आधी आबादी का दिन भी आधा होता है और रात तो उनके लिए होती ही नहीं
कविता
गाजियाबाद। 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ' ये बात जब हम अपने बचपन में किसी के मुह सुनते थे, तो समझ नहीं पाते थे कि ऐसा क्यों बोला जाता है; पर जैसे- जैसे बड़े हुये ये बात समझ आने लगी क्योंकि बड़े होने के साथ -साथ हमारी स्वतन्त्रता, हमारे सपने, हमारे बोलने की आजादी, घरों से बाहर निकलने की छूट ये सब सीमित होने लगे। यहाँ तक की हमारे कपड़े भी हमारे बड़े होने से पहले ही बड़े हो गए, तब यह बात हमारे मन में भी आने लगी अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। और तभी नहीं बल्कि हर उस पल महसूस होता है जब हमें समाज के बनाए नियमों के लिए अपने वजूद से समझौता करना पड़ता है।
हम सब लड़कियों को ऐसा लगता हैं कि अपनी नहीं किसी और की जिंदगी जी रहीं हैं, हमारा दो व्यक्तित्व होता है एक तो हमारा खुद का और दूसरा संस्कारों का। और फिर यहीं समाज हमें अपने बनाए संस्कृतियों में रहने के लिए विवश करता रहता है और जब हम इन संस्कृतियों के जंजीर से बाहर निकलने कि कोशिश करते हैं तो इस समाज के संस्कृतियों के रखवालों द्वारा हमारी आवाज के साथ -साथ हमको भी कुचल दिया जाता है, ठीक ऐसा ही हुआ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जिसे हम बीएचयू कहते हैं, आज महिला छात्राओं की सुरक्षा को लेकर सवालों के घेरे में खड़ा है क्योंकि महिला छात्राओं को अपनी ही सुरक्षा के लिए आंदोलन करना पड़ा और इस आंदोलन से उन्हें मिला भी तो क्या लाठी? वाकई बनारस विश्वविद्यालय की इस घटना ने एक बार फिर छात्राओं के उज्जवल भविष्य को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है।
अगर विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं तो फिर देश के अन्य संस्थानों से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की इस छेड़खानी की घटना की शुरुआत 21 सितंबर की शाम को करीब सात बजे के आसपास तब हुई जब छात्रा लाइब्रेरी से अपने हॉस्टल लौट रही थी, फिर शिकायत करने के बाद हमेशा की तरह लड़की पर ही सवालिया निशान लगा दिये गए कि वह दिन ढलने के बाद बाहर क्यों थी। जी हाँ सच में ये छेड़खानी से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न है? वो कैसे भूल गई की उसके लिए सिर्फ दिन हैं रात नहीं, रात तो राक्षसों का होता है देवियों का नहीं, अगर रात को लड़कियां बाहर निकलती हैं वो चुड़ैल होती हैं। लड़कियों का दिन ही आधा होता है यानि 24 घंटे में से 12 घंटे का, सुबह 7 बजे से शाम के 7 बजे तक उनको अपने सारे काम इस आधे दिन में ही करना होता है यानि आधी आबादी का दिन भी आधा होता है। शाम होते ही उनके मन में खुद एक भय समा जाता है उनको ये डर सताने लगता है कि ये रात किसी और की है उनकी नहीं। जब छात्राएँ स्वयं अपनी सुरक्षा को लेकर धरना-प्रदर्शन पर बैठी और सुरक्षा संबंधी अपनी मांगें रखी तो उसी दिन बीएचयू गेट के सामने से प्रधानमंत्री का काफिला निकलने वाला था परंतु छात्राओं की भीड़ और उनके प्रदर्शन को देखते हुये प्रधानमंत्री के काफिले का रास्ता ही बदल दिया गया, इस पर हिन्दी फिल्म का एक गाना याद आ रहा है 'ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ जाना ना दोबारा' इसे मैंने थोड़ा सा बदल दिया है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने अपना रास्ता बदल लिया था।
आखिर जब छात्राएँ अपनी सुरक्षा की मांग लेकर बीएचयू के वीसी से मिलना चाहती थी तो उनको छात्राओं से मिलकर उनकी समस्या को सुनकर आश्वासन देने में आखिर क्या समस्या थी? अपना सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य जिस वीसी ने लड़कियों की समस्याओं को नहीं सुना वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मुझे अर्थशास्त्र पढ़ा चुके हैं यानि हमारे शिक्षक रह चुके हैं। फिर इस तरह से पुलिस द्वारा लाठी चलाकर छेड़खानी के विरुद्ध उठे आवाज को दबाने की कोशिश। बीएचयू का ये आंदोलन कोई एक दिन की उपज नहीं थी बल्कि पिछले काफी समय से छात्राएँ छेड़खानी और भेदभाव से परेशान होकर समानता के लिए गुहार लगा रहीं थी परंतु विश्वविद्यालय प्रशासन इस बात को बहुत ही हल्के में ले रहा था क्योंकि उनके लिए छेड़खानी कोई बड़ी बात नहीं थी । बीएचयू के तहत आने वाले महिला महाविद्यालय हॉस्टल में लड़कियों पर तमाम तरह की पाबन्दिया लगाई गई हैं, छात्राओं को रात आठ बजे बाद हॉस्टल छोड़ने की इजाजत नहीं है, रात में लाइब्रेरी जाने की इजाजत नहीं है, छात्राओं को हॉस्टल के कमरों में वाई-फाई लगाने की इजाजत नहीं, सभी छात्राएँ अपने कमरे के बाहर सभ्य पोशाक में रहेंगी, रात 10 बजे के बाद कोई लड़की मोबाइल पर बात नहीं कर सकती और तो और वो मांसाहार भोजन भी नहीं खा सकती।
वाकई ये सारे नियम सिर्फ एक विश्वविद्यालय छात्रावास की नहीं, बल्कि देश की सभी महिला विश्विद्यालय के छात्रावास का यहीं हाल है। सभी महिला विश्वविद्यालय हॉस्टल में छात्राओं को ऐसे ही नियमो क़ानूनों के दायरे में रखा जाता है, आज जब लड़कियों को समानता और बराबर का हक दिये जाने की बात हो रही है। उनको पढ़ने आगे बढ़ने और आर्थिक रूप से सक्षम होने के लिए प्रेरित किया जा रहा है तो ये भेदभाव क्यों सिर्फ उनके लिए ये पिजड़ा क्यों? विश्वविद्यालय जैसे संस्थान में जहां लड़कियां शिक्षा ग्रहण करने आती है, वहाँ पर ही इस प्रकार का भेदभाव किया जाएगा तो हमारे देश में महिला सशक्तिकरण की बात तो बेईमानी हो जाएगी। हमारे आपके घरों की लड़कियां रात के समय घरों से बाहर नहीं निकलती, ये हमारे देश की एक परंपरा सी बन गई है।
विश्वविद्यालय जैसे संस्थान की ये ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वो ऐसे परंपरा को खत्म करने की दिशा में प्रयास करे और एक प्रगतिशील सोच को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाएं। लड़कियों को वो माहौल दे कि वो रात को भी बिना किसी भय और शर्म के निकल सके, अपनी पसंद के कपड़ों को बिना झिझक पहनकर सड़कों पर चल सके और जब लड़कों के साथ मोटरसाइकिल पर बैठकर चले तो उनको ये ना लगे की वो कोई गलत काम कर रहीं हैं। साथ -साथ रहने, पढ़ने, घूमने से लड़के-लड़कियों में एक समझ विकसित होगी ऐसे में एक सकारात्मक विचार का जन्म होगा; किन्तु विश्वविद्यालयों में तो ठीक इसके उल्टा हो रहा है जो आजादी मिली है उसे भी धीरे -धीरे छिना जा रहा है और सीमित किया जा रहा है। आज जब बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ पर ज़ोर दिया जा रहा है तो क्यों उन्हीं बेटियों के पैरों में जंजीर डालकर चलने को कहा जा रहा है ताकि हम तेज न चल पायें। और अगर तेज चलने की कोशिश करे तो गिर जाए।
मैं भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में रह चुकी हूँ। इन समस्याओं से मेरा खुद का भी गहरा नाता रह चुका है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला परिसर में 6 हॉस्टल हैं, हॉस्टल के बाहर का बड़ा गेट 9 बजे बंद होता ही था, उसे तो छोड़ दीजिये,सभी छात्रावासों का अपना खुद का भी अंदर एक गेट होता है, उसे भी ठीक 9 बजते ही बंद कर लिया जाता है। यानि आप हॉस्टल कैंपस में भी 9 बजे के बाद नहीं जा सकते और ना ही दूसरे छात्रावास की लड़कियों से मिल सकते हैं। इससे भी ज्यादा बुरा तो तब लगता था जब होली पर किसी कारणवश हॉस्टल में रुकना पड़ जाता था तो हमें अपने -अपने हॉस्टल में तीन दिनों के लिए बंद कर दिया जाता था और हम कैंपस में भी नहीं निकल सकते थे और ना ही हम बाहर से कोई सामान ला सकते थे। होली के तीन दिनों में हॉस्टल का मेस भी बंद रहता था। अगर कभी घर से आने पर ट्रेन लेट हो जाती थी, हॉस्टल बंद हो चुका होता था समझ नहीं आता था की रात में कहाँ जाएं। बहुत कहने पर ट्रेन का टिकट दिखाने बाद बाहर का बड़ा गेट तो खुल जाता था। किन्तु अंदर अपने हॉस्टल का गेट खुलवाने के लिए गार्ड के साथ वार्डन के पास जाना पड़ता था और उनके पास जाने के बाद तो ऐसे सवालों की बारिश शुरू होती थी, कहाँ घूम रही थी इतनी रात तक, किसके साथ थी, कहाँ से आ रही हों, इतना लेट कैसे हो गया?
हम जवाब देते -देते थक जाते थे पर उनके सवाल खत्म होने का नाम नहीं लेते थे। यहाँ तक कि ट्रेन का टिकट दिखाने बाद भी ये जारी रहता था। इस कारण मैं कभी भी शाम वाली ट्रेन से नहीं आना चाहती थी, फिर भी कई बार मजबूरी में आना ही पड़ता था; क्योंकि हमारे यहाँ से सिर्फ एक ही ट्रेन चलती थी सुबह 6 बजे और शाम के 6 बजे। सुबह के समय वाला ट्रेन पकड़ने में स्टेशन तक जाने का संसाधन न होने के कारण शाम वाली से आना होता था और वो अक्सर लेट हो जाती थी और मैं हमेशा वार्डन के सवालों कि शिकार होती थी। ऐसे ही सुबह अगर घर जाने के लिए ट्रेन पकड़ना होता था तब भी बहुत समस्या होती थी। विश्वविद्यालय में और हॉस्टल के आस- पास छेड़खानी और गंदे, भद्दे कमेन्ट पास होना भी आम बात थी। इतना सब होने के बावजूद हम कभी भी इन सबके खिलाफ आवाज उठाने कि हिम्मत न कर पाये, शायद हमारे संस्कारों की जंजीर थोड़ी मोटी थी किन्तु बीएचयू की लड़कियों ने वो जंजीर तोड़ दी; हमें गर्व होना चाहिए उन पर। हम समाज से कुछ ज्यादा नहीं चाहते, बस समाज के अंदर जो रूढ़िवादी सोच बसी हुई है लड़कियों के प्रति, हम उस सोच से आजादी चाहते हैं और हम किसी से आगे नहीं चलना चाहते, बस सबके साथ चलना चाहते हैं, तभी तो सबका साथ सबका विकास का सपना सच होगा।