मोदी के बाद अब राहुल का ‘जुमला’, कैसे जुटाएंगे 3 लाख 60 हज़ार करोड़?
नई दिल्ली। 2019 में राहुल गांधी ने देश की 20 फीसदी आबादी यानी करीब 25 करोड़ लोगों के अकाउन्ट में रकम डालने की घोषणा की है। यह रकम सालाना 72 हज़ार रुपये प्रति परिवार होगी। इस तरह सत्ता में आने पर साल में 3 लाख 60 हज़ार करोड़ रुपये गरीबी दूर करने के लिए राहुल गांधी खर्च करेंगे। और, अगर सत्ता में नहीं आए तो? तब इसे चुनावी जुमला समझ लीजिए। राहुल गांधी ने 2014 के चुनाव की याद दिला दी है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने हर अकाउन्ट में 15 लाख रुपये देने का कथित तौर पर वादा किया था। कथित तौर पर इसलिए कि खुद बीजेपी अध्यक्ष ने इसे जुमला बता दिया था और नरेंद्र मोदी ने कभी इस बात का न खंडन किया और न ही कभी दोहराया कि उनका इरादा हर अकाउन्ट में 15 लाख रुपये देने का है।
कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। अब राहुल ने कहा है कि वे गरीबी पर अंतिम प्रहार कर रहे हैं। इसका मतलब ये हुआ कि अबकी बार कांग्रेस सरकार आती है तो देश से गरीबी रफूचक्कर हो जाएगी। हर परिवार के पास सुनिश्चित मासिक आय 12 हज़ार रुपये होगी। अगर किसी की वार्षिक आय 6 हज़ार रुपये है तो बाकी 6 हज़ार रुपये सालाना सरकार उस परिवार को उपलब्ध कराएगी। इस योजना के लिए आवश्यक धन 3 लाख 60 हज़ार करोड़ सरकार कहां से जुटाएगी, यह बड़ा सवाल है। वैसे, राहुल ने कहा है कि इस बारे में उन्होंने अर्थशास्त्रियों से बातचीत कर ली है। यानी यह सम्भव है।
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क्या
सब्सिडी
हटाकर
होगा
गरीबी
पर
'अंतिम
प्रहार'?
गरीबों
को
गरीबी
से
दूर
करने
के
लिए
अर्थशास्त्री
जिस
उपाय
की
ओर
ध्यान
दिलाते
आए
हैं
वह
है
वर्तमान
में
जारी
सब्सिडी
को
बंद
कर
उस
रकम
को
नकद
के
रूप
में
गरीबों
को
उपलब्ध
कराना।
यह
समझना
जरूरी
है
कि
क्या
सब्सिडी
की
रकम
से
राहुल
गांधी
की
वर्तमान
में
घोषित
योजना
परवान
चढ़
सकती
है?
देश में सब्सिडी के रूप में जीडीपी का 1.5 फीसदी खर्च होता है। यह रकम होती है 2.67 लाख करोड़। इसमें फूड सब्सिडी, पेट्रोलियम सब्सिडी भी शामिल है। इसका मतलब ये है कि प्रतिवर्ष प्रति गरीब परिवार को दी जाने वाली रकम 3 लाख 60 हज़ार करोड़ रुपये का जो बजट है, उसके बहुत करीब हम पहुंच जाते हैं सिर्फ सब्सिडी की राशि से। बाकी बची 93 हज़ार करोड़ रुपये की राशि का इंतज़ाम सरकार को करना बाकी रह जाता है जो आसानी से हो सकता है। इस तरह यह योजना सब्सिडी हटाकर लागू की जा सकती है।
मगर, सवाल ये है कि आखिर कब तक? क्या यह योजना शाश्वत तरीके से आगे भी चलती रहेगी? जब आमदनी के स्रोत विकसित नहीं होंगे और गरीबी रेखा से नीचे की आबादी बढ़ती जाएगी यानी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी जिनकी आमदनी 12 हज़ार रुपये से कम हो, तो समय के साथ-साथ कम आवश्यक राशि में होने वाली कमी से कैसे निपटा जा सकेगा? ऐसे में यह योजना कितने समय तक चल पाएगी, यह भी बड़ा सवाल बना रहेगा।
जब
टूटेगी
गरीबी
की
लक्ष्मण
रेखा,
तो
क्या
होगा?
एक
और
सवाल
है
कि
गरीबी
रेखा
की
सीमा
को
आज
हम
भले
ही
12
हज़ार
रुपये
महीना
मान
रहे
हैं,
लेकिन
जल्द
ही
यह
सीमा
ऊपर
उठ
जाएगी।
मतलब
ये
कि
आखिर
यह
रकम
कब
तक
गरीबी
रेखा
बनी
रहेगी?
गरीबी
की
यह
लक्ष्मण
रेखा
जब
टूटेगी,
तो
उस
स्थिति
से
निपटने
के
लिए
क्या
कोई
वैकल्पिक
योजना
भी
है?
इसी
से
जुड़ी
बात
यह
भी
है
कि
इस
योजना
के
पास
मुद्रास्फीति
की
स्थिति
से
निपटने
का
सामर्थ्य
भी
होना
चाहिए।
यानी
गरीबों
को
मुद्रास्फीति
के
कारण
घटने
वाली
आमदनी
के
लिए
सरकार
से
दोबारा
फैसले
का
इंतज़ार
करना
न
पड़े,
यह
स्वत:
समायोजित
होता
रहे।
दूसरे
शब्दों
में
न्यूनतम
आमदनी
की
गारंटी
12
हज़ार
से
आगे
स्वत:
पुनरीक्षित
होती
रहे।
वैसे
भी
अर्थशास्त्र
कहता
है
कि
जब
लिक्विडिटी
बढ़ती
है
तो
क्रयशक्ति
कम
होने
लगती
है।
यानी
कुछ
समय
बाद
12
हज़ार
रुपये
प्रति
माह
पाकर
भी
गरीब
गरीबी
से
मुक्त
नहीं
होगा।
इसलिए
इससे
निपटने
की
तैयारी
भी
रखनी
होगी।
राहुल गांधी ने अभी यह बात नहीं कही है कि निश्चित आमदनी की गारंटी वाली गरीबी हटाओ योजना के बदले सब्सिडी ख़त्म कर दी जाएगी। इसलिए जिस दिन यह बात कही जाएगी, तो इसे धोखे के रूप में ही देखा जाएगा। तब कहा जाएगा कि आपने सब्सिडी हटाने की घोषणा तो नहीं की थी तो क्या आपने आंखों में धूल झोंकने का काम किया है?
सब्सिडी
ख़त्म
करने
के
अलावा
और
क्या
हैं
विकल्प?
सब्सिडी
ख़त्म
करके
नकद
पैदा
करने
के
अलावा
क्या
सरकार
के
पास
इस
योजना
पर
अमल
के
लिए
कोई
रास्ता
नहीं
रह
जाता
है?
इसका
उत्तर
भी
सवालों
में
ही
है।
अप्रैल
2018
में
केन्द्रीय
मंत्री
शिव
प्रताप
शुक्ल
ने
रिज़र्व
बैंक
ऑफ
इंडिया
के
आंकड़ों
के
हवाले
से
राज्यसभा
को
बताया
था
कि
सार्वजनिक
बैंकों
ने
ऋण
माफी
और
समझौतों
में
कुल
मिलाकर
2
लाख
41
हज़ार
911
करोड़
रुपये
सिर्फ
2014-15
से
लेकर
सितम्बर
2017
तक
माफ
कर
दिए
थे।
एक
अन्य
स्रोत
से
ऋणमाफी
की
यह
रकम
वार्षिक
आधार
पर
कुछ
इस
तरह
थी-
2014-15
में
49,018
करोड़
रुपये,
2015-16
में
57,586
करोड़
रुपये
और
2016-17
में
1.88
लाख
करोड़
रुपये।
यानी
तीन
साल
में
2
लाख
94
हज़ार
604
करोड़
रुपये
के
कर्जे
माफ
कर
दिए।
माफ
की
गयी
यह
रकम
राहुल
की
गरीबी
मिटाने
वाली
इस
योजना
पर
सालाना
खर्च
की
दो
तिहाई
है।
सवाल ये है कि जब हम ऋण माफ कर सकते हैं तो उतनी ही रकम से न्यूनतम रकम की गारंटी क्यों नहीं कर सकते? केवल तीन उदाहरणों पर गौर करें-
पहला उदाहरण : देश में 50 बड़े उद्योगपतियों पर 8.35 लाख करोड़ रुपये का बकाया बैंक का है। अगर यह रकम वसूल ली जाती है तो गरीबी मिटाने वाली राहुल की योजना के लिए 2 साल 3 महीने तक आवश्यक रकम का इंतज़ाम हो जाता है।
दूसरा उदाहरण : 31 दिसम्बर 2018 तक 21 सरकारी बैंकों पर 8.26 लाख करोड़ रुपये के लोन का बोझ था। अगर ये लोन रिकवर किए जाते हैं तो करीब सवा दो साल और समय के लिए रकम का इंतज़ाम हो जाएगा।
तीसरा उदाहरण : देश में सिर्फ 12 डिफॉल्टर्स का कुल एनपीए 1 लाख 75 हज़ार करोड़ रुपये का है। इस रकम से करीब 6 महीने के लिए गरीबी मिटाने की योजना पर काम हो सकता है।
केवल इन तीन उदाहरणों में हम देखते हैं कि अगले 5 साल के लिए न्यूनतम रकम की गारंटी हो जाती है। ये उदाहरण इसलिए नहीं है कि गरीबी दूर करने के लिए आवश्यक न्यूनतम रकम की योजना इस पर ही निर्भर है। यह उदाहरण यह बताने के लिए है कि राहुल गांधी ने जिस महत्वाकांक्षी योजना को चुनावी वादे के तौर पर रखा है उसे जुमला बनने से रोकने का ये तरीका भी हो सकता है।
एक और चुनौती हिन्दुस्तान की आने वाली सभी सरकारों के पास होगी अगर राहुल की गरीबी पर अंतिम प्रहार वाली योजना लागू होती है। आरक्षण जिस तरह अपने मकसद को प्राप्त नहीं कर सका है और गैरजरूरी साबित होने के बावजूद इसे ख़त्म करने की सुगबुगाहट भी कोई नहीं दिखा सकता, उसी तरह कहीं गरीबी पर अंतिम प्रहार कही जाने वाली यह योजना निरंतर मुहरमार योजना में न बदल जाए। यानी जो भी नयी सरकार आए, वह इसे ढोते रहने को विवश हो, भले ही गरीबी बढ़ती ही क्यों न चली जाए।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
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