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यूपी विधानसभा उपचुनाव: फ्रांस और फरीदाबाद भी कर सकते हैं राजनीतिक गणित फेल

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लखनऊ। यूपी की सात विधानसभा सीटों पर मंगलवार, 3 नवंबर को मतदान होने जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में जिस तेजी से राजनीतिक माहौल बदला है। उसे देखते हुए जीत-हार का पूर्वानुमान लगाना थोड़ा कठिन हो गया है। यूपी के विधानसभा उपचुनावों पर फ्रांस के नीस शहर की आतंकी घटना, हरियाणा के फरीदाबाद में धर्म न बदलने पर युवती की दिनदहाड़े हत्या, यूपी की योगी सरकार का बाहुबली, भूमाफिया के खिलाफ अभियान, लव जेहादियों के खिलाफ सख्ती और प्रदेश के राज्यसभा चुनाव की एक सीट को लेकर सपा और बसपा में घमासान का सीधा असर यूपी के उपचुनावों पर पड़ेगा।

UP by elections tough fight for bjp, sp, bsp and congress on seven assembly seats

इन घटनाओं के चलते महंगाई, बेरोजगारी से परेशान मतदाताओं में न चाहते हुए भी ध्रुवीकरण होगा। राज्यसभा चुनाव से पहले सपा ने बसपा के सात विधायक तोड़ लिए, इनमें 2 मुस्लिम थे। वैसे भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनी हुई है। कांग्रेस भी अपने खोए वोट बैंक को पाने के लिए डोरे डाल रही है। इसीलिए फ्रांस और फरीदाबाद की घटना पर कांग्रेस ने चुप्पी साध रखी है। वैसे तो मायावती भी खुद को मुसलमानों का हितैषी बताने का कोई मौका नहीं चूकतीं लेकिन राज्यसभा चुनाव में बीजेपी के प्रति नरम रवैया, मुस्लिम मतदाताओं को बसपा से दूर कर सकता है।

इसके अलावा बसपा विधायकों की बगावत के बाद जिस तरह मायावती ने अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव पर हमला बोला कि दगाबाजी बाप-बेटे की फितरत है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सपा और बसपा के बीच दुश्मनी पुराने स्तर तक पहुंच गई है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव सपा-बसपा गठबंधन टूटने के बाद से ही बार बार कह रहे कि गठबंधन की सारी मलाई मायावती ने ही खाई, सपा के वोट बसपा प्रत्याशी को तो ट्रान्सफर हुए लेकिन बसपा के वोट सपा को नहीं मिले। अखिलेश का संदेश साफ़ है कि सपा के मुस्लिम और ओबीसी मतदाताओं ने बसपा को वोट दिया लेकिन मायावती के दलित कैडर ने सपा प्रत्यशी को वोट नहीं दिया।

कांग्रेस ने भी फ़्रांस, फरीदाबाद, धर्मांतरण और लव जेहाद और कश्मीर की महबूबा पर चुप्पी साध कर मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने की भरपूर कोशिश की है। लेकिन यूपी में कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। यूपी कांग्रेस में गिने-चुने बड़े नेता ही बचे हैं। और जो बचे हैं वो भी एक-एक कर पाला बदल रहें हैं। जैसे उन्नाव की पूर्व सांसद अनु टंडन ने यूपी कांग्रेस नेतृत्व से नाराजगी व्यक्त करते हुए 2 नवम्बर को समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली। अनु टंडन ने प्रदेश के नेताओं पर सोशल मीडिया पर केवल अपनी ब्रांडिंग करने का आरोप लगाया। इसे तरह 1 नवम्बर को जालौन जिला अध्यक्ष को कांग्रेस की महिला कार्यकर्ताओं ने सरेआम पीटा, वीडियो वायरल हुआ और उनके खिलाफ छेड़छाड़ की एफ़आइआर दर्ज की गई। जालौन की महिला कार्यकर्ताओं ने भी प्रदेश नेतृत्व पर अनदेखी का आरोप लगाया। संकेतों से लग रहा कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी 2022 के विधानसभा चुनावों में खुद को मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रोजेक्ट करने की तैयारी कर रहीं हैं। लेकिन ग्रासरूट लेवल पर कांग्रेस की कितनी ताकत बची है यह उपचुनावों से तय हो जायेगा। बसपा की चमक घटेगी या बढ़ेगी, मुस्लिम और ब्राह्मण मतदाता का रुख क्या है यह भी उपचुनावों के नतीजों से तय हो जायेगा।

आइये उपचुनाव वाली सात विधानसभा सीटों के समीकरण पर मतदान से पहले एक संक्षिप्त नजर डालें-

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1.बांगरमऊ: यहां जातीय समीकरण महत्वपूर्ण हैं। बांगरमऊ उपचुनाव जीतकर बीजेपी कुलदीप सेंगर के कारण लगे दाग को धोना चाहेगी। अनु टंडन ने मतदान से ठीक पहले सपा में शामिल होकर बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। अनु यहां से 15वीं लोकसभा में 2009 से 14 तक संसद रह चुकी हैं। इसका फायद सपा को मिलेगा। इसके आलावा बांगरमऊ विधान सभा क्षेत्र में मोटे तौर पर करीब 3 लाख 60 हजार मतदाता हैं। सबसे ज्यादा करीब 66 हजार मुस्लिम मतदाता हैं। इसके बाद करीब 51 हजार निषाद, लोधी, 41 हजार अनुसूचित जाति/जनजाति के मतदाता, फिर करीब 39 हजार ब्राह्मण, 26 हजार क्षत्रिय, 25 हजार यादव, 17 हजार बाल्मीकि, 16 हजार पाल, 14 हजार कुर्मी और शेष में अन्य मतदाता हैं। ऐसे में मुस्लिम वोटरों की बड़ी संख्या भी सपा को फायदा पहुंचा सकती है लेकिन ध्रुवीकरण की सम्भावना से संघर्ष कांटे का हो गया है।

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2.मल्हनी: सात में यही एक सीट विपक्ष यानी सपा के पास थी। यह सीट सपा का मजबूत किला मानी जाती है। बीजेपी पिछले 6 विधानसभा चुनाव में यहां से नहीं जीत सकी है। सपा को सहानुभूति का फायदा मिल सकता है। लेकिन यहां धनंजय ने पेंच फंसा दिया है। धनंजय के आने से मल्हनी में बीजेपी,सपा और निर्दलीय धनंजय सिंह के बीच मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। मल्हनी में सबसे ज्यादा यादव मतदाता हैं। मल्हनी विधान सभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 3.70 लाख है। मल्हनी विधानसभा क्षेत्र में सर्वाधिक लगभग 93 हजार यादव, 57 हजार अनुसूचित जाति, 46 हजार क्षत्रिय, 41 हजार ब्राह्मण, 33 हजार मुस्लिम और 53 हजार गैर यादव ओबीसी वोटर हैं। इस लिहाज से सपा को यादव और मुस्लिम मतदाताओं पर भरोसा है।

3. देवरिया: इस सीट को चार त्रिपाठियों ने रोचक बना दिया है। यह सीट बीजेपी के पास थी लेकिन यहां सबसे अनुभवी प्रत्याशी में सबसे अनुभवी सपा के ब्रह्माशंकर त्रिपाठी हैं। हालांकि देवरिया सदर सीट से पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन सदर पर उनकी राजनितिक पकड़ अच्छी है। स्वर्गीय जन्मेजय सिंह के निधन से खाली हुई सीट पर उनके के पुत्र अजय सिंह उर्फ़ पिंटू इस सीट के दावेदार थे। लेकिन टिकट कट जाने से उनकी नाराजगी बीजेपी के डॉ.सत्यप्रकाश मणि त्रिपाठी के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है। ब्राह्मण बहुल इस सीट पर असली मुकाबला बीजेपी और सपा के बीच माना जा रहा है।

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4. घाटमपुर: अभी तक यहां से बीजेपी केवल एक बार जीती है लेकिन इस बार भी जीत दर्ज कर बीजेपी इतिहास दोहराना चाहती है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कमल रानी वरुण ने कानपुर की घाटमपुर सुरक्षित विधानसभा सीट पर कमल खिला कर इतिहास रच दिया था। लेकिन दुर्भाग्य से इस साल अगस्त में कैबिनेट मंत्री कमल रानी का कोरोना के चलते निधन हो गया। अब बीजेपी इस सुरक्षित सीट को सहानुभूति और दलित हितैषी छवि के सहारे फिर जीतने की कोशिश में है। घाटमपुर सीट पर ही सबसे कम 6 प्रत्याशी मैदान में हैं।

यहां पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति का दबदबा है। 3.18 लाख से अधिक मतदाताओं वाले इस विधानसभा क्षेत्र में लगभग 2.31 लाख पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के मतदाता हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व अन्य सामान्य वर्ग के करीब 60 हजार वोटर हैं जबकि अल्पसंख्यक मतदाता करीब 25 हजार हैं। इस सीट पर कुल मतदाताओं की संख्या करीब 3,18,000 है। बीजेपी यहाँ मजबूत दिख रही लेकिन अगर ध्रुवीकरण नहीं हुआ तो सपा और बसपा मुश्किल पैदा कर सकते हैं।

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5. नौगांव सादात: नौगांव सादात में करीब एक तिहाई मुस्लिम मतदाता हैं इसके बावजूद यहां चुनावी गणित उलझा हुआ है। बीजेपी ने स्वर्गीय चेतन चौहान की पत्नी संगीता चौहान को जंग में उतारा है। उनको सहानुभूति और किसानों के गन्ना मूल्य के भुगतान से उम्मीद है। सपा को हमेशा की तरह मुस्लिम, यादव और अन्य पिछड़ों से उम्मीदें हैं। जबकि बसपा को भी मुसलमानों और अपने कैडर के वोट बैंक से आशा है। सपा और बसपा दोनों ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। ऐसे में बीजेपी की उम्मीद बढ़ गई है। करीब 3.21 लाख मतदाताओं वाले नौगांव सादात विधानसभा क्षेत्र में करीब 1 लाख 10 हजार मुस्लिम मतदाता हैं। इनके मुकाबले चौहान मतदाताओं की संख्या एक चौथाई यानी करीब 32 हजार है।

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6. टूंडला: टूंडला की सुरक्षित विधानसभा सीट सभी दलों के लिए असुरक्षित सीट मानी जाती है। यहां की दलित बहुल जमीन पर कोई भी राजनीतिक दल अपना मजबूत गढ़ होने का दावा नहीं कर सकता। पिछली बार यहां से 56 हजार से अधिक मतों से बड़ी जीत दर्ज करने वाले प्रो.एसपी सिंह बघेल बसपा छोड़ बीजेपी में आये थे। वर्ष 2014 में बघेल ने बीजेपी के टिकट पर फिरोजाबाद सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इसके बाद वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रो.एसपी सिंह बघेल ने टूंडला सीट पर जीत हासिल की। उन्हें यूपी में कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इसी तरह वर्ष 2017 के चुनाव में सपा ने महाराज सिंह का टिकट काटकर भाजपा छोड़कर सपा में पहुंचे शिव सिंह चक को दे दिया था। हालांकि चुनाव हारने के बाद वह दोबारा भाजपा में चले गए। बीजेपी और सपा के उम्मीदवार धनगर समाज से हैं। टूंडला में बीजेपी की मजबूत किलेबंदी समाजवादी पार्टी के लिए चुनौती बन गई है। टूंडला विधानसभा क्षेत्र में कुल लगभग 3 लाख 67 हजार 300 मतदाता हैं।

7. बुलंदशहर: बीजेपी के लिए बुलंदशहर सदर एक कठिन सीट है। हालांकि 2017 में बुलंदशहर सीट बीजेपी ने बसपा से छीनी थी लेकिन इस बार यह सीट बचाने के लिए बीजेपी को सहानुभूति, ध्रुवीकरण और गन्ने के भुगतान का सहारा है। बुलंदशहर सदर बीजेपी विधायक वीरेंद्र सिंह सिरोही के निधन से खली हुई है। बीजेपी ने उनकी पत्नी ऊषा सिरोही को मैदान में उतरा है। उन्हें मतदाताओं की सहानुभूति का सहारा है। लेकिन इस उपचुनाव में स्थितियां 2017 से भिन्न हैं। सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ बीजेपी से पिछले तीन साल का हिसाब मांग रहे और कानून व्यवस्था को लेकर हमलावर हैं। जबकि 17 के विधानसभा चुनाव में यहां की जनता ने बसपा के मोहम्मद हलीम खान की ज्यादतियों से नाराज होकर उनको जमीन चटाई थी। इस बार मोहम्मद हलीम के छोटे भाई मोहम्मद यूनुस खान बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। हलीम और यूनुस भाई हैं और हलीम के खिलाफ वोट देने वाली जनता उनके भाई को वोट देने से पहले दस बार सोचेगी। इसके आलावा वर्तमान राजनितिक माहौल में मतदाता ध्रुवीकरण का गणित भी बीजेपी के लिए उम्मीद जगाता है।

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