पुलवामा के बाद: राजनीति ठीक, लेकिन राजनीतिकरण ठीक नहीं
नई दिल्ली। गुड़ खाएंगे, गुलगुले से परहेज करेंगे। राजनीति को लेकर स्थितियां हाल-फिलहाल कुछ इसी तरह की लग रही हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह के हालात कोई पहली बार बने हैं। मुद्दा कुछ भी हो सकता है और समय भी कैसा भी हो सकता है, कुछ लोग राजनीतिकरण से बहुत परेशान हो जाते हैं। उसके बाद सारा जोर इस पर देने लगते हैं कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। राजनीति करने वालों की तरह ही आम लोग भी इसी तरह सोचने लगते हैं कि वाकई इस मुद्दे का राजनीतिकण नहीं होना चाहिए। मतलब साफ है कि राजनीति करने वाले अपनी राजनीति में सफल होने लगते हैं और राजनीति का शिकार होने वाले असफल। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि राजनीति और राजनीतिकरण करने वाले कभी यह नहीं चाहते कि आम लोग राजनीति को समझने लगें। एक बहुत सीधा सा सवाल है कि राजनीति क्या सिर्फ चुनाव लड़ने वालों के लिए होती है। क्या उन्हें ही यह सहूलियत प्राप्त होती है कि वे अपनी सुविधा के अनुसार राजनीति और मुद्दों का राजनीतिकरण करें। उसमें लोगों का किसी तरह का कोई हस्तक्षेप न हो। वे कूपमंडूप बने रहें। केवल कुछ एक राजनीतिज्ञ ही सब कुछ बताएं और सभी उसका आंख मूंदकर अनुसरण करें। यह अपने आप में बहुत गंभीर विचार का विषय है कि वह समाज और राजनीति कैसी होगी जिसमें केवल एक विचार होगा।
वर्तमान समय में कुछ ऐसा ही करने की कोशिशें की जा रही हैं। यह स्थितियां पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद भारतीय वायुसेना द्वारा की गई एयर स्ट्राइक को लेकर बनी हैं। इसके बाद सत्ता पक्ष की ओर से केवल एक बात कही जा रही है कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। इसे काफी हद तक उचित कहा जा सकता है क्योंकि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है। निश्चित रूप से देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। इसे अच्छा लक्षण कहा जाना चाहिए कि इस मुद्दे पर तकरीबन हर कोई यही बात कह रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच कहा जा सकता है कि ऐसा कहते हुए भी हर कोई राजनीति ही कर रहा है। सरकार विपक्ष पर आरोप लगा रहा है कि वह इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर रहा है और विपक्ष सत्तापक्ष पर इसी तरह का आरोप लगा रहा है। ऐसे में सबसे मुश्किल आम लोगों के समक्ष आती है कि वह किसे सही मानें और किसे गलत। यह तो एक बात है। इसी के साथ एक दूसरी बात है कि इस आरोप-प्रत्यारोप के बीच मूल मुद्दा पीछे छूटता जाता है। इस बीच राजनीतिक दलों की चिंता सिर्फ अपने वोट बैंक पर टिकती जाती है। ऐसा आम दिनों में भी होता है, लेकिन जब चुनाव सिर पर हों तो कुछ अधिक ही चिंता होती है।
फिलहाल वक्त चुनावों का है। ऐसे में भला कौन सा दल और राजनीतिज्ञ ऐसा होगा जो चुपचाप बैठना पसंद करेगा और यह चाहेगा कि उसका वोट बैंक कहीं और खिसक जाए। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हर किसी का पूरा जोर मुद्दे को सुलझाने से ज्यादा अपना वोट बैंक बचाने और बढ़ाने का हो गया है और सब इसी में लगे हैं। लोगों के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बच रहा है कि उन्हें जिनकी बात समझ में आ जाए, उसी को वे अंतिम मान लें। राजनीति की यही बात अपने आप में विलक्षण है। राजनीतिज्ञों ने इसे केवल अपने तक सीमित कर लिया है। लोगों के लिए इसे छोड़ा ही नहीं। लोगों को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने का काम किया ही नहीं गया। उन्हें हमेशा राजनीति से दूर रहने की सलाह दी गई और लोगों ने भी यह मान लिया कि राजनीति उनका काम नहीं है। यहां यह सोचने की बात है कि क्या यह संभव हो सकता है कि लोग राजनीति से दूर रहें। अगर इसका विश्लेषण किया जाए तो किसी को यह आसानी से समझ में आ सकता है कि हां यह संभव है और यही हुआ है। भारतीय समाज का अराजनीतिकरण बहुत सुचिंतित और सुनियोजित तरीके से किया गया है। राजनीति का अपराधीकरण, चुनावी राजनीति में पैसे का बोलबाला, एन-केन प्रकारेण चुनाव जीतना और किसी भी तरीके से सत्ता पर कब्जा करने को लेकर लोगों में राजनीति के प्रति एक खास तरह की वितृष्णा पैदा हो चुकी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आम आदमी यह मानता है कि वह ऐसा कुछ कर नहीं सकता। ऐसे में उसके पास राजनीति से दूर रहने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। इसका सीधा लाभ इस तरह के राजनीतिज्ञ उठाते हैं और राजनीति अपनी गति से चलती रहती है। वे खुद अपने लिए यह तय करते हैं कि किस मुद्दे पर राजनीति होनी चाहिए और किस मुद्दे पर नहीं।
लेकिन यहीं वह गलती कर रहे होते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि वक्त हमेशा एक सा नहीं होता और कई बार चीजें उनके हाथ से भी निकल जाती हैं। किसी को यह ध्यान में रखना चाहिए कि आज का समय कोई पचास या सौ साल पीछे का समय नहीं है। अब दुनिया ग्लोबल हो चुकी है और फिलहाल लोगों को आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता है। इसी तरह तथ्यों को छिपाया नहीं जा सकता है और न ही लोगों की जुबान बंद की जा सकती है। सरकारें अथवा राजनीतिज्ञ इसकी लाख कोशिश कर सकती हैं कि लोग ठीक से पढ़-लिख न पाएं, उनके सोचने-समझने की क्षमता को कुंद कर दिया जाए। ऐसा किया भी जा सकता है और किया भी जा रहा है। लेकिन यह दुनिया के पैमाने पर यह संभव नहीं हो सकता है। आखिर कहीं न कहीं और कोई न कोई तो चीजों को देखता-समझता रहता है। फिर वह बोलेगा भी और जब बोलेगा तो सच भी सामने आ सकता है। इसी तरह सूचना और जानकारी के साधन भी इतने विस्तृत होते जा रहे हैं कि उसे एक जगह रोकने से भी काम नहीं चलने वाला नहीं है। वे कहीं और से आ जाएंगे।
इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएं और जानकारियां अब आम हो चुकी हैं जिनसे पता चलता है कि आखिर हुआ क्या था। इस परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा हालिया उदाहरण इराक पर अमेरिकी हमले का लिया जा सकता है जिसमें कहा गया कि सद्दाम हुसैन ने केमिकल हथियार जमा कर रखे हैं जबकि बाद में पता चला कि वहां ऐसा कुछ नहीं था। इराक में सब कुछ अमेरिका ने पूरी दुनिया में अपनी दादागिरी स्थापित करने के लिए हमला किया। इसके साथ ही यह भी जान लेना जरूरी है कि अमेरिका चाहे जितना कहता रहे कि इस मुद्दे का राजनीतिक न किया जाए, आखिर पूरी दुनिया में उस हमले को लेकर बातें तो हो रही थीं और अभी भी की जाती रहती हैं। पूरी दुनिया में इतने सारे संगठन और संस्थाएं काम कर रही हैं और उन सब को रोका नहीं जा सकता। मतलब बातें तो होंगी। राजनीतिज्ञ अपने लोगों को चुप करा सकते हैं। सत्ताधारी वर्ग विपक्ष को नसीहत दे सकता है, और विपक्ष सत्तापक्ष को लेकिन बातें तो होंगी। बातें ठीक से हों, तथ्यों पर आधारित हों और किसी को परेशान करने की न हों, यह अच्छा है लेकिन यह कैसे हो सकता है कि किसी मुद्दे पर केवल कुछ लोग ही जो चाहें कहें और दूसरों को चुप रहने की सलाह दी जाए, इसे कैसे उचित ठहराया जा सकता है। इसलिए खुद ही यह तय न कर लिया जाए कि किस मुद्दे का राजनीतिकरण किया जाना चाहिए और किस मुद्दे का नहीं किया जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि लोगों को भी राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे अच्छा-बुरा समझ सकें। जब तक यह काम नहीं किया जाएगा, राजनीतिकरण के खेल पर लगाम लगा पाना आसान नहीं होगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)