आजादी के करीब 90 साल पहले ही आजाद हो गया था इलाहाबाद, फिर यूं बन गया गुलाम
इलाहाबाद। ब्रितानिया हुकूमत में जब-जब यह नाम लिया जाता था तो अंग्रेज कांप उठते थे। नाम की इतनी दहशत थी कौशाम्बी के महगांव निवासी क्रांतिकारी मौलाना लियाकत अली खान की। वर्ष 1857 में क्रांतिकारियों की अगुवाई करते हुए मौलाना ने इलाहाबाद की सदर तहसील पर कब्जा किया। कई अंग्रेज मारे गए थे और आधे से ज्यादा भाग गए थे। पूरी रियासत पर कब्जा करने के बाद 7 जून 1857 से 17 जून 1857 तक करीब 11 दिनों तक मौलाना ने अपनी सरकार चलाई थी।
1857 में जब हिंदुस्तानियों ने अंग्रेजो के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया और अवध में इसे जोर शोर से आगे बढ़ाया जा रहा था उस वक़्त बगावत की लपटे इलाहाबाद और उसके आस पास के इलाकों में भी पहुंच चुकी थी। हालांकि इलाहबाद में बगावत की आवाज वहा के पंडों ने उठाई थी पर इलाहबाद के अवाम ने इस जंग में कयादत के लिए मौलवी लियाकत अली को चुना। ये जंग बहुत लम्बी तो नहीं चली और बागियों को हार का मुंह भी देखना पड़ा था पर उन्होंने जिस बहादुरी और शेर दिली के साथ जंग लड़ी उसे इतिहास कभी भूल नहीं पायेगा।
इलाहाबाद
किले
पर
हमला
ब्रितानिया
सरकार
ने
उस
समय
उत्तर-पश्चिम
प्रांतों
की
सुरक्षा
के
लिए
अकबर
के
बनाए
किले
को
अपना
मुख्यालय
बनाया
था।
इस
किले
में
भारी
मात्रा
में
गोला
बारूद
रखा
था।
किले
की
सुरक्षा
में
छठी
रेजीमेंट
देशी
पलटन
और
फिरोजपुर
रेजीमेंट
सिख
दस्ते
के
सैनिक
लगाये
गये
थे।
यानी
उस
समय
इलाहाबाद
किले
में
यूरोपीय
सिपाही
या
अधिकारी
नहीं
थे
और
यह
क्रांतिकारियों
के
लिए
एक
सुनहरा
मौका
था।
क्योंकि
इस
किले
पर
जीत
का
मतलब
था
ना
सिर्फ
इलाहाबाद
अंग्रेजों
के
चंगुल
से
आजाद
हो
जाता,
बल्कि
पूरा
अवध
क्षेत्र
आजाद
कराया
जा
सकता
था।
इलाहाबाद
को
आजाद
कराने
की
खबर
धीरे-धीरे
अवध
क्षेत्र
में
फैल
गई
और
यहां
की
क्रांति
में
सहयोग
करने
के
लिए
बनारस
के
क्रांतिकारी
भी
पहुंचने
लगे।
अंग्रेजी
हुकूमत
को
भी
इस
बात
की
भनक
लग
गई
और
प्रतापगढ़
से
अंग्रेजी
सेना
इलाहाबाद
के
लिए
रवाना
हुई।
जबकि
कई
अंग्रेज
अधिकारी
भी
इलाहाबाद
अगले
कुछ
दिनों
में
पहुंच
गए।
दोनों
ओर
से
बनी
रणनीति
मौलवी
लियाकत
अली,
सरदार
रामचंद्र
समेत
बनारस
से
पहुंच
चुके
अन्य
क्रांतिकारियों
के
साथ
पंचायत
बुलाई
गई
और
पंचायत
में
निर्णय
लिया
गया
कि
जनता
और
सैनिक
6
जून
को
एक
साथ
हमला
बोलेंगे।
अंग्रेजों
को
पता
चल
चुका
था
कि
बनारस
से
भी
आ
रहे
क्रांतिकारी
भी
किले
पर
हमला
बोल
सकते
हैं,
ऐसे
में
किले
की
सुरक्षा
और
कड़ी
कर
दी
गई।
बनारस
से
आनेवाले
क्रांतिकारिओं
को
रोकने
के
लिए
देशी
पलटन
की
दो
टुकडिय़ां
और
दो
तोपें
दारागंज
के
करीब
नाव
के
पुल
पर
तैनात
कर
दी
गयी।
यानी
पानी
में
ही
उन्हें
दफन
करने
का
प्लान
तैयार
था।
जबकि
किले
की
तोपों
को
बनारस
से
आनेवाली
सड़क
की
ओर
मोड़
दिया
गया।
इसके
अलावा
शहर
की
ओर
अलोपीबाग
में
देशी
सवारो
की
दो
टुकडिय़ां
तैनात
हुई
और
किले
में
65
तोपची,
400
सिख
घुडसवार
और
पैदल
सैनिक
तैनात
कर
दिए
गये।
6
जून
को
किले
पर
आक्रमण
अभी
तक
छिटपुट
रूप
से
चल
रही
बगावत
6
जून
1857
को
पूरे
इलाहाबाद
में
एक
साथ
शुरू
हो
गई
और
पुलिस
चौकियों
पर
धावा
बोल
दिया
गया।
किले
की
ओर
बढते
दबाव
के
बीच
प्रयाग
के
पंडों
ने
भारतीय
सैनिको
को
बगावत
के
लिए
उकसाया
और
सुअर
व
गाय
की
चर्बी
वाले
कारतूस
की
खबर
देकर
अंग्रेजों
के
विरूद्ध
भड़का
दिया।
माहौल
बिगडता
देख
अंग्रेज
अफसरों
ने
सैनिको
को
6
जून
की
रात
लगभग
9
बजे
तोपों
को
किले
में
ले
जाने
का
आदेश
दिया।
तोपों
को
छावनी
के
अंदर
ले
जाते
ही
सैनिकों
ने
अंग्रेजों
पर
गोले
दागने
शुरू
कर
दिए
और
उन्होंने
भी
बगावत
कर
दी।
सैनिकों
ने
की
बगावत
सैनिकों
का
साथ
मिलते
ही
इलाहाबाद
में
बगावत
ने
विकराल
रूप
ले
लिया।
अंग्रेज
लेफ्टीनेंट
अलेक्जेंडर
ने
देशी
पलटन
को
बागियों
पर
गोली
चलाने
का
हुक्म
मिला।
लेकिन,
सैनिको
ने
क्रांतिकारियों
के
खिलाफ
हथियार
उठाने
से
मना
कर
दिया।
अलोपीबाग
के
सैनिको
ने
लेफ्टीनेंट
अलेक्जेंडर
को
गोली
मार
दी।
हालांकि
मौका
पाकर
लेफ्टीनेंट
हावर्ड
वहां
से
भाग
गया।
बागियों
ने
यूरोपीय
अधिकारी
को
मार
दिया
और
उनके
बंगले
जला
दिये।
बागियों
ने
दारागंज
और
किले
के
नजदीक
की
सुरक्षा
चौकियों
पर
कब्जा
कर
लिया
और
बंदियों
को
मुक्त
करा
दिया
गया।
11
दिन
रही
आजादी
क्रांतिकारियों
ने
तत्काल
तार
लाइन
काट
दी
और
तीस
लाख
रूपए
का
खजाना
भी
हासिल
कर
लिया।
7
जून
1857
की
सुबह
कोतवाली
पर
क्रांति
का
हरा
झंडा
फहरा
दिया
गया
और
इलाहाबाद
आजाद
करा
लिया
गया।
लेकिन,
यह
आजादी
सिर्फ
11
दिन
ही
रही।
इलाहाबाद
में
क्रांति
को
कुचलने
के
लिये
बहुत
बडी
सेना
के
साथ
कर्नल
नील
को
इलाहाबाद
भेजा
गया।
उसके
खूंखार
नेतृत्व
में
18
जून
को
इलाहाबाद
पर
अंग्रेजो
का
दोबारा
अधिकार
हो
गया।