उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव: अगर एक भी सीट घटी तो भाजपा की चिंता बढ़ी
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में फाइनल परीक्षा तो 2022 में होगी लेकिन तैयारी परीक्षा इस वर्ष नवम्बर में होने जा रही है। इस परीक्षा में सत्तारूढ़ और सभी विपक्षी दल बैठेंगे। इसी तरह की एक तैयारी परीक्षा पिछले साल अक्टूबर में हुई थी जब विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी से जैदपुर सीट समाजवादी पार्टी ने छीन ली थी। इस बार जिन सात सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं उनमें से छह सीटों पर बीजेपी का कब्ज़ा था। उन छह सीटों में एक भी सीट अगर बीजेपी के हाथ से निकलती है तो फिर सत्तारूढ़ बीजेपी पर दबाव बढ़ जाएगा। खास बात कि कोरोना काल में यह पहला उपचुनाव है। सबसे ज्यादा आबादी वाला प्रदेश होने के बावजूद यूपी में कोरोना से कम जाने गई हैं और रिकवरी रेट अन्य राज्यों से बेहतर है। प्रदेश की योगी सरकार का दावा है कि यह कोरोना महामारी से निपटने में प्रदेश सरकार ने बेहतर प्रबंधन और उपाय का नतीजा है। उपचुनावों के नतीजों से भी स्पष्ट हो जायेगा कि सरकार के क़दमों से प्रदेश की जनता कितनी संतुष्ट है।
भले ही उपचुनाव स्थानीय मुद्दों और नेताओं के बूते लड़ा जाता हो लेकिन इसके परिणाम जनता, स्थानीय नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के मूड का संकेत अवश्य दे देते हैं। विधानसभा उपचुनाव में बूथ मैनेजमेंट का बड़ा रोल होता है। लेकिन पार्टी कार्यकर्ता और स्थानीय नेता अगर संतुष्ट नहीं हैं तो भले ही चुनाव लड़ने वाला नेता कितना ही कद्दावर क्यों न हो, उसको जितने में मुश्किलें आती हैं। सत्तारूढ़ दल के हाथ से एक भी सीट निकलने का मतलब है विपक्षी दल के हाथ, चावल में कंकड़ी आ जाना। उस कंकड़ी के बहाने उन्हें सरकार को खराब बताने का मौका मिल जायेगा। इस समय हाथरस, बलरामपुर और चित्रकूट की घटनाओं को लेकर विपक्ष, सरकार पर हमलावर है। बीच-बीच में ऐसी भी खबरें आ रहीं हैं कि स्थानीय अधिकारी सत्तारूढ़ दल के विधायकों और पार्टी कार्यकर्ताओं को तबज्जो नहीं दे रहे हैं। अगर ऐसा है तो उपचुनाव में इन सबका असर पड़ेगा।
इसके अलावा सम्बन्धित विधानसभा क्षेत्र में मतदाताओं का जातीय समीकरण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसीलिए सभी दलों ने प्रत्याशियों की घोषणा में जातीय संतुलन बनाने की कोशिश की है। उदहारण के लिए बीजेपी ने पहले एक साथ जिन 6 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा की उनमें एक भी ब्राह्मण नहीं था। अंततः सातवीं सीट पर ब्राह्मण लाना पड़ा। देवरिया सीट पर बीजेपी ने सत्यप्रकाश मणि त्रिपाठी को उम्मीदवार बनाया है। जबकि देवरिया से पिछला चुनाव बड़े अंतर से जीतने वाले जन्मेजय सिंह पिछड़ी जाति से थे। इस साल अगस्त में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया था। देवरिया विधान सभा सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रभाव वाले क्षेत्र में आती है। सीएम योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ब्राह्मणों की उपेक्षा की आवाज भी बीच बीच में उठती रही है। जातीय संतुलन बनाने के लिए भी देवरिया से अंत में ब्राह्मण प्रत्याशी को उतारा गया। टिकट न मिलने से नाराज जन्मेजय सिंह के पुत्र पिंटू सिंह ने निर्दल चुनाव लड़ने की बात कही है।
ऑक्सफोर्ड ने बनाई रैपिड टेस्ट किट, अब 5 मिनट से भी कम में होगी कोरोना वायरस की पहचान
बीजेपी समेत सभी दलों ने 7 सीटों पर घोषित प्रत्याशियों में जातीय संतुलन को ध्यान में रखा है। 2019 के उप चुनाव की तरह इस बार भी बीजेपी का कोई मुस्लिम प्रत्याशी नहीं है। बीजेपी ने पूर्व क्रिकेटर और योगी सरकार में मंत्री रहे चेतन चौहान की निधन से खाली हुई नौगांव सादात सीट पर उनकी पत्नी संगीता चौहान को टिकट दिया है। एक अन्य मंत्री कमल रानी वरुण के निधन से खाल हुई कानपुर की घाटमपुर सीट से बीजेपी ने उपेंद्र पासवान को टिकट दिया है। उन्नाव की बांगरमऊ सीट बीजेपी विधायक कुलदीप सेंगर को सजा होने के कारण खाली हुई थी। यहाँ से श्रीकांत कटियार को बीजेपी ने टिकट दिया है। यह सीट जीतना बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण होगा क्योंकि यहाँ के विधायक को लेकर बीजेपी को काफी बदनामी झेलनी पड़ी थी। फिरोजाबाद की टूंडला सुरक्षित सीट से प्रेमपाल धनगर भाजपा उम्मीदवार हैं। यह सीट एसपी सिंह बघेल के सांसद बनने के बाद खाली हुई थी। वहीं जौनपुर की मल्हनी सीट से मनोज सिंह को बीजेपी ने प्रत्याशी बनाया है। मल्हनी सीट सपा विधायक पारसनाथ यादव के निधन से खाली हुई है। बुलंदशहर से ऊषा सिरोही को बीजेपी ने प्रत्याशी घोषित किया है। ऊषा सिरोही बुलंदशहर से विधायक रहे वीरेंद्र सिंह सिरोही की पत्नी हैं। वीरेंद्र सिरोही का इस साल मार्च में निधन हो गया था।
इस बार कांग्रेस और बसपा की ख़ास नजर ब्राह्मण वोटरों पर है। इसे लिए कांग्रेस ने 7 में 3 सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी को टिकट दिया है। कांग्रेस ने जौनपुर की मल्हनी सीट पर राकेश मिश्र, बंगारमऊ से पूर्व गृह मंत्री गोपीनाथ दीक्षित की बेटी आरती वाजपेयी और देवरिया से मुकुंद भास्कर मणि त्रिपाठी को मैदान में उतारा है। कांग्रेस के बाद बसपा ने दो ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे हैं जबकि दो पर मुस्लिम, दो पर दलित और एक प्रत्याशी पिछड़ा वर्ग से है। समाजवादी पार्टी ने भी संतुलन का ध्यान रखा है। सपा-रालोद ने तीन पर पिछड़ा वर्ग, दो पर अनुसूचित जाति और एक-एक पर ब्राह्मण और मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। इस बार भी बसपा अकेले चुनाव लड़ रही है। उसे लगता है उसके दलित कैडर के अलावा अगर ब्राह्मण और मुस्लिम के कुछ वोट मिल गए तो नतीजों पर फर्क पड़ सकता है। अब देखना है कि कोरोना काल में कोई चौकाने वाले नतीजे आते हैं या पुराना फार्मूला ही काम करेगा।