पश्चिमी यूपी में मुस्लिम-जाट फॉर्मूले की सफलता को लेकर SP-RLD आशंकित क्यों हैं ? जानिए
लखनऊ, 17 जनवरी: किसान आंदोलन की वजह से इस बार के चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से काफी उम्मीदें हैं। पिछले तीन चुनावों से इस इलाके में भाजपा ने अपना दबदबा कायम कर रखा है। लेकिन, अबकी बार सपा और रालोद के नेताओं को लग रहा है कि वह जाट और मुसलमानों को अपने ही पक्ष में वोट डलवाने के लिए राजी कर लेंगे। दोनों ने पहली लिस्ट निकाली तो लगा कि संख्या बल के हिसाब से उन्होंने इसी मिशन के तहत टिकट बांटे हैं। लेकिन, अब लग रहा है कि ऐसा नहीं हुआ है। इनके मन में भाजपा के कथित 'ध्रुवीकरण' वाले हथियार का ऐसा डर बैठा हुआ है, जिसके चलते अब मुसलमानों के एक वर्ग में बेचैनी बढ़ने लगी है और बाकी का पोल टिकैत बंधुओं की बेसब्री खोल रहा है।
मुजफ्फरनगर में मुस्लिम उम्मीदवारों से परहेज क्यों ?
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और रालोद सुप्रीमो जयंत चौधरी ने पूरी कोशिश की थी कि पश्चिम यूपी में इस तरह से उम्मीदवारों को टिकट दें, जिससे जाटों और मुसलमानों को एकसाथ रखने में कोई परेशानी न हो। उनकी पहली लिस्ट में इन दोनों को बराबर-बराबर सीटें देने पर लगा था कि पहला बाधा तो ये पार कर चुके हैं। लेकिन, अब ऐसा लग नहीं रहा है। खासकर मुजफ्फरनगर में मुसलमानों के बीच टिकट बंटवारे को लेकर बेचैनी के संकेत मिल रहे हैं। इस इलाके में मुसलमानों की आबादी करीब 38% है, लेकिन जिले की 6 में से अबतक एक भी सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं मिली है। 5 नामों की घोषणा की गई है और सारे के सारे हिंदू हैं।
सपा-रालोद के टिकट बंटवारे से मुसलमानों में बेचैनी
मुजफ्फरनगर में मुसलमानों को टिकट से दूर रखने की अखिलेश-जयंत की रणनीति समुदाय के लोग हजम नहीं कर पा रहे हैं। एक बड़े अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक इलाके के बड़े मुस्लिम नेताओं, जैसे कि कादिर राणा और बाकी चुनाव लड़ने की तैयारी में थे, लेकिन अब वह उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। ऐसे मुस्लिम नेताओं की शिकायत है कि 'यह तब हो रहा है, जब पिछले दो साल से आरएलडी के नेता 'भाईचारा' कमिटी' की बात कर रहे थे और कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में जाट-मुस्लिम एकता की दुहाई दे रहे थे।' यह स्थिति सहारनपुर में भी देखने को मिल रही है, जहां कांग्रेस छोड़कर आए इमरान मसूद और सहारनपुर देहात के पार्टी के सीटिंग विधायक मसूद अख्तर को भी अभी तक मायूसी ही हाथ लगी है। इनकी मायूसी का फायदा असदुद्दीन ओवीसी और मायावती भी उठा सकते हैं।
मुस्लिम-जाट फॉर्मूले की सफलता पर सपा-रालोद आशंकित क्यों है ?
गौरतलब है कि यूपी में 2013 हुए सांप्रदायिक दंगों का केंद्र मुजफ्फरनगर ही था। उस चुनाव के बाद से भाजपा ने इलाके में बाकी दलों के छक्के छुड़ा रखे हैं। शायद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के नेतृत्व को लगता है कि मुजफ्फरनगर से मुसलमानों को टिकट देना भाजपा के लिए 'ध्रुवीकरण' को बुलावा देना है। दरअसल, इलाके में मुस्लिम-जाट एकता को ईवीएम तक बरकरार रख पाना सपा-रालोद के लिए दो धारी तलवार पर चलने जैसा है; और फिलहाल इनकी सोच यही है कि मुसलमानों के पास गठबंधन के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं।
टिकैत से बैटिंग करवाने की कोशिश भी बैकफायर कर गई
पश्चिमी यूपी में जाटों का समर्थन सपा-रालोद गठबंधन को मिले इसके लिए भारतीय किसान यूनियन के चीफ नरेश टिकैत से भी बैटिंग करवाई गई। उन्होंने संभल में विभिन्न खापों से कहा कि 'भाई, आप लोगन ते परीक्षा की घड़ी है। 'गठबंधन' ते सफल बनाना है।' उन्होंने यहां तक कहा कि 'गठबंधन की जीत के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं करें।' लेकिन, जब उनका यह बयान वायरल हुआ तो वह अपनी बात से मुकर गए। उनके छोटे भाई राकेश टिकैत ने पहले बात संभालने की कोशिश की और कहा कि 'हमने किसी को समर्थन नहीं दिया, लोगों को ही समझने में गलती हो गई।' बाद में नरेश टिकैत ने यह कहकर अपनी कही हुई बात को संभाला कि उनके पास जो भी आशीर्वाद लेने आएगा , उसे आशीर्वाद देंगे। इसी के बाद केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता संजीव बालियान ने भी उनसे मुलाकात की है।
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बीजेपी को इस फॉर्मूले के नाकाम रहने पक्का यकीन है
भारतीय जनता पार्टी ने यूपी में पहले दो चरणों के लिए जिन 105 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है, उनमें से 83 पिछली बार चुनाव जीते थे। इसमें पश्चिमी यूपी भी शामिल है जो पिछले तीन चुनावों 2014, 2017 और 2019 से बीजेपी का गढ़ बन चुका है। बीजेपी नेताओं को यकीन है कि 2022 के चुनाव में भी वह ये सभी 83 सीटें जीत लेंगे। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पक्का यकीन है कि पिछले तीनों चुनावों की तरह ही इस बार जो सपा और रालोद की ओर से मुस्लिम-जाट समीकरण की बात की जा रही है, वह धरातल पर सफल नहीं होने वाली है।