शहीद दिवस: केसरिया मिट्टी से वो सिंहनाद गूंजती है 'आजाद हूं और आजाद रहूंगा'
हिंदुस्तानी खून का ये ज्वालामुखी फटने से पहले उबल रहा था और इसका एहसास मजिस्ट्रेट को भी था। अल्पायु के कारण चन्द्रशेखर छोड़ दिए जाते लेकिन उनके शब्दों ने अंग्रेजी हुकूमत के अहंकार को तमाचे जड़े थे।
इलाहाबाद। शहीद दिवस पर पूरा हिंदुस्तान अमर शहीद क्रांतिकारियों की शहादत याद कर रहा है। बूढ़ा हो चुका इलाहाबाद का अल्फ्रेड पार्क भी उस पल को याद कर आंखे नम कर रहा है। जब उसने एक महान क्रांतिकारी को अपने बाजुओं में शहीद होते देखा था। उस क्रांतिकारी के शब्द आज भी पार्क के सूखे दरख्त पर गुलजार होते हैं। आज भी आजाद के खून से रंगी केसरिया मिट्टी से वो सिंहनाद गूंजती है।
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'गिरफ्तार
होकर
अदालत
में
हाथ
बांध
बंदरिया
का
नाच
मुझे
नहीं
नाचना
है।
मेरी
पिस्तौल
में
आठ
गोली
है
और
आठ
की
दूसरी
मैगजीन
भी
है।
पंद्रह
दुश्मन
पर
चलाऊंगा
और
सोलहवीं
खुद
पर,
लेकिन
जीते
जी
अंग्रेजों
के
हाथ
नहीं
आउंगा।
जिंदा
रहते
हुए
अंग्रेज
मुझे
हाथ
भी
नहीं
लगा
पाएंगे,
आजाद
हूं
और
आजाद
रहूंगा'
इन
शब्दों
के
साथ
आजाद
ने
अपनी
पिस्तौल
की
नली
कनपटी
पर
लगा
दी।
.......
वंदे
मातरम्
........
मध्य प्रदेश की मिट्टी में हुआ जन्म
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को एक आदिवासी ग्राम धिमारपुरा भाबरा में हुआ था जो मध्य प्रदेश में है। अब इस गांव का नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया है।
गांधी जी से थे प्रभावित
महान देशभक्त व क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सर्वोत्तम स्थान रखा जाता है। आजाद बचपन में महात्मा गांधी से प्रभावित थे। इनकी मां का नाम जगरानी था और वो एक विदुषी महिला थी। आजाद काशी में संस्कृत पढ़ने के लिए घर छोड़कर आए तो उस समय गांधी जी के असहयोग आंदोलन का शुरुआती दौर था। दिसंबर 1921 के उस आंदोलन में आजाद की उम्र महज चौदह वर्ष की थी। चंद्रशेखर भी इस आंदोलन का हिस्सा बन गए।
अदालत में जो बोला वो इतिहास बन गया
नेहरू जी कि एक किताब में इस बात का जिक्र है कि आजाद को जब गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया तो वो निर्भीक निडर होकर खड़े थे। मासूम से चेहरे पर कहीं भी चिंता का कोई भाव नहीं था। उनकी आंखों में स्वाभिमान का लौह दहक रहा था। मजिस्ट्रेट समेत अदालत में आए लोग भी इस बच्चे को देखकर हतप्रभ थे। लेकिन इसके बाद जब आजाद ने मजिस्ट्रेट के प्रश्नों के जवाब दिए तो वो शब्द इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए।
मेरा नाम आजाद है
चंद्रशेखर
से
मजिस्ट्रेट
ने
पूछा
तुम्हारा
नाम?
उत्तर
में
एक
शब्द
गूंजा
"आजाद"
पिता
का
नाम
?
"स्वतंत्रता"
घर
कहां
है?
"जेलखाना"
हिंदुस्तानी खून का ये ज्वालामुखी फटने से पहले उबल रहा था और इसका एहसास मजिस्ट्रेट को भी था। अल्पायु के कारण चन्द्रशेखर छोड़ दिए जाते लेकिन उनके शब्दों ने अंग्रेजी हुकूमत में मजिस्ट्रेट के अहंकार पर करारे तमाचे जुड़े थे। मजिस्ट्रेट ने कारागार का दंड न देकर चन्द्रशेखर को 15 कोड़ों की सजा सुनाई। हर कोड़े की मार पर चन्द्रशेखर के मुंह से 'वन्दे मातरम्' और 'महात्मा गांधी की जय' का उच्च उद्घोष होता रहा। इस घटना के बाद चन्द्रशेखर सीताराम तिवारी नाम का ये छोटा सा बालक सार्वजनिक रूप से चंद्रशेखर 'आज़ाद' कहा जाने लगा और इसकी ख्याति ऐसी फैली की अंग्रेजी हुकूमत के अफसर आजाद का नाम सुनकर कांप जाते थे।
बन गए क्रांतिकारी
बिगड़ते हालात से आहत गांधी जी ने 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया। इससे चंद्रशेखर आजाद बहुत आहत हुए। आजाद ने देश को स्वंतत्र करवाने की ठान ली। उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक युवा क्रांतिकारी से हुई तो उन्होंने आजाद को क्रांतिकारी दल के राम प्रसाद बिस्मिल से मिलवाया चंद्रशेखर आजाद की कड़ी परीक्षा के बाद बिस्मिल ने उन्हें दल का साथी बना लिया।
अंग्रेजों को लूटते
चंद्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्रित करने लगे। अधिकतर धन अंग्रेजी सरकार से लूटकर एकत्रित किया जाता था। 1925 में काकोरी में आजाद व उनके साथियों ने पूरी ट्रेन ही लूट ली। इस कांड के फलस्वरूप अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद 'बिस्मिल' सहित कई अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को दबोच लिया गया।
'हिंदुस्तान रिपब्लिकन' का गठन
चंद्रशेखर ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन क्रांतिकारी दल का पुनर्गठन किया और भगवतीचरण वोहरा, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु धीरे-धीरे एक छत के नीचे आ गए। भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को भारत से खदेड़ने का शंखनाद कर दिया ।
आजाद पर उस समय 5 हजार का था इनाम
काकोरी ट्रेन डकैती और साण्डर्स की हत्या के बाद आजाद के नाम से अंग्रेजी हुकूमत में इतनी दहशत फैल गई कि पुलिस की टुकड़ी सूचना मिलने के बाद छापेमारी में भी दहशत खाती। आजाद किस भेष में कहां मिलें और मार दें ये डर सब में बन चुका था। अचूक निशानेबाज आजाद को पकड़ने के लिए तत्कालीन एसएसपी सीआईडी जॉन बाबर ने 17 जनवरी 1931 को आजाद पर इनाम की घोषणा कर दी कि जिंदा या मुर्दा आजाद की सूचना देने पर 5 हजार का इनाम दिया जाएगा। भेष बदलकर गायब होने में माहिर आजाद को कई बार पकड़ने का प्रयास हुआ लेकिन हर बार आजाद बच निकले और बदले में अंग्रेजों की संख्या कम करते रहते।
इलाहाबाद में बड़े नेता ने की मुखबिरी
फरवरी 1931 में आजाद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने सीतापुर जेल गए तो विद्यार्थी ने उन्हें इलाहाबाद जाकर जवाहर लाल नेहरू से मिलने को कहा। आजाद नेहरू से मिलने इलाहाबाद आए लेकिन नेहरू ने चंद्रशेखर की बात सुनने से इनकार कर दिया। गुस्से में आजाद अपने साथी सुखदेव आदि के साथ अल्फ्रेड पार्क चले गए। वहां वो आगामी योजनाओं के विषय पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि सही मुखबिरी पर अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया। आजाद ने क्रांतिकारियों को सुरक्षित बाहर निकाल दिया और खुद अंग्रेजों से मोर्चा लेते रहे। 27 फरवरी 1931 का वो दिन आजाद के लिए अंतिम दिन बन गया। अंग्रेजों के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके मृत शरीर पर भी गोलियां चलाकर अंग्रेज बार-बार आश्वस्त होते रहे, तब जाकर आजाद की मृत्यु की पुष्टि हुई। आजाद की मुखबिरी एक बड़े नेता ने की थी और ये राज आज भी भारत सरकार के पास सुरक्षित फाइलों में दफन है।
यहां बसते हैं आजाद
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अल्फ्रेड पार्क व कंपनी बाग का नाम परिवर्तित कर चंद्रशेखर आजाद पार्क रख दिया गया है। इलाहाबाद के संग्रहालय में आजाद की पिस्टल, मृत्यु के समय की तस्वीर, इनामी पोस्टर समेत कई ऐतिहासिक चीजे दर्शन के लिए रखी हैं।
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