ज पहली एफआइआर विधिवत विशेष अदालत को सौंपी गई थी। महत्वपूर्ण रूप से और अस्पष्ट रूप से दूसरी एफआइआर के साथ ऐसा नहीं किया गया। इसलिए पहली एफआइआर जहां सीबीआइ को सौंप दी गई, वहीं दूसरी एफआइआर पर कार्रवाई सीआइडी के लिए छोड़ते हुए उसे रायबरेली की अदालत में सुनवाई के लिए भेज दिया गया।

8 अक्तूबर,1993 को राज्य सरकार ने अधिसूचना में संशोधन किया ताकि दूसरे मामले को विशेष अदालत में स्थानांतरित किया जा सके। सरकार की तरफ से यह अधिसूचना हाइकोर्ट की सलाह के बिना ही जारी कर दी गई। सीबीआइ ने 1996 में आठ आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ एक पूरक आरोप-पत्र लखनऊ में विशेष न्यायाधीश की अदालत में दाखिल किया। 9 सितंबर 1997 को विशेष न्यायाधीश ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि भारतीय दंड संहिता की अन्य धाराओं के साथ धारा 120 बी के तहत सभी आठ आरोपियों के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है।

अदालत ने कहा कि सारे अपराध एक ही घटना के समय किए गए थे, उनके खिलाफ संयुक्त रूप से मामला बनता है और लखनऊ में एक विशेष न्यायाधीश के समक्ष उन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए। इसके बाद आरोपियों की एक अपील पर हाइकोर्ट ने विशेष अदालत के इस निष्कर्ष के बावजूद कि उनके खिलाफ संयुक्त मुकदमे का मामला बनता है, 8 अक्तूबर की अधिसूचना को इस आधार पर अवैध करार दे दिया कि हाइकोर्ट से सलाह नहीं ली गई थी।

Akhil Sr, [05.06.20 19:13]
इसलिए विशेष अदालत को दूसरी एफआइआर (जिसमें आठ आरोपियों के नाम थे) पर सुनवाई का अधिकार नहीं था। हाइकोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य सरकार अगर हाइकोर्ट की सलाह लेकर एक संशोधित अधिसूचना पारित कर दे तो इस खामी को दूर किया जा सकता है। सीबीआइ ने 8 अक्तूबर, 1993 की अधिसूचना की खामी को दूर करने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव से अनुरोध किया लेकिन उस अनुरोध को खारिज कर दिया गया। सीबीआइ ने अपना अनुरोध खारिज किए जाने के फैसले को चुनौती देने के बजाए रायबरेली में न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित मुकदमे में आठ व्यक्तियों के खिलाफ एक पूरक आरोप-पत्र दाखिल किया।

इसकी वजह से विशेष अदालत ने 4 मई, 2001 के एक आदेश से दूसरी एफआइआर पर मुकदमा हटा दिया। मई 2010 में हाइकोर्ट ने मुकदमा खारिज करने के फैसले को सही ठहराया। इस तरह दूसरी एफआइआर और आठ व्यक्तियों के खिलाफ साजिश के आरोप कहीं दफन हो गए। आखिरकार मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अप्रैल 2017 को दिए गए एक फैसले में जस्टिस आर.एफ. नरीमन और जस्टिस पी.सी. घोष ने हाइकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया।

दूसरी एफआइआर का मामला लखनऊ की विशेष अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया और उसे अतिरिक्त आरोप दर्ज करने का अधिकार भी दे दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामला ऐसे अपराध से जुड़ा है जो भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को झकझोर देने वाला है। सुप्रीम कोर्ट ने सख्त निर्देश दिया कि सभी मामलों में दैनिक रूप से सुनवाई की जाए। कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि मुकदमे की सुनवाई करने वाले जज का तबादला नहीं किया जाए। इसके अलावा जांच एजेंसी को यह भी सुनिश्चित करना था कि सबूत दर्ज करने के लिए तय हर तारीख पर अभियोग लगाने वाले कुछ गवाहों को पेश किया जाए और उनसे जिरह की जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि ट्रायल कोर्ट को अपना फैसला (अप्रैल 2017 से) दो साल के भीतर देना है। जुलाई 2019 में यह समय सीमा छह महीने के लिए बढ़ा दी गई। अदालत ने विशेष जज के कार्यकाल को भी मुकदमा पूरा होने तक बढ़ा दिया। सुप्रीम कोर्ट के ताजा हस्तक्षेप के बाद विशेष अदालत के समक्ष मुकदमे की सुनवाई जनवरी 2020 तक पूरी होनी थी लेकिन अभी जून आ गया है।

बताते चले कि बाबरी मस्जिद का आपराधिक विध्वंस स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी में हुआ था और राज्य की मशीनरी ने इतने वर्षों में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने और उन्हें सजा दिलाने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। जमीन पर मालिकाना हक के विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बहुत-से हलकों में इस मामले के बंद होने और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की कड़वाहट को पीछे छोडक़र आगे बढऩे की बातें चलती रही लेकिन इसके लिए जरूरी है कि विध्वंस के आरोपियों को उनके अपराध के लिए सजा मिले।

इसमें कोई दो राय नही है कि लंबे समय से चले रहे इस बहु प्रतीक्षित मुकदमे के खत्म होने के बाद विध्वंस के आरोपियों को माफ नहीं किया जाना चाहिए-क्योंकि यह भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और कानून के शासन पर बहुत भारी चोट थी। पर जिस तरह से आरोपियों की हिलाहवाली हो रही है और जैसे हालात निर्मित होते जा रहे है उसे देख कर तो नही लगता है कि अपराधियों का कोई कुछ बिगाड़ पाएगा। अब केन्द्र और राज्य में जिस राजनीतिक दल और विचारधारा के लोग सत्ता शासक बन कर बैठे है उनकी नीति और नियत भी ऐसा कुछ झलक नही रहा है कि आरोपियों को उनके किए की सजा मिल पाएगी लेकिन हम भारतीय बहुत आशांवित है और न्याय देने वाली तमाम संस्थाओं से आशा यही है कि आरोपी को उसके किए का उचित दंड़ मिलेगा।

इकबाल अंसारी ने की यह मांग, CBI कोर्ट में चल रहा बाबरी विध्वंस केस हो समाप्तइकबाल अंसारी ने की यह मांग, CBI कोर्ट में चल रहा बाबरी विध्वंस केस हो समाप्त

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

English summary
Babri Masjid demolition case in cbi Court
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
For Daily Alerts
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X