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47 साल पहले बता दिया गया था, इन तरीकों से जोशीमठ बचा लो

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बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब, बर्फ से लकदक औली, अद्भुत फूलों की घाटी और भारत के आखिरी गांव माणा का प्रवेश द्वार जोशीमठ धार्मिक और रोमांचक पर्यटन के एक अहम पड़ाव के रूप में मशहूर रहा है. इन दिनों वो अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है. राज्य और केंद्र सरकारें हरकत में आ गईं हैं और स्थानीय लोग आंदोलन कर रहे हैं.

जोशीमठ की भूगर्भीय संवेदनशीलता के बारे में आधी सदी से भी ज्यादा समय से चिंताएं जताई जाती रही हैं. इन आशंकाओं से जुड़े प्रत्यक्ष निशान पिछले कुछ साल से सामने आने लगे थे. जोशीमठ के पड़ोसी गांव चांई में लोगों के मकान धंसने लगे, पहाड़ दरकने लगे और निचले इलाकों के घरों में दरारें उभरने लगी थीं. हैरानी की बात है कि चीन से जुड़ी सीमा के पास बसा जोशीमठ, जो कि सामरिक तौर पर इतनी महत्वपूर्ण लोकेशन पर है, वहां इन सब चिंताजनक संकेतों के बावजूद जल्द-से-जल्द समाधान खोजने की तत्परता नहीं दिखाई गई.

उत्तर प्रदेश से अलग होकर साल 2000 में उत्तराखंड का एक नए राज्य के तौर पर गठन हुआ. पिछले 20-22 साल में कांग्रेस और बीजेपी बारी- बारी से सत्ता में आई, लेकिन जोशीमठ पर मंडरा रहे खतरे और चेतावनियों के सभी स्वरों की कमोबेश अनदेखी की जाती रही. 2013 में आई केदारनाथ और बद्रीनाथ की भयंकर प्राकृतिक विपदाओं ने इस हिमालयी इलाके के संवेदनशील स्वभाव की ओर सबका ध्यान खींचा, लेकिन खतरे की वो घंटी भी जल्द भुला दी गई.

कितने घरों में दरार आई और क्या इंतजाम हुए

जोशीमठ नगरपालिका क्षेत्र को आपदाग्रस्त घोषित कर दिया गया है. जिला प्रशासन के मुताबिक जोशीमठ में करीब 3,900 मकान और 400 व्यापारिक इमारतें हैं. ये निर्माण सिर्फ ढाई वर्ग किलोमीटर के दायरे में हैं. 9 जनवरी को जारी सरकार की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि जोशीमठ नगर क्षेत्र में कुल 678 घरों में दरारें दिखी हैं. फिलहाल 81 परिवारों को अस्थायी रूप से दूसरी जगह ले जाया गया है.

लोगों को ठहराने के लिए अस्थायी निवास के तौर पर 213 कमरों को चिह्नित किया गया है.अनुमान है कि इनमें 1,191 लोग रह सकते हैं. इसके साथ ही नगरपालिका क्षेत्र से बाहर पीपलकोटी में 491 हॉल चिह्नित किए गए हैं, जिनकी क्षमता 2,205 है. प्रभावित परिवारों को जरूरत के हिसाब से खाने-पीने की किट और कंबल बांटे गए हैं. 53 प्रभावित परिवारों को जरूरी घरेलू सामान खरीदने के लिए पांच हजार रुपये की मदद दी गई है.

अस्थायी इंतजामों के अलावा सरकार एक दीर्घकालीन योजना पर भी काम कर रही है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि फौरी इंतजामों के अलावा दीर्घकालीन योजनाओं की प्रक्रिया को भी तेज किया जाना चाहिए. खतरे वाले इलाकों, सीवर लाइनों और नालियों की मरम्मत जल्द-से-जल्द पूरी की जानी चाहिए. ताजा संकट पर राज्य सरकार लगातार केंद्र के संपर्क में हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय भी अपने स्तर पर जोशीमठ के मामले पर नजर बनाए हुए है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विषय पर उच्च-स्तरीय बैठकें कर चुके हैं.

ताजा घटनाक्रम और संकट के बीच जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति ने राज्य सरकार के सामने पांच मांगें रखी हैं और इन्हें पूरा किए जाने तक आंदोलन जारी रखने का फैसला किया है.

कई बार विशेषज्ञों ने किया सावधान

जोशीमठ नगरपालिका, उत्तराखंड के चमोली जिले में है. यहां जमीन धंसने और भूस्खलन की घटनाओं के कारणों की जांच के लिए 1976 में 18 सदस्यों की एक समिति गठित की गई. गढ़वाल मंडल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा इसकी अगुवाई कर रहे थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट में जोशीमठ को भूगर्भीय तौर पर अस्थिर बताया. समाधान के तौर पर कई पाबंदियां लागू करने और हालात को सही करने के उपाय भी सुझाए.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मिश्रा समिति ने भारी निर्माण कार्यों पर रोक लगाने, ढलानों पर कृषि कार्य को फौरन बंद करने, पेड़ न काटने, बारिश के पानी का रिसाव रोकने के लिए पक्की नालियां बनाने और नदी के तटों को छीजने से रोकने के लिए सीमेंट के ब्लॉक खड़े करने जैसे कई सुझाव दिए थे. लेकिन जोशीमठ में हुआ उल्टा. बेतहाशा निर्माण, आवाजाही और अंधाधुंध शहरीकरण ने एक पहाड़ी टीले पर बसे शहर को झकझोर कर रख दिया. अतिवृष्टियों और तपोवन बांध परियोजना की सुरंगों ने उसे जर्जर बनाने में सहयोग किया.

जोशीमठ स्थायी तौर पर टेक्टोनिक जोन में आता है और भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील है.ये पहाड़ सिर्फ भूकंप के जोन पांच और जोन चार के भूगर्भीय संकट से नहीं घिरे हैं, वे गैर-कुदरती आफतों के लपेटे में भी हैं. भूगर्भीय रूप से नवजात पहाड़ियां भारी बारिश में दरकने लगती हैं, घाटियों में सघन बारिश जमा हो जाती है और मकान और मिट्टी का धंसाव शुरू हो जाता है, मानो कोई अदृश्य आरी इस गीली धरती को काट रही हो. नदियां इस मलबे से भर गई हैं. उनमें निर्माण का मलबा जमा है.

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पड़ोसी गांव में भी उभर रही हैं दरारें

जोशीमठ के ऊपर की ओर स्कीइंग के लिए मशहूर औली का बर्फ से लदा पहाड़ है और नीचे धौलीगंगा और अलकनंदा का संगम. दोनों नदियां वेग से बहती हैं और ग्लेशियरों के पिघलाव की दर में तेजी आने से उनकी धारा और विकराल बन गई है. धौलीगंगा पर ही नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की बांध परियोजना बन रही है. जोशीमठ और आसपास की पहाड़ियों के भीतर बनी सुरंगों और पहाड़ काटने और सड़कें बनाने में डायनामाइट के इस्तेमाल ने भी लंबे समय से मध्य हिमालय के इन नाजुक कच्चे नए पहाड़ों को कमजोर किया है.

जोशीमठ से 22 किलोमीटर आगे जोशीमठ-मलारी मार्ग पर बसे रैणी गांव में भी दो साल पहले मकानों में दरारें पड़ने की शिकायतें आई थीं. राज्य सरकार ने एक कमिटी भी गठित की थी, जिसने गांव को खाली कराने का सुझाव दिया था. उस पर भी अमल नहीं हुआ है. समितियों की सिफारिशों में संवेदनशील इलाकों को खाली करना एक फौरी उपाय जरूर रहा है, लेकिन एक बुनियादी सवाल ये भी है कि क्या पीढ़ियों से पारंपरिक रिहाइश वाले गांववालों को बेदखल किया जा सकता है. कौन सी ऐसी उपयुक्त जगह उन्हें मिलेगी, जहां उन्हें अपने मूल निवास जैसा महसूस हो पाए. साथ ही, अपनी संस्कृति और पारंपरिकरता से उनका नाता बना रहे.

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पनबिजली परियोजनाएं

उत्तराखंड में करीब 20,000 मेगावाट की पनबिजली क्षमता का अनुमान लगाया जाता है. 2021 के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में विभिन्न पनबिजली रियोजनाओं से 2,594 मेगावॉट बिजली उत्पादन हो रहा है. 1907 में देश का पहला जलविद्युत स्टेशन मसूरी के गिलोगी में बना था, जहां अभी भी बिजली उत्पादन हो रहा है. उत्तराखंड की नदियों पर छोटे, मध्यम और बड़े आकार के 43 बांध बने हैं या बन रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि 1970 के बाद से उत्तराखंड में बाढ़ की चरम घटनाओं की संख्या और तीव्रता में चार गुना वृद्धि हुई है. राज्य के चमोली, हरिद्वार, नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में सबसे ज्यादा असर पड़ा है.

फरवरी 2021 में जोशीमठ से ऊपर बद्रीनाथ धाम के पास ऋषिगंगा नदी के जलागम क्षेत्र में ग्लेशियर फटने से भारी तबाही हुई थी. रैणी गांव के नजदीक स्थित एक निजी कंपनी की ऋषिगंगा बिजली परियोजना को भारी नुकसान पहुंचा. हालिया बरसों में उत्तराखंड में भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटने की कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें जानमाल का बड़ा नुकसान हुआ है.

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स्थानीय लोग कर रहे हैं आंदोलन

जोशीमठ के स्थानीय लोग और कई सामाजिक कार्यकर्ता शहर को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आए हैं. "जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति" का गठन कर लोग पुरजोर तरीके से अपनी मांग उठा रहे हैं. हालांकि ये पहली बार नहीं है कि लोग अपनी शिकायत और जोशीमठ पर मंडरा रहे संकट के बारे में अधिकारियों और सराकारों को सचेत कर रहे हों.

"जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति" के संयोजक अतुल सती के मुताबिक वो करीब दो दशकों से जोशीमठ के संकट को न सिर्फ रेखांकित करते आ रहे हैं, बल्कि सरकारों के दरवाजे भी खटखटाते रहे हैं. जमीन धंसने की आशंका और जोशीमठ की संवेदनशील भौगोलीय स्थिति के बारे में ध्यान दिलाते हुए दिसंबर 2003 में अतुल सती ने तत्कालीन राष्ट्रपति को भी एक पत्र भेजा था. उसके बाद भी वो अपने आंदोलनकारी साथियों और जोशीमठ के स्थानीय नागरिकों के साथ इस मुद्दे पर आवाज उठाते रहे.

ताजा घटनाक्रम और जोशीमठ पर आए संकट के बीच संघर्ष समिति ने राज्य सरकार के सामने पांच मांगें रखी हैं और इन्हें पूरा किए जाने तक आंदोलन जारी रखने का फैसला किया है. ये मांगें हैं- एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना पर रोक लगाई जाए. हेलंग-मारवाड़ी बाईपास पूरी तरह से बंद कर दिया जाए. एनटीपीसी को 2010 में हुए समझौते को लागू करने को कहा जाए, जिसमें घर-मकानों का बीमा कराने की बात शामिल है. जोशीमठ के समयबद्ध पुनर्वास और स्थायीकरण के लिए एक अधिकार प्राप्त उच्चस्तरीय समिति बनाई जाए, जिसमें जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति को भी शामिल किया जाए.

पांचवीं मांग है कि प्रभावित लोगों और पीड़ितों को फौरन आवास, भोजन और दूसरी मदद देने के लिए एक समन्वय समिति का गठन किया जाए, जिसमें स्थानीय प्रतिनिधि शामिल हों. इसी के साथ मुआवजे और स्थायी पुनर्वास की प्रक्रिया शुरू करने को भी कहा गया है. फिलहाल निर्माण कार्य रोक दिए गए हैं लेकिन मांगों पर विस्तार से सरकार की ओर से अभी कोई निर्णायक जवाब नहीं आया है.

समाधान क्या है?

संभव है कि आने वाले दिनों में जोशीमठ को लेकर कोई निर्णायक कार्रवाई या फैसले का ऐलान भी सामने आ जाए. यह भी मुमकिन है कि नागरिकों के स्थायी पुनर्वास को लेकर कोई ठोस प्रक्रिया शुरू कर दी जाए. लेकिन तब भी ये सवाल तो बना ही रहेगा कि आखिर ऐसी घटनाओं का निर्णायक और व्यापक समाधान क्या होगा, जिसमें नागरिकों को परेशान भी न होना पड़े और विकास कार्यों में भी बाधा न आए. दरअसल जोशीमठ उस व्यापक पहाड़ी विडंबना का ही एक प्रतीक है, जिससे उत्तराखंड का नाजुक भूगोल और पारिस्थितिकी घिरी रही है.

विकास और पर्यावरण की बहस उत्तराखंड में तभी शुरू हो गई थी, जब पहली बार 1960 के दशक में टिहरी में एक विशाल जल विद्युत परियोजना के प्रस्ताव ने आकार लेना शुरू किया था. दशकों से चला आया बांध विरोधी आंदोलन विस्थापन, पुनर्वास और टिहरी नगर के डूबने के साथ शेष हुआ.

राज्य के दूसरे हिस्सों में भी बड़े आंदोलन चले. पिथौरागढ़ का पंचेश्वर बांध हो या दारमा घाटी पर प्रस्तावित बांध या जोशीमठ के पास तपोवन-विष्णुगाड जल बिजली परियोजना, या चार धाम सड़क परियोजना हो या राष्ट्रीय पार्क को काटते हाई-वे, निर्माण प्रतिरोध जारी हैं. विकास योजनाओं में समावेशी तौर-तरीके न निकाले गए, तो असंतोष और आक्रोश पनपता रहेगा. तमाम विकास परियोजनाओं को पर्यावरण और जनता के अनुकूल बनाए रखने के लिए उन्हें विज्ञान-सम्मत और प्रकृति-सम्मत तो बनाना ही होगा. छुए-अनछुए आयामों के विस्तृत और व्यापक अध्ययन के साथ-साथ प्रभावित लोगों की भागीदारी से पर्यावरण संरक्षण, जीवनचर्या और विकास में तालमेल बैठाया जा सकता है.

Source: DW

English summary
sinking-joshimath-is-a-sad-example-of-side-effects-of-unregularized-development-in-sensitive-zones
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