पश्चिमी यूपी के किसानों का मूड क्या है, कृषि कानूनों की वापसी से किसे फायदा मिलेगा ? जानिए
मुजफ्फरनगर, 6 दिसंबर: संसद से पिछले साल पास हुए तीनों कृषि कानूनों को अब उसी संसद ने निरस्त कर दिया है। लेकिन, इसके बावजूद दिल्ली की सीमाओं पर कुछ किसान संगठनों का प्रदर्शन जारी है। अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें तो इन कृषि कानूनों की वजह से सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की हवा खराब होने की आशंका जताई जा रही थी। कुछ लोग इसे वापस लेने को भी चुनावी पैंतरे के तौर पर ही देख रहे हैं। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि पश्चिमी यूपी, जिसे कई चुनावी विश्लेषक 'जाट लैंड' कहकर संबोधित करते हैं, वहां कृषि कानूनों की वापसी का क्या असर पड़ा है ?

पश्चिमी यूपी के किसानों का मूड क्या है ?
पिछले साल नवंबर के आखिर से गाजियाबाद में यूपी बॉर्डर पर तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ जिन किसानों ने धरना शुरू किया था, उनमें से ज्यादातर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही हैं। प्रदर्शनकारी किसानों में भी मुख्य तौर पर जाट किसानों की ही भूमिका महत्वपूर्ण रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा से पहले तक पश्चिमी यूपी, जिसे कि हरित प्रदेश भी कहते हैं किसानों में भाजपा सरकार के खिलाफ काफी नाराजगी थी। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि जब यह तीनों कृषि कानून अब अस्तित्व में नहीं बचा है तो यह किसान या मुख्य रूप से जाट समाज के लोग बीजेपी को लेकर क्या सोच रहे हैं? क्या उनकी नाराजगी दूर हुई है या फिर उनकी शिकायतें बरकरार हैं ?

'हमारा मन नहीं बदला है।'
अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स ने पश्चिमी यूपी के गन्ना बेल्ट के कई किसानों (या जाट कह सकते हैं) से बातचीत की है, उससे उनके मूड का अंदाजा लगाया जा सकता है। मसलन, मेरठ के सिवालखास विधानसभा के दबथवा गांव के 28 वर्षीय युवा सुनील चौधरी कहते हैं, 'तीनों कृषि कानून सिर्फ चुनाव के चलते वापस लिए गए हैं।' वो कहते हैं 'यहां तक कि पेट्रोल और डीजल के दाम भी कम कर दिए गए हैं। लेकिन, इससे हमारा मन नहीं बदला है।' यहां मंगलवार को सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और आरएलडी चीफ जयंत चौधरी की बड़ी रैली होने वाली है।

'भरोसा खत्म हो गया'
इसी तरह शामिली विधानसभा क्षेत्र के एक और जाट-बहुल गांव सिम्भाल्का के एक किसान रविंदर कुमार खुलकर कह रहे हैं कि वो तो इसबार आरएलडी को समर्थन देंगे। उन्होंने कहा, 'भरोसा खत्म हो गया और पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं है। कौन जानता है कि चुनाव के बाद वे फिर से बिल नहीं लाएंगे।' इस गांव में 4,200 वोटर हैं और इसकी 50% आबादी जाटों की है। बाकी में मुसलमान और ठाकुर आदि हैं। थाना भवन विधानसभा क्षेत्र के सिलावर गांव में भी जाटों के बीच कुछ ऐसी ही भावना देखने को मिली। नोमित तरार नाम के युवक के मुताबिक, 'कुछ नहीं बदला है। जो था, वही है।'

कृषि कानूनों की वापसी से किसे फायदा मिलेगा ?
उधर सिवालखास के पास ही स्थित खानपुर गांव में किसानों के विचारों में मतभेद साफ जाहिर हो रहा है। इस गांव में भी जाट वोट ही बहुसंख्यक है। इस गांव में कीटनाशक की दुकान चलाने वाले युवा कुलविंदर चिकारा कहते हैं, 'कृषि कानून गलत थे और सरकार ने इसे वापस लेकर सही किया है। लेकिन, सबसे बड़ा मुद्दा लॉ एंड ऑर्डर का है।' उन्होंने बताया है कि 'पहले जब सपा की सरकार थी, हम मुस्लिम-बहुल सिवालखास में बैंक से पैसे निकालते थे और वे बैंक के बाहर ही हमें लूट लेते। हमारे लिए बीजेपी सरकार में सुरक्षा सबसे बड़ा प्रश्न है।' इसी गांव के सुशील कुमार कहते हैं, 'गांव में बीजेपी और आरएलडी के बीच वोट बटेंगे।' उन्होंने कहा कि 'युवा बीजेपी से प्रमुख रूप से रोजगार के मसले को लेकर गुस्से में हैं।'
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किसानों में भाजपा को लेकर मतभेद
लेकिन, ऐसा नहीं है कि सभी जाट-बहुल गांवों में भाजपा से दूरी बनी ही हुई है। पार्टी ने भी जाटों के बीच अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिशें की हैं। मसलन, तीन दिसंबर को कुछ बीजेपी नेता मुजफ्फरनगर के खतौली विधानसभा क्षेत्र के जाट-बहुल भैंसी गांव में पहुंचे थे। इस इलाके में लगातार पार्टी के बड़े नेताओं के आने का कार्यक्रम है। गांव के बिजेंदर पाल सिंह नाम के एक किसान ने कहा है, 'हम शुरू से ही बीजेपी के साथ हैं। इस गांव में लोक दल के वोटर बहुत ही कम हैं।' उन्होंने कहा 'हमने कभी भी किसानों के प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि यह सब कुछ वीआईपी नेता करा रहे हैं।' इसी गांव के विजय कुमार शर्मा ने कहा , 'हमारे गांव के शिक्षित जाट बीजेपी के साथ हैं और जो भी हो सरकार बीजेपी ही बनाने जा रही है।'(तस्वीरें- सांकेतिक)