नरैनी सीट: इस बार BSP का मजबूत किला आखिर क्यों हुआ कमजोर?
हलांकि नरैनी सीट पर बसपा ने लगातार चार बार बाजी मारी है लेकिन इस बार यह मजबूत किला कमजोर पड़ता नजर आ रहा है। पढ़िए, एक विश्लेषण।
बांदा। जिले की नरैनी सीट पर अबकी बार चुनाव में ऐसे समीकरण बने हैं कि चुनाव बेहद दिलचस्प हो गया है। इस चुनावी भिड़ंत में रोचकता की ऐसी संभावनाएं हैं जिसे आपको ठहरकर समझना पड़ेगा। इस बार नेता प्रतिपक्ष और बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर का मुकाबला भाजपा के अलावा सपा-कांग्रेस गठबंधन से होगा। पिछले चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हुई यह सीट सीपीआई के बाद बसपा का गढ़ बनी हुई है। यहां से लगातार चौथी बार बसपा के उम्मीदवार चुनाव जीते हैं लेकिन इस बार बसपा का यह मजबूत किला 'कमजोर' दिख रहा है।
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सियासत में कभी भी खिसक सकती है जमीन
नरैनी सीट पर कभी वामपंथियों का डंका बजता था लेकिन करीब दो दशक से यह सीट बसपा का मजबूत किला बनी हुई है। अब तक हुए विधानसभा के 15 चुनावों में कांग्रेस, सीपीआई और बसपा के चार-चार वहीं जन संघ, भाजपा और सपा के एक-एक विधायक चुने गए हैं। 1996 के चुनाव के बाद यह सीट बसपा का गढ़ बन गई। 1951 में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के श्यामाचरन, 1957 में कांग्रेस के ही गोपीकृष्ण आजाद चुनाव जीते थे।
1962 में जन संघ के ठाकुर मतोला सिंह, 1967 में बीजेएस के जे. सिंह और 1969 में कांग्रेस के हरवंश पांडेय के चुनाव जीतने के बाद 1974 से यह सीट सीपीआई का गढ़ बन गई। 1974 के चुनाव में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (सीपीआई) के चंद्रभान आजाद ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली थी। 1977 में सीपीआई केडॉ. सुरेन्द्र पाल वर्मा जीते और 1980 में एक बार फिर कांग्रेस के हरवंश पांडेय के चुनाव जीतने के बाद यहां अब तक कांग्रेस पनप नहीं पाई।
पाला बदलने से क्या बदलती है किस्मत ?
1985 से 1989 तक सीपीआई के सुरेन्द्र पाल वर्मा का कब्जा रहा लेकिन 1991 में राम लहर के चलते यहां भाजपा के रमेश चंद्र द्विवेदी चुनाव जीत गए। इस दौरान सुरेन्द्र पाल वर्मा ने पाला बदला और सीपीआई छोड़ वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। 1993 के चुनाव में वह फिर चैथी बार विधायक बनें। तो 1996 में बसपा के बाबूलाल कुशवाहा यहां से विधायक बने। इसके बाद सुरेन्द्र पाल वर्मा ने एक बार फिर पाला बदला और बसपा में शामिल होकर 2002 का चुनाव जीता।
वोट बैंक की राजनीति सबसे बड़ा दांव, कौन मारेगा बाजी ?
2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने यहां से पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी को मैदान में उतारा। वह चुनाव भी जीते लेकिन शीलू निषाद दुष्कर्म कांड़ में फंसने के बाद उनका कार्यकाल जेल में ही बीता। नए परिसीमन में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित होने के बाद 2012 के चुनाव में बसपा के गयाचरण दिनकर (अब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष) ने सपा के भरतलाल दिवाकर को हराया। इस चुनाव में बसपा के गयाचरण दिनकर को 52,195 वोट मिले थे जो सपा के भरतलाल दिवाकर को मिले 47,438 वोटों से भी ज्यादा थे और भाजपा के राजकरन कबीर के 38,058 और कांग्रेस के महेन्द्र सिंह वर्मा के 20,418 वोटों से भी।
सपा तय करेगी यहां मुकाबला होगा कितना कड़ा ?
इस बार के विधानसभा चुनाव में यह सीट सपा-कांग्रेस गठबंधन में सपा के हिस्से है लेकिन सपा ने इस बार भी यहां से अपना 2012 का पुराना उम्मीदवार ही उतारा है। इस बार यहां कुल मतदाताओं की संख्या 3,35,149 है। जिनमें 1,51,333 महिलाएं और 1,83,806 पुरुष मतदाता है। एक अनुमान के मुताबिक ज्यादातर मतदाता यहां दलित हैं जिनकी संख्या 85,000 है तो वहीं ब्राह्मण 48,000, लोधी 32,500, यादव 23,000, कुर्मी 22,000, मुस्लिम 20,000, निषाद 18,500, क्षत्रिय 17,000, वैश्य 15,000, कुम्हार 9,500 और पाल 8,500 के आस-पास हैं।
क्या कहती है राजनैतिक पंडितों की भविष्यवाणी ?
जानकारों का कहना है कि बसपा के पूर्व मंत्री आरके पटेल का भाजपा में शामिल होना बसपा के जातिगत समीकरण को प्रभावित करेगा। आरके पटेल इससे पहले बसपा के लिए मतों के ध्रुवीकरण के लिए जाने जाते थे। तो अब बदली परिस्थितियों में बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर को अपनी चुनावी रणनीति में काफी बदलाव करना पड़ेगा। हालांकि सपा और भाजपा उम्मीदवारों की पकड़ भी खुद की बिरादरी में कमजोर मानी जा रही है। दिनकर पिछले चुनाव में कोरी समुदाए का 42 फीसदी वोट हासिल कर चुके हैं और घोबी मतदाताओं ने उन पर 30 फीसदी भरोसा जताया था। इस बार भाजपा ने कोरी बिरादरी के राजकरन कबीर को यहां से टिकट दिया है। तो सपा के हिस्से चढ़ी नरैनी सीट पर धोबी बिरादरी के भरतलाल दिवाकर दांव आजमाएंगे।
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अबकी बार गठबंधन से उतर रहे भरतलाल को राजनीतिक विश्लेषक कम नहीं आंक रहे। उनका तर्क है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस के खाते में गए 20,418 मत उम्मीदवार महेन्द्र सिंह वर्मा के कौम (जाटव) के नहीं थे बल्कि वह कांग्रेस के पुश्तैनी मत हैं। अगर सपा और कांग्रेस के कार्यकर्ता सामंजस्य बनाकर चुनाव लड़ें तो बसपा पिछड़ सकती है। साथ ही वह यह भी कहते हैं कि भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अपने मतों को सहजने में सफल रही तो वह जीतने की स्थिति में भी हो सकती है। इस विधानसभा सीट से 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार (जीते हुए) भैरों प्रसाद मिश्र को करीब 73 हजार मत मिले थे। इसी प्रकार सपा और कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में मिले मतों को जोड़ें तो 67 हजार के पार होते हैं।
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बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर कहते हैं कि उनकी मंशा हमेशा विकास की रही है लेकिन राजनीतिक भेदभाव विकास में बाधक रहा है, फिर भी उन्होंने अन्य विधायकों के अपेक्षा ज्यादा विकास कराया है। वह कहते हैं कि ‘राज-पाट की लड़ाई में बहुजन समाज का मतदाता मतभेद भुलाकर बसपा के पक्ष में ही मतदान करेगा।' तो भाजपा उम्मीदवार राजकरन कबीर कहते हैं कि ‘भाजपा प्रदेश में विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कल्याणकारी योजनाएं ही उन्हें जीत दिलाएगी।' एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि ‘नोटबंदी से भ्रष्टाचार और कालेधन पर रोक लगी है, इससे भाजपा को कोई नुकसान होने वाला नहीं है।' जबकि सब्जी बेचकर परिवार का बसर चलाने वाले गौर-शिवपुर गांव के बिल्लू केवट का कहना है कि ‘नोटबंदी से सब्जी की बिक्री बंद हो गई, तमाम गरीबों के घरों में बच्चे भूख से बिलबिलाते रहे हैं।'
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इस बार बसपा उम्मीदवार से जहां कुर्मी मतदाताओं के कटने के आसार हैं तो वहीं काफी हद तक दलित कौम के कोरी, धोबी, खटिक, मेहतर और कुछबंधिया अपनी राजनीतिक उपेक्षा के चलते बसपा से नाराज दिख रही है। इन दलित मतदाताओं की संख्या कुल दलित मतदाताओं में आधे से ज्यादा है। हालांकि बसपा विधानसभा इकाई नरैनी के अध्यक्ष गोकरन वर्मा कहते हैं कि ‘बसपा बूथ स्तर तक चुनाव की तैयारी कर चुकी है। अगर वो अपने रूठे मतदाताओं को मना लेती है तो पांचवीं बार भी बसपा का ही नीला झंडा यहां फहरेगा।
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