जिसकी वीरता के किस्से नहीं मिलते किताबों में, पढ़िए 13 साल की उम्र में कितना बहादुर था वो...
जिसे पढ़ और जानकर आप भी कह उठेंगे कि... "यूं ही नहीं मिली आजादी, कीमत उन्होंने भी चुकाई जो आजाद हुए जिंदगी से.....!, कुछ नाम कर गए और जिन्दा हैं हममे पर कुछ गुमनाम हैं बंदगी से......!
इलाहाबाद। Oneindia आज आपको इलाहाबाद के एक ऐसे शहीद की दास्तां से रूबरू करायेगा, जिसकी ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग ने वह कर दिखाया था, जिसकी जरुरत उस समय हर गुलाम हिंदुस्तानी को थी। मात्र 13 साल की उम्र में शहीद होने वाले रमेश दत्त मालवीय का नाम आज भले ही गुमनामी में हो लेकिन 12 अगस्त 1942 को यह नाम इलाहाबाद समेत पूरे देश गूंज गया था। शहीद रमेश दत्त मालवीय के भाई गणेश दत्त मालवीय से बातचीत व उनकी स्मृति पर आधारित शहीद रमेश मालवीय कि अनसुनी कहानी आज हम आप के लिए लाये है। जिसे पढ़ और जानकर आप भी कह उठेंगे कि... "यूं ही नहीं मिली आजादी, कीमत उन्होंने भी चुकाई जो आजाद हुए जिंदगी से.....!, कुछ नाम कर गए और जिन्दा हैं हममे पर कुछ गुमनाम हैं बंदगी से......!"
जब 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुवा. 9 अगस्त को महात्मा गांधी के आह्वान पर पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन के साथ उठ खड़ा हुवा था तब 12 अगस्त की दोपहर में रमेश दत्त मालवीय भी इलाहाबाद में ब्रिटिश कोतवाली पर अपने साथियो के संग धावा बोल चुके थे। अंग्रेजो की गोली ने इलाहाबाद के सबसे कम उम्र के रमेश को निशाना बनाया था। गोली रमेश की आंख फाड़ते हुए शरीर को आजाद कर गई और इस शहादत ने इलाहाबादियों में आक्रोश के साथ स्वराज का बिगुल फूंक दिया। एक आम बच्चे की इस शहादत ने लोगो के अंदर से मौत का डर खत्म कर दिया और इसके साथ ही अंग्रेजी हुकूमत का भय भी नेस्तनाबूत होता गया। एक और पूरे देश में लोग सड़क पर उतर रहे थे और यहां 13 साल के स्कूली छात्र रमेश की शहादत की खबर जैसे जैसे फैली लोगो में क्रांति कर भाव हिलोर मरने लगा। आखिरकार फिर वह हुवा जो अंग्रेजो के आंखे फाड़ने वाला रहा। हजारों लोग रमेश की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए इलाहाबाद पहुंचे। हर कोई अपने इस शहीद को आखरी बार कंधा देना चाह रहा था। लोग इससे पहले अंग्रेजो के भय से इस तरह किसी अंग्रेजी गोली के शिकार शहीद के लिए बेखौफ होकर इस तरह हजारो की संख्या में सामने नहीं आते थे। क्योकि अंग्रेजी हुकूमत इन हालातो पर विशेष नजर रखती थी। लोगों को गिरफ्तार कर लिया करती थी।
थाने से लूटने थे हथियार
9
अगस्त
की
सुबह
होते
ही
पूरे
इलाहाबाद
में
जगह-जगह
अंग्रेजों
का
विरोध
शुरू
हो
गया
था।
इलाहाबाद
यूनिवर्सिटी
समेत
तमाम
शैक्षणिक
संस्थाओं
में
पढ़ने
वाले
छात्र
और
नौजवान
सभी
सड़क
पर
निकल
आये
थे।
आज
ऐसा
लग
रहा
था
कि
जैसे
हर
किसी
ने
अंग्रेज़ी
हुकूमत
को
दमन
करने
का
प्रण
कर
लिया
हो।
9
अगस्त
को
रात
इलाहाबाद
के
वह
क्रन्तिकारी
जो
अभी
तक
अंडरग्रॉउंड
थे
वह
भी
अचानक
से
प्रकट
होने
लगे।
9
अगस्त
की
रात
चौक
इलाके
के
अहियापुर
यानि
वर्तमान
का
मालवीय
नगर
मोहल्ला
फिर
से
करनटिअरियो
को
टोली
जुटी।
यहां
के
राय
नवल
बहादुर
की
कोठी
में
10
अगस्त
को
गुप्त
मीटिंग
हुई।
तब
तय
हुआ
की
ग्रैंड
टैंक
रोड
के
किनारे
चौक
कोतवाली
में
भरी
मात्रा
में
हथियार
मौजूद
था।
अगर
वो
हथियार
हमें
मिल
जाये
तो
अंग्रेजों
को
यहां
से
खदेड़ा
जा
सकता
है
क्योकि
यही
सही
मौका
है।
अंग्रेज
आंदोलन
की
काट
ढूढ़ने
में
लगे
हैं।
वह
विरोध
प्रदर्शन
को
रोकने
में
मशगूल
होंगे।
ऐसे
में
उनपर
हमला
किया
जा
सकता
है
लेकिन
समस्या
यह
थी
की
हथियारों
से
लैस
पहरेदारो
से
कैसे
निपटा
जायेगा
क्योंकि
थाने
में
भरी
सुरक्षा
व्यवस्था
थी।
क्रांतिकारियों
ने
गुलेल
के
हमले
से
पहले
कोतवाली
के
नज़दीक
पहुंचने
फिर
लाठी
से
हमला
कर
लूट
का
प्लान
बनाया।
मीटिंग
के
बाद
राय
नवल
बहादुर
की
कोठी
के
नीचे
बानी
गुप्त
कोठरी
से
क्रान्तिकरी
यमुना
नदी
की
तरफ
खुलने
वाले
गुप्त
रास्ते
से
निकल
गए
यह
सन्देश
आजादी
के
हर
दीवाने
तक
पहुंच
गया।
निर्णय हुआ की जब थाने के भहर लोगों का भारी प्रदर्शन हो रहा होगा तभी हमला किया जायेगा। इस मीटिंग में रमेश दत्त मालवीय भी मौजूद थे। तब रमेश सीएवी इंटर कॉलेज में 9वीं में पढ़ाई कर रहे थे। 12 अगस्त को रमेश जैसे ही घर पहुंचे तो घर में फिर से मीटिंग चल रही थी। तय हुआ कि आज शहर कोतवाली पर हमला किया जाएगा। फिर क्या था दो दाल बने एक वह जो थाने के बाहर अंग्रेजो के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करता और एक वो जो इस प्रदर्शन की आड़ में थाने तक पहुंच कर हथियार लूटते। रमेश थाना लूटने वालो की टोली में ही शामिल थे।
बलूच रेजिमेंट के पहुंचते ही हर में बदल गई जीत
दोपहर 1 बज चुके थे, चौक कोतवाली के सामने विरोध प्रदर्शन शुरू हो चूका था। क्रांतिकारियों ने बड़ी ही चालाकी से अपनी पोजीसन ले ली और कोतवाली की घेराबंदी भी कर ली। आम जनता के घेराव में उलझी अंग्रेज पुलिस यह समझ भी न पाई की उनपर हमला होने वाला है. वह विरोध प्रदर्शन पर अपना पूरा ध्यान लगाए हुई थी। क्रांतिकारियों का दल बहुत सूझबूझ के साथ कोतवाली के नजदीक पहुंच गया। उन्होंनेगोली से से बचने के लिए लकड़ी के तख्त को भी साथ ले रखा था। ताकि उसके पीछे छुपते हुए गोलियों से बच सकें। अगले पल क्रांतिकारियों ने 'इंकलाब ज़िंदाबाद समेत तमाम जोशीले नारो के साथ भारत माता का जयकारा लगाया और पुलिस थाने पर हमला कर दिया। तुरंत गोली चलने का आदेश हो गया। धड़ाधड़ गोली चलने लगी, एक तरफ अंग्रेज और उनके सिपाही बंदूकों से गोलियां बरसा रहे थे और दूसरी तरफ क्रन्तिकारी गुलेल से जवाबी हमला कर थाने पर कब्जा करने वाले थे। गोलियां लकड़ी के तख्तों पर लगती और उनकी रफ्तार कम हो जाती। थाने पर आगे मोर्चा संभाले अंग्रेज पीछे हटने लगे। जिससे क्रांतिकारियों का जोश लगातार बढ़ता गया। थाने में घुसने से पहले ही बलूच रेजिमेंट के सिपाहियों की कई टुकड़ी चौक कोतवाली पहुंच गई।
बलूच रेजिमेंट के मोर्चा लेते ही क्रांतिकारियों को निशाना बनाकर ताबड़तोड़ गोलिया बरसने लगी। तब रमेश मालवीय बलूच रेंजिमेंट के कमांडर को पत्थर मारा। जो कमांडर की आंख में लगा रमेश एक तख्त के पीछे छिपकर वह पथराव कर रहे थे। बलूच रेंजिमेंट के कमांडर ने रमेश पर निशाना सधवाना शुरू किया और आखिरकार एक गोली रमेश मालवीय की आंख पर जा लगी। गोली लगते ही पूरी भीड़ तितर-बितर हो गई। अचानक बजी पलट गई, मिलती जीत हर में बदल गई। लेकिन इतने के बाद भी लोग डरे नहीं. अंग्रेजो ने गोलिया चलनी बंद की। रमेश की सांसे थम चुकी थी. एक १३ साल का मतवाला शहीद हो चुका था।
शहादत ने कर दिया काम
रमेश की शहादत वह कर दिखाया था, जिसकी जरुरत उस समय हर गुलाम इलाहाबादी को थी। जैसे-जैसे रमेश की शहादत की खबर इलाहाबाद में फैली, जंगल में आग की तरह असर हुआ। देश के अधिकांश हिस्से में 13 साल के एक किशोर की सहादत की खबर ने क्रांति को और ज्वलंत कर दिया था। रमेश की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए लोगो की भरी भीड़ घर पर जुटने लगी। हर कोई अपने इस वीर को आखरी सलाम करना चाह रहा था। चुकी रमेश अंग्रेजी हुकूमत का शिकार हु्आ था। इसलिए अंग्रेज इस अंतिम यात्रा में शामिल होने वालो की गिरफ़्तारी की तैयारी कर रहे थे लेकिन जब अंतिम यात्रा में भीड़ की संख्या अंग्रेजों ने देखी तो उन्हें कदम पीछे खींचने पड़े। इस शहादत बेकार नहीं गई और हमेश इलाहाबादियों को प्रेरित करती रही।
रमेश मालवीय के बारे में...
रमेश मालवीय के पूर्वज कड़ा तत्कालीन कौशाम्बी के रहने वाले थे। वहां उनका पुश्तैनी दवाखाना था लेकिन कौशांबी में जब प्लेग महामारी फैली तो इनका पूरा परिवार इलाहाबाद आ कर बस गया। रमेश मालवीय का जन्म यही 5 जुलाई 1928 को इलाहाबाद के मालवीय नगर में हुआ और अल्प आयु में ही 12 अगस्त 1942 को अंग्रेजो से लड़ते हुए चौक कोतवाली पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। आज शहीद रमेश दत्त मालवीय का परिवार भारती भवन लाइब्रेरी के नजदीक मालवीय नगर में रहता है। घर में आज भी आयुर्वेदिक पुश्तैनी दवाखाना चलता है। घर की दिवार पर रमेश दत्त मालवीय की लगी तस्वीर हर रोज यह याद दिलाती है की आजादी ऐसे ही नहीं मिली है।
रमेश के दादा जी आजादी के दीवानो में से एक थे। उन्ही के नक्से कदम पर रमेश भी चल रहे थे। रमेश सीएवी कॉलेज में पढ़ते और अपने हमउम्र साथियों को लेकर अंग्रेज शासन के खिलाफ पर्चे बांट कर आजादी का संदेश पहुंचाते। जब कहीं धरना प्रदर्शन होता हो रमेश उसमे हिस्सा लेने जरूर पहुंच जाते। वह हमेश कहते थे की वह एक दिन बहुत बड़ा काम करेंगे। सच में उन्होंने देश की आजादी में अपना सर्वोच्च बलिदान देकर वही काम पूरा किया था। 2 अगस्त 1948 को पीडी टंडन पार्क इलाहाबाद में शहीदों के लिए एक बड़ा जलसा हुआ था, जिसमें मौलाना अबुल कलम आज़ाद और जवाहर लाल नेहरु ने शहीद रमेश दत्त मालवीय के सम्मान में परिजनों को ताम्रपात्र दे कर सम्मानित किया था। जिसे आज भी परिजनों ने घर में संभाल कर रखा है। शहीद रमेश दत्त मालवीय के भाई गणेश बताते है की तब मौलाना आजाद ने उनकी कुर्बानी को याद करते हुए कहा था कि, "हम इन शहीदों को कभी नहीं भूलेंगे, जिन्होंने अपने खून से हिन्दुस्तान की सरजमीन को सींचा है। इन्होंने इस मुल्क की मिट्टी का सारा कर्ज चुका दिया है।"
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